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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 74 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 74/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गौरिवीतिः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ तत्त॑ इन्द्रा॒यव॑: पनन्ता॒भि य ऊ॒र्वं गोम॑न्तं॒ तितृ॑त्सान् । स॒कृ॒त्स्वं१॒॑ ये पु॑रुपु॒त्रां म॒हीं स॒हस्र॑धारां बृह॒तीं दुदु॑क्षन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । तत् । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । आ॒यवः॑ । प॒न॒न्त॒ । अ॒भि । ये । ऊ॒र्वम् । गोऽम॑न्तम् । तितृ॑त्सान् । स॒कृ॒त्ऽस्व॑म् । ये । पु॒रु॒ऽपु॒त्राम् । म॒हीम् । स॒हस्र॑ऽधाराम् । बृ॒ह॒तीम् । दुधु॑क्षन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ तत्त इन्द्रायव: पनन्ताभि य ऊर्वं गोमन्तं तितृत्सान् । सकृत्स्वं१ ये पुरुपुत्रां महीं सहस्रधारां बृहतीं दुदुक्षन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । तत् । ते । इन्द्र । आयवः । पनन्त । अभि । ये । ऊर्वम् । गोऽमन्तम् । तितृत्सान् । सकृत्ऽस्वम् । ये । पुरुऽपुत्राम् । महीम् । सहस्रऽधाराम् । बृहतीम् । दुधुक्षन् ॥ १०.७४.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 74; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे राजन् ! (ते) तेरे (आयवः) प्रजाजन (तत्-आ-अभिपनन्त) तब भलीभाँति प्रशंसा करते हुए (ये गोमन्तम्) जो पृथिवीवाले भूमिवाले (ऊर्वं-तितृत्सान्) भूमि के आच्छादक धान्य को काटना चाहते हैं एवं तेरी प्रसन्नता को अनुभव करते हुए (ये सकृत्स्वम्) जो एक बार ही उत्पन्न करनेवाली (पुरुपुत्राम्) बहुत धान्यादि पुत्रवाली को (सहस्रधाराम्) सहस्रजल धारावाली (बृहतीं महीं दुधुक्षन्) महत्त्वपूर्ण पृथिवी को दोहते हैं, तो उससे धान्य फलादि ग्रहण करते हैं ॥४॥ 

    भावार्थ

    राजा के राज्य में पृथिवी जलधाराओं से युक्त अन्नफलादि उत्पन्न करनेवाली होवे, तो प्रजाजन सुख  पाते हुए शासक को प्रसन्न करते हैं और गुण गाते हैं ॥४॥

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    विषय

    भूमि से फल, फ़सल चाहने वाले खेतिहरों के तुल्य वीरों और विद्वानों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (ये) जो (सकृत्-स्वम्) एक ही बार अनेक प्रकार के अन्नों,ओषधि वनस्पति आदि को उत्पन्न करती है उस (बृहतीम्) अनेक फलों को बढ़ाने वाली, विशाल, (पुरु-पुत्राम्) बहुत पुरुषों का त्राण करने वाली और (सहस्रधारां) सहस्र धाराओं को बरसाने वाली वा सहस्रों जलधारा वाली आकाश वा (महीम्) भूमि को (दुधुक्षन्) दोहना चाहते हैं, उससे अनेक अन्न, रस प्राप्त करना चाहते हैं जो (गोमन्तम्) गौ बैल वाले, उनसे समृद्ध (ऊर्वं) खेती वा कृषि के फल समूह या फसल को (तितृत्सान्) काट लेना चाहते हैं (ते) वे (आयवः) मनुष्य हे (इन्द्र) जल देने वाले, वर्षाकारिन् ! (तत्) उस समय जब वे फल चाहते हैं, खेती पनपाना चाहते हैं तब (ते पनन्त) वे तेरी स्तुति करते हैं। अर्थात् सम्पन्न, फसल काटने के इच्छुक खेतिहर जिनके पास (सकृत्सू) केवल साल में एक फसल देने वाली भूमि है, जो उसी से साल भर का अनाज प्राप्त करना चाहते हैं, वे ‘इन्द्र’ अर्थात् मेघ की पुकार करते हैं। (२) ठीक उसी प्रकार (ये) जो (पुरु-पुत्राम्) बहुत से पुत्रों व पुरुषों को त्राण करने वाली (महीम्) भूमि और (सहस्र-धारां) हजारों को धारण करने वाली (बृहतीम्) बड़ी भारी जनता को (दुधुक्षन्) दोहना चाहते हैं, भूमि से भूमि की उपज और जनता से टैक्स या ऐश्वर्य प्राप्त करना चाहते हैं और जो युद्धक्षेत्र में (गोमन्तं) वेग से जाने वाले अश्वों वाले वा (गोमन्तं) बाणों को फेंकने वाली तांत के धनुषों से सज्जित (ऊर्वम्) सैन्य-समूह को (आ तितृत्सान्) मुकाबले पर नाश करते हैं हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! राजन् (ते) वे वीर पुरुष (ते पनन्त) तेरी स्तुति प्रार्थना करते हैं, तेरी सेवा करते हैं। (३) इसी प्रकार जो (पुरुपुत्राम्) अनेक शिष्यरूप पुत्रों वाली, सहस्रवाणी वाली, ‘बृहती’ वेदवाणी का दोहन करना चाहते और जो गोमन्तं ऊर्व) वाणी से युक्त ‘ग्रन्थ’ का मर्म भेदन करना चाहते हैं वे मनुष्य इन्द्र अर्थात् ज्ञानदर्शी गुरु का सेवन करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गौरिवीतिर्ऋषिः॥ इन्द्रो देवता। छन्दः- १, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ५ निचृत त्रिष्टुप्। ३ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६ विराट् त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    जितेन्द्रिय बनकर वेदवाणी रूप गौ का दोहन

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (ते आयवः) = वे मनुष्य (तत् आपनन्त) = वह आपका स्तवन करते हैं, (ये) = जो (गोमन्तम्) = इन्द्रियों से बने हुए (ऊर्वम्) = समूह को (तितृत्सान्) = मारने की कामना करते हैं । 'इन्द्रियों को मारना', अर्थात् 'इन्द्रियों को वश में करना' यही वस्तुतः प्रभु का सच्चा पूजन होता है । जितेन्द्रिय पुरुष प्राकृतिक भोगों से ऊपर उठता है और प्रभु की सच्ची उपासन करनेवाला होता है । [२] ये उपासक वे होते हैं (ये) = जो (महतीम्) = इस अत्यन्त आदर के योग्य वेदवाणी का (दुदुक्षन्) = दोहन करने की कामना करते हैं। यह वेदवाणी [क] (महीम्) = अत्यन्त महनीय है, अर्थ के गौरव से पूर्ण है । [ख] सहस्त्रधाराम् शतशः ज्ञानधाराओं से हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाली है अथवा नाना प्रकार से हमारा धारण करनेवाली है, [ग] तथा यह वेदवाणीरूप गौ (सकृत्स्वम्) = एक बार जनती है, पर (पुरुपुत्राम्) = बहुत पुत्रोंवाली है। इस वाक्य में विरोधाभास अलंकार का सुन्दर उदाहरण है। विरोध का परिहार इस प्रकार है कि एक बार ही इसके अध्ययन का अवसर प्राप्त होता है, ब्रह्मचर्याश्रम में इसे पढ़ लिया तो पढ़ लिया। फिर गृहस्थ में फँसे-पढ़ने का अवसर गया। परन्तु यह (पुरु) = पालन व पूरण करनेवाली है [ पृ पालनं- पूरणयोः] शरीर को नीरोग बनानेवाली है, मन की न्यूनताओं को दूर करनेवाली है, साथ ही (पुत्राम्) = [पुनाति त्रायते ] यह हमारे जीवनों को पवित्र करती है और हमारा त्राण- रक्षण करती है। एवं प्रभु का उपासक जितेन्द्रिय बनकर वेदवाणी रूप गौ का दोहन करता है। इस दोहन से वह अपने जीवन को पवित्र बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का उपासक वह है जो इन्द्रिय समूह को मार लेता है, इन्द्रियों को पूर्णरूप से वश में कर लेता है। यह उपासक वेदवाणी रूप गौ का दोहन करता हुआ अपने जीवन को आप्यायित करता है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे राजन् ! (ते) तव (आयवः) प्रजाजनाः “आयवः-मनुष्यनाम” [निघ० २।३] (तत्-आ-अभिपनन्त) तदा समन्तात्-अभि-स्तुवन्ति प्रशंसन्ति “पन स्तुतौ” [भ्वादि०] (ये गोमन्तम्-ऊर्वं तितृत्सान्) पृथिवीमन्तं भूमिमन्तं भूमेराच्छादकं धान्यम् “ऊर्वम्-आच्छादकम्” [ऋ० ४।२८।५ दयानन्दः] छेदयितुमिच्छन्ति, एवं ते प्रसन्नतामनुभवन्तः (ये सकृत्स्वं पुरुपुत्राम्) ये हि सकृदेवोत्पादयित्री बहुधान्यादिपुत्रवतीम् (सहस्रधारां बृहतीं महीं दुधुक्षन्) सहस्रजलधारावतीं महतीं महत्त्वपूर्णां पृथिवीं दुहन्ति ततो धान्यफलरसादिकं गृह्णन्ति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, ruler of the world, the people adore and exalt you when they reap the harvest of abundant food and milk, and when they till the land, and, like the mother cow, wish to milk the great wide earth of a thousand streams who, for her many many children, produces all things together.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या राजाच्या राज्यात पृथ्वी जलधारांनी सिक्त व अन्न, फळे इत्यादी उत्पन्न करणारी असेल तर प्रजा सुखी होऊन शासकाला प्रसन्न करते व त्याचे गुण गाते. ॥४॥

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