ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 75/ मन्त्र 5
ऋषिः - सिन्धुक्षित्प्रैयमेधः
देवता - नद्यः
छन्दः - स्वराडार्चीजगती
स्वरः - निषादः
इ॒मं मे॑ गङ्गे यमुने सरस्वति॒ शुतु॑द्रि॒ स्तोमं॑ सचता॒ परु॒ष्ण्या । अ॒सि॒क्न्या म॑रुद्वृधे वि॒तस्त॒यार्जी॑कीये शृणु॒ह्या सु॒षोम॑या ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । मे॒ । ग॒ङ्गे॒ । य॒मु॒ने॒ । स॒र॒स्व॒ति॒ । शुतु॑द्रि । स्तोम॑म् । स॒च॒त॒ । परु॑ष्णि । आ । अ॒सि॒क्न्या । म॒रु॒त्ऽवृ॒धे॒ । वि॒तस्त॑या । आज्र्जी॑कीये । शृ॒णु॒हि । आ । सु॒ऽसोम॑या ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या । असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकीये शृणुह्या सुषोमया ॥
स्वर रहित पद पाठइमम् । मे । गङ्गे । यमुने । सरस्वति । शुतुद्रि । स्तोमम् । सचत । परुष्णि । आ । असिक्न्या । मरुत्ऽवृधे । वितस्तया । आज्र्जीकीये । शृणुहि । आ । सुऽसोमया ॥ १०.७५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 75; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(गङ्गे) हे गमनशील समुद्र तक जानेवाली नदी ! (यमुने) हे अन्य नदी में मिलनेवाली नदी ! (सरस्वति) हे प्रचुर जलवाली नदी ! (शुतुद्रि) हे शीघ्र गमन करनेवाली या बिखर-बिखर कर चलनेवाली नदी ! (परुष्णि) हे परुष्णि-परवाली भासवाली-दीप्तिवाली इरावती कुटिलगामिनी (असिक्न्या) कृष्णरङ्गवाली नदी के स्थल (मरुद्धृधे) हे मरुतों वायुओं के द्वारा बढ़नेवाली फैलनेवाली नदी (वितस्तया) अविदग्धा अर्थात् अत्यन्त ग्रीष्म काल में भी दग्ध शुष्क न होनेवाली नदी के साथ (आर्जीकीये) हे विपाट्-किनारों को तोड़-फोड़नेवाली नदी (सुषोमया) पार्थिव समुद्र के साथ (मे स्तोमं सचत-आ-शृणुहि) मेरे अभिप्राय को या मेरे लिये अपने-अपने स्तर को सेवन कराओ तथा मेरे लिये जलदान करो ॥५॥
भावार्थ
पृथिवीपृष्ठ पर भिन्न-भिन्न रूप और गति से बहनेवाली नदियाँ मानव को लाभ पहुँचानेवाली हैं, उनसे लाभ होना चाहिए ॥५॥
विषय
गंगा आदि देहगत १० नाड़ियों का वर्णन, उनका विशेष विवरण। आत्मा रूप नदी सिन्धु।
भावार्थ
हे (गंगे) हे गंगे ! हे (यमुने) हे यमुने ! हे (सरस्वति) सरस्वति ! हे (शुतुद्रि) हे शुतुद्रि ! हे (परुष्ण) परुष्ण ! हे (मरुद्-वृधे) मरुद्वृधे ! (वितस्तया असिक्न्या सुसोमया) वितस्ता, असिक्नी और सुसोमा इनके साथ विद्यमान हे (आर्जीकीये) आर्जीकीये ! तू (मे इमं स्तोमं आ शृणुहि) हमारे इस स्तुतियोग्य वचन को श्रवण कर। लोक में गंगा, यमुना, सरस्वती, परुष्णी, मरुद्वृधा, शुतुद्री, वितस्ता, असिक्नी, सुसोमा और आर्जिकीया ये सब नाम नदियों के प्रसिद्ध हैं। वेद में इन शब्दों का मुख्यार्थ नदियों के प्रति संगत न होने से ये शब्द नदीवाचक नहीं हैं। अध्यात्म में—ये दश विशेष नाड़ियां हैं उन नाड़ियों में व्याप्त आत्म-शक्ति भी उसी २ नाम से पुकारी जाती है। जैसे बृहदारण्यक में लिखा है वही आत्मा—‘शुण्वन् श्रोत्रं भवत्ति मनो मन्वानो वाग् वदन्’ इत्यादि। इसी प्रकार यहां भी जानना चाहिये । इडा च पिङ्गलाख्या च सुषुम्ना चास्थिजिह्विका । अलम्बुसा यथा पूषा गान्धारी शङ्खिनी कुहूः देहमध्यगता एता मुख्याः स्युर्दश नाडयः॥ इति ‘संगीतविषये’ केरललिप्यां हस्तलिखितपुस्तके। ‘गंगा’ इडा नाड़ी है, वह आत्मा को ज्ञान प्राप्त कराती है, ‘यमुना’ पिंगला है, जो देह के समस्त अंगों को सुव्यवस्थित करती और संयम में रखती है। सरस्वती सुषुम्ना, उसमें प्रशस्त ज्ञान-सुख का उद्भव होता है, ‘परुष्णी’ (पर्ववती, भास्वती, कुटिलगामिनी। निरु०) जो प्रतिपर्व पीठ के मोहरों में से नीचे तक गई है, वह वर्ण में चमकीली कुटिल मार्ग में गई है। ‘असिक्ती’ (अशुक्ला, असिता सितमिति वर्गनाम तत्प्रतिषेधः। नि०) जो शुक्ल अर्थात् चमकीली नहीं, उसमें जो रस बहता है उसका कोई रंग नहीं है। ‘मरुद्वृधा’ (सर्वा नद्यो मरुतः एनां वर्धयन्ति) जो और नाड़ियां है वे उसको बढ़ाती हैं, नाड़ी का वह अंश जहां अन्य सब मिल कर एक हो जाती हैं। अथवा मरुत्, देह के प्राण उसको और वह प्राणों पुष्ट करते हैं। ‘शुतुद्री’ (शुद्राविणी, क्षिप्रद्राविणी, आशुतुन्ना इव द्रवति) जो वेग से गति करती, भरी २ चलती है। ‘वितस्ता’ (विदग्धा, विवृद्धा, महाकुला। नि०) देह में वितस्ता वह नाड़ी है जो देह में दाह अर्थात् ताप को धारण करती है, वह बहुत व्यापक और त्वचा भर में व्याप्त है। ‘आर्जीकीया’ (ऋजूकप्रभवा वा, ऋजुगामिनी वा) ऋजूक से उत्पन्न, वा ऋजु जाने वाली, मस्तक में विशेष स्थान ‘ऋजूक’ है उससे निकली नाड़ी वितस्ता है, विपाट् (विपाटनाद्वा, विपाशनाद्वा, पाशा अस्यां व्यापाश्यन्त वसिष्ठस्य मूमूर्च्छतस्तस्माद् विपाट् उच्यते। नि०) विपाट् वह नाड़ी है जहां विपाटन होता है, जिस के फटने पर प्राण देह को त्याग देते हैं और आत्मा देह से पृथक् हो जाता है, उसी का प्राचीन नाम ‘उरुंजिरा’ है। ‘सुषोमा’ उत्तम प्रेरणा वाली वा उत्तम वीर्य वाली वीर्यवहा नाडी वा जो अंगों में शक्ति प्रदान करे। (सिन्धुः यदेनामभिप्रसुवन्ति नद्यः । सिन्धुः स्यन्दनात् नि०) सब नदियां जैसे सिन्धु में आती हैं ऐसे समस्त प्राण जिसमें आकर लय हो जाते हैं वह आत्मा ही ‘सिन्धु’ है। वह एक शरीर से दूसरे शरीर में, एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते हुए महानद के समान जाता है अतः ‘सिन्धु’ कहाता है। देह ही देश के तुल्य ‘क्षेत्र’ कहाता है। (सा मे आत्माभूत् इति सोमः) सोम मेरा अपना ही आत्मा है ऐसा ब्राह्मणप्रोक्त निर्वचन है, इससे ‘सुषोमा’ स्वयं आत्मा रूप नदी है। आत्मा का नदीरूप से वर्णन महाभारत में— आत्मा नदी संयम-पुण्यतीर्था, सत्योदका, शीलतटा दयोर्मिः। इत्यादि भिन्नर २ स्थिति में यहां इन नामों से आत्मा को ही सम्बोधन किया गया है। इति षष्ठो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सिन्धुक्षित्प्रैयमेध ऋषिः। नद्यो देवताः॥ छन्दः—१ निचृज्जगती २, ३ विराड जगती। ४ जगती। ५, ७ आर्ची स्वराड् जगती। ६ आर्ची भुरिग् जगती। ८,९ पादनिचृज्जगती॥
विषय
गंगा से सुषोमा तक
पदार्थ
[१] सोम के शरीर में रक्षण होने पर मनुष्य प्रभु-प्रवण वृत्तिवाला बनकर प्रभु का स्तवन करता है और कहता है कि (इमं मे स्तोमम्) = इस मेरे स्तवन के साथ (सचता) = हे गंगा आदि वृत्तियो ! तुम भी समवेत होवो [सच समवाये] मैं प्रभु का स्तवन करूँ और गंगादि शब्दों से सूचित वृत्तियों को धारण करनेवाला बनूँ। 'गंगे यमुने सरस्वति' इन तीन सम्बोधन शब्दों से 'गति, संयम व ज्ञान' का प्रतिपादन है। गंगा शब्द 'गम्' से और यमुना शब्द 'यम्' से बना है। गंगा, अर्थात् गति, क्रियाशीलता। अपनी तीव्र गति के कारण ही गंगा नदी का जल पवित्र है, क्रियाशीलता हमें भी पवित्र बनाती है। हमारे शरीर सदा क्रियाशील हों, तो मन संयम की भावना से ओत-प्रोत हो । यमुना, अर्थात् यमन, संयम । हम मन को निरुद्ध करनेवाले हों। सरस्वती तो ज्ञान की अधिष्ठात्री है ही। हमारा मस्तिष्क ज्ञानान्वित हो । [२] हे (शुतुद्रि) = शुतुद्री ! तू (परुष्ण्या) = परुष्णी के साथ हमारे स्तोम के साथ समवेत हो । 'शु-तुद्री' शीघ्रता से [शु] वासनाओं को व्यथित करके [ तुद् व्यथने] दूर भगाने की वृत्ति को सूचित कर रही है। अशुभ वासनाओं को दूर भगाकर, शुभ भावनाओं के भरने का भाव 'परुष्णी' शब्द से व्यक्त होता है [ पर्व पूरणे] । हम अशुभवृत्तियों को दूर करें और शुभवृत्तियों का अपने में पूरण करें [दुरितानि परासुव, भद्रं आसुव]। [३] हे (मरुद् वृधे) = [मरुतः प्राणाः] प्राणवर्धन की भावना ! तू (असिक्न्या) = असिक्री के साथ (वितस्तया) = और वितस्ता के साथ हमारे स्तोम के साथ समवेत हो। हम प्रभु-स्तवन करें तो हमें मरुद्वृधा 'असिनी' और वितस्ता के साथ प्राप्त हो । 'मरुवृधा' का भाव प्राणों का वर्धन है, प्राणायाम के द्वारा हम प्राणशक्ति का वर्धन करते हैं। इस प्राणसाधना से हम चित्तवृत्ति का निरोध करके उसे विषयों से अबद्ध 'असिनी' [षिञ् बन्धने] करते हैं, और विषय वासनाओं को वि-विशेषरूप से उपक्षीण करनेवाले होते हैं [तसु उपक्षये] । [४] हे (आर्जीकीये) = [ऋज to be healthy or strong] स्वस्थता व सबलता की स्थिति ! तू (सुषोमया) = सुषोमा के साथ (अशृणुहि) = इस हमारे स्तोम को सुननेवाली हो। हम स्वस्थ व सबल बनें और साथ ही उत्तम सौम्यतावाले हों। हमें उन बल आदि गुणों का अभिमान न हो ।
भावार्थ
भावार्थ- मैं प्रभु का स्तवन करूँ और निम्न १० बातें से युक्त जीववाला बनूँ — [क] क्रियाशीलता, [ख] संयम, [ग] ज्ञान, [घ] वासना-विद्रावण, [ङ] शुभ भावनाओं का पूरण, [च] विषयों से अबद्धता, [छ] प्राणशक्ति, [ज] रोग व राग-द्वेषादि अशुभः क्षय, [झ] स्वस्थता व सबलता, [ञ] और विनीतता ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(गङ्गे) हे गमनशीले नदि ! “गङ्गा गमनात्” [निरु० ९।२५] गच्छति हि यावद्गमनाय मार्गो भवेत् समुद्रान्तं न पुनर्मार्गः तथाभूते नदि ! (यमुने) हे यमुने नदि ! प्रकृष्टं मिश्रयन्ती सती खल्वन्यां नदीम् “यु मिश्रणे” [अदादि०] तथा भूते नदि ! “यमुना प्रयुवती” [निरु० ९।२५] (सरस्वति) प्रचुरजलवति “सरस्वती सर उदकनाम तद्वती” [निरु० ९।२५] (शुतुद्रि) शुद्राविणी क्षिप्रद्राविण्याशुतुन्नेव द्रवतीति वा [निरु० ९।२५] तथाभूते नदि (परुष्ण्या) इरावत्या भासवत्या नद्या सह भास्वति कुटिलगामिनि नदि ! “इरावती परुष्णीत्याहुः पर्ववती भास्वती कुटिलगामिनी” [निरु० ९।२५] (असिक्न्या) अशुक्लया “असिक्न्यशुक्लाऽसिता सितमिति वर्णनाम तत्प्रतिषेधोऽसितम्” [निरु० ९।२५] (मरुद्वृधे) मरुद्वर्धिते मरुतो वृधाः-वर्धका यासां ताः सर्वा नद्यः, तथाभूते “मरुत एना वर्धयन्ति” [निरु० ९।२५] (वितस्तया) अविदग्धयाऽतिग्रीष्मकालेऽपि या दग्धा शुष्का न भवति तथा भूतया नद्या सह (आर्जीकीये) विपाडाख्ये नदि “आर्जीकीयां विपाडित्याहुः” [निरु० ९।२५] (सुषोमया) सिन्धुना पार्थिवसमुद्रेण सह “सुषोमा सिन्धुर्यदेनामभिप्रसुवन्ति नद्यः” [निरु० ९।२५] (मे स्तोमं सचत आशृणुहि) ममाभिप्रायं यद्वा मह्यं प्रतिधिं स्वस्वस्तरं सेवयत तथाहि मदर्थं जलप्रदानं स्वीकुरु-इति प्रत्येकम् ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Ganga, ever flowing stream of water, life and life energy, Yamuna, stream that joins others and flows, Sarasvati, stream of abundant water and light of life, Shutudri, fast flowing stream of water and energy, Marudvrdha, stormy stream of water, prana and passion for life, Arjikiya, overflooding stream of life breaking over the banks, along with Parushni, sparkling stream flowing through stages, and Sushoma, stream of peace and vitality deep as the fathomless ocean, Asikni and Vistasta may all listen to this song of homage of mine and bless life.$Note: It is said that the words from Ganga to Sushoma are names of ten particular streams. It is not so. According to Yaska and Swami Dayananda, Veda is universal knowledge, there is no history and no geography in this body of knowledge. If particular streams are called by these names, the names were derived from the Vedas in which those name-words already existed, and the name-word and the characteristics of the stream corresponded. For this very correspondence, certain nerves, arteries and veins in the body also were named after these Vedic words. Pandit Jaya Deva Sharma in his translation of Rgveda (published Arya Sahitya Mandala, Ajmer, 1936, vol. 7, p. 131) quotes from a Kerala manuscript on music the following:
मराठी (1)
भावार्थ
पृथ्वीवर भिन्न-भिन्न रूप व गतीने वाहणाऱ्या नद्या मानवाला लाभ करून देणाऱ्या आहेत. त्यांच्यापासून लाभ घेतला पाहिजे. ॥५॥
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