ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 53/ मन्त्र 7
अ॒क्षा॒नहो॑ नह्यतनो॒त सो॑म्या॒ इष्कृ॑णुध्वं रश॒ना ओत पिं॑शत । अ॒ष्टाव॑न्धुरं वहता॒भितो॒ रथं॒ येन॑ दे॒वासो॒ अन॑यन्न॒भि प्रि॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒क्ष॒ऽनहः॑ । न॒ह्य॒त॒न॒ । उ॒त । सो॒म्याः॒ । इष्कृ॑णुध्वम् । र॒श॒नाः । आ । उ॒त । पिं॒श॒त॒ । अ॒ष्टाऽव॑न्धुरम् । व॒ह॒त॒ । अ॒भितः॑ । रथ॑म् । येन॑ । दे॒वासः॑ । अन॑यन् । अ॒भि । प्रि॒यम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्षानहो नह्यतनोत सोम्या इष्कृणुध्वं रशना ओत पिंशत । अष्टावन्धुरं वहताभितो रथं येन देवासो अनयन्नभि प्रियम् ॥
स्वर रहित पद पाठअक्षऽनहः । नह्यतन । उत । सोम्याः । इष्कृणुध्वम् । रशनाः । आ । उत । पिंशत । अष्टाऽवन्धुरम् । वहत । अभितः । रथम् । येन । देवासः । अनयन् । अभि । प्रियम् ॥ १०.५३.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 53; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम्याः) हे ज्ञानरस का सम्पादन करनेवाले विद्वानों ! (अक्षानहः-नह्यतन) इन्द्रियों के बन्धनयोग्य छिद्रों को बाँधो-नियन्त्रित करो (उत) और (रशनाः-इष्कृणुध्वम्) ज्ञानरश्मियों को उज्ज्वल करो-उभारो (उत) तथा (आ-पिंशत) भली प्रकार फैलाओ (अष्टाबन्धुरं रथम्-अभितः-वहत) अष्टाङ्गयोग में बाँधने योग्य विषयों में रमणशील मन को स्वाधीन करो (येन देवासः) जिसके द्वारा विद्वान्-मुमुक्षुजन (प्रियम्-अभि-अनयन्) प्रिय मोक्ष के प्रति आत्मा को ले जाते हैं ॥७॥
भावार्थ
ज्ञान का संग्रह करनेवाले विद्वान् अपनी ज्ञानधाराओं से इन्द्रियों के छिद्रों-दोषों के बन्द करें-विषयों से नियन्त्रित करें और मन जो विषयों में रमण करता है, उसे स्वाधीन करके अपने को मोक्ष का भागी बनाएँ। यह ज्ञान का परम फल है ॥७॥
विषय
विद्वानों की अध्यक्ष पदों पर नियुक्ति। पक्षान्तर में—आत्म-दर्शनार्थ बाह्य इन्द्रियों का दमन
भावार्थ
हे (सोम्याः) सौम्य स्वभाव वाले एवं सोम, शिष्य जनो, वीर्यवान् शासक जनो ! (अक्ष-नहः नह्यतन) जिस प्रकार अक्ष, धुरा में लगाने योग्य अश्वों को खूब अच्छी प्रकार बांधा जाता है, उसी प्रकार आप लोग (अक्ष- नहः) अध्यक्ष पद पर सम्बन्धित करने योग्य उत्तम जनों को (नह्यत) बांधो, उनको उत्तम पद पर पदबद्ध, कर्त्तव्य-बद्ध, वचन-बद्ध करो। (रशनाः इष्कृणुध्वम्) जिस प्रकार रथी अपने अश्वों की रासों को ठीक रखता है उसी प्रकार तुम लोग भी (रशनाः) राष्ट्र में भोग सामग्रियों को (इष्कृणुध्वम्) अन्नोत्पादक उपायों से उत्पन्न करो। (उत) और अपने आप के आत्मा वा गृहस्थ रथ को (अष्टावन्धुरं आ पिंशत) आठों शीर्षगत प्राणों को बांध कर सुरूप, सौम्य बनावें, (येन देवासः) जिससे विद्वान् जन (प्रियम् अभि) प्रिय इष्ट आत्मा के प्रति (रथं अनयन्) अपने वेगवान् मन को लेजाते हैं।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः–१–३, ६, ११ देवाः। ४, ५ अग्नि सौचिकः॥ देवता-१-३, ६–११ अग्निः सौचीकः। ४, ५ देवाः॥ छन्द:– १, ३, ८ त्रिष्टुप् २, ४ त्रिष्टुप्। ५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ६, ७, ९ निचृज्जगती। १० विराड् जगती। ११ पादनिचृज्जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
उस प्रिय की ओर
पदार्थ
[१] सब देव परस्पर प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि 'अक्षानहः' [अक्षेषु नह्यान्] = शरीर रूप रथ के अक्षों में बाँधने व जोतने के योग्य इन इन्द्रियाश्वों को नह्यतन = बाँधो व जोतो । उत-और सोम्याः = सौम्य 'शान्त' मन से बनी हुई रशनाः - लगामों को इष्कृणुध्वम् सुसंस्कृत करो । उत=और आपिंशत= बुद्धि रूप सारथि को ज्ञान के नक्षत्रों से अलंकृत करो । इन्द्रियाँ शरीर रूप रथ के वहन में लगी हुई हों, अर्थात् सब इन्द्रियाँ अपना-अपना कार्य उत्तमता से कर रही हों । मनरूपी लगाम सुसंस्कृत हो । मन का परिष्कृत होना ही लगाम की उत्तमता है। बुद्धि रूप सारथि का ज्ञान से भूषित होना आवश्यक है । [२] अष्टाबन्धुरम्= [बन्धुर = seat] 'भूमि- आपः - अनल, वायु-ख [आकाश] मन, बुद्धि व अहंकार' ये आठ ही इस शरीर रथ में बैठने के स्थान हैं अथवा यह शरीर - रथ इन आठ के बन्धनवाला है। इस अष्टाबन्धुर रथम् - रथ को अभितः - सांसारिक अभ्युदय की ओर तथा अध्यात्म निःश्रेयस की ओर इस प्रकार दोनों ओर वहत - ले चलो। इस प्रकार इस रथ का दोनों ओर ले चलना वह उपाय है येन- जिससे देवासः - देववृत्ति के लोग प्रियं अभि-उस प्रिय प्रभु की ओर अनयन्- अपने को ले जाते हैं व प्राप्त कराते हैं । प्रभु की आराधना इसी में है कि हम प्रभु से दिये गये इस रथ को ऐहिक व पारलौकिक कल्याण के लिये साधनरूप समझते हुए अभ्युदय व निःश्रेयस को सिद्ध करें। धन व कर्म दोनों की ओर हमारा शरीर अग्रसर हो ।
भावार्थ
भावार्थ - हम इस शरीर रथ को धन व धर्म दोनों की ओर ले चलते हुए प्रिय प्रभु को प्राप्त करें।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम्याः) हे ज्ञानरससम्पादिनो विद्वांसः ! (अक्षानहः-नह्यतन) इन्द्रियाणां बन्धनयोग्यानि छिद्राणि बध्नीत सन्दध्वम् “मन्मे छिद्रं चक्षुषो………बृहस्पतिर्मे तद् दधातु” [यजु० ३६।२] (उत) अपि (रशनाः-इष्कृणुध्वम्) ज्ञानरश्मीन् निष्कृणुध्वम् ‘नकारलोपश्छान्दसः’ आविष्कुरुत “रशनया रश्मिना” [यजु० २१।४६ दयानन्दः] (उत) तथा (आ-पिंशत) समन्तान् प्रसारयत (अष्टावन्धुरं रथम्-अभितः-वहत) अष्टाङ्गयोगे बन्धनीयं विषयेषु रमणशीलं मनः स्वाधीनं कुरुत (येन देवासः) येन विद्वांसः-मुमुक्षवः (प्रियम्-अभि-अनयत्) आत्मानं मोक्षं प्रति नयन्ति ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Lovers of Soma, peace and joy, bind the traces, harness the horses, tighten the reins and refine them to perfection, move on the eightfold chariot all round, the chariot by which the divines bring in the dearest treasures of life. (This mantra is a metaphor of the eightfold path of yoga from the control of senses and mind to the attainment of samadhi which marks the communion of the soul with divinity.)
मराठी (1)
भावार्थ
ज्ञानसंग्रह करणाऱ्या विद्वानांनी आपल्या ज्ञानधारांनी इंद्रियांच्या छिद्रांना, दोषांना बंद करावे. विषयांना नियंत्रित करावे व मन ज्या विषयात रमण करते त्याला स्वाधीन करून आपल्या मोक्षाचा भागी बनवावे. हे ज्ञानाचे परम फळ आहे. ॥७॥
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