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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 77 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 77/ मन्त्र 5
    ऋषिः - स्यूमरश्मिर्भार्गवः देवता - मरूतः छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    यू॒यं धू॒र्षु प्र॒युजो॒ न र॒श्मिभि॒र्ज्योति॑ष्मन्तो॒ न भा॒सा व्यु॑ष्टिषु । श्ये॒नासो॒ न स्वय॑शसो रि॒शाद॑सः प्र॒वासो॒ न प्रसि॑तासः परि॒प्रुष॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यू॒यम् । धूः॒ऽसु । प्र॒ऽयुजः॑ । न । र॒श्मिऽभिः॑ । ज्योति॑ष्मन्तः । न । भा॒सा । विऽउ॑ष्टिषु । श्ये॒नासः॑ । न । स्वऽय॑शसः । रि॒शाद॑सः । प्र॒वासः॑ । न । प्रऽसि॑तासः । प॒रि॒ऽप्रुषः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यूयं धूर्षु प्रयुजो न रश्मिभिर्ज्योतिष्मन्तो न भासा व्युष्टिषु । श्येनासो न स्वयशसो रिशादसः प्रवासो न प्रसितासः परिप्रुष: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यूयम् । धूःऽसु । प्रऽयुजः । न । रश्मिऽभिः । ज्योतिष्मन्तः । न । भासा । विऽउष्टिषु । श्येनासः । न । स्वऽयशसः । रिशादसः । प्रवासः । न । प्रऽसितासः । परिऽप्रुषः ॥ १०.७७.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 77; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यूयम्) हे विद्वानों ! तुम (धूर्षु प्रयुजः) धारणीय ज्ञानप्रबन्धों में प्रकृष्टरूप से नियुक्त करनेवाले होते हुए (रश्मिभिः-न) जैसे लगामों से घोड़ों को नियोजित करते हैं, वैसे हमें नियुक्त करो (भासा ज्योतिष्मन्तः-न) जैसे ज्ञानज्योति ज्ञान का प्रकाश करते हुए (व्युष्टिषु) विशिष्ट ज्ञान-स्थलियों में मनुष्यों के लिए ज्ञानज्योति प्रदान करते हो, उसी भाँति (श्येनासः-न) अथवा प्रशंसनीय (स्वयशसः) स्वाधार यशवाले महात्मा अथवा (रिशादसः-प्रवासः-न) हिंसक दोषों को फेंकनेवाले प्रवास करते हुए अतिथि प्रवक्ता जन (प्रसितासः परिप्रुषः) प्रकृष्ट निर्मल पवित्राचरण अपने उपदेश अमृत से मनुष्यों को सब ओर से सींचते हैं, वैसे हम पर अनुग्रह करें ॥५॥

    भावार्थ

    विद्वान् जन अपनी ज्ञानस्थलियों में हमें नियुक्त करें, ज्ञान से और शुभाचरण से हमें प्रसाधित करें। जैसे वे यशस्वी हैं, वैसे हमें उपदेशामृत देकर निर्दोष बनाएँ ॥५॥

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    विषय

    रथ में जुते अश्वों के तुल्य वा रश्मियों से बद्ध वायुओं के तुल्य नियुक्त वीरों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (प्रयुजः) उत्तम रीति से लगने वाले अश्व (न) जिस प्रकार (रश्मिभिः) रासों से वश में रहते हैं और ठीक मार्गों पर चलते हैं उसी प्रकार (यूयम्) आप लोग (धूर्षु) धुराओं अर्थात् प्रजा को धारण, नियन्त्रण करने योग्य पदों पर (प्र-युजः) उत्तम योग देने वाले वा नियुक्त होकर (रश्मिभिः) व्यापक वा बांधने वाले विधानों से बद्ध रहो। और (भासा न ज्योतिष्मन्तः) कान्ति वा प्रकाश से चमकने वाले सूर्य चन्द्र आदि के तुल्य ही (भासा) तेज से तेजस्वी होकर (वि-उष्टिषु) विविध कामनाओं वा कार्यों में (श्येनासः) गरुड़ पक्षी के तुल्य उत्साह, बल से सम्पन्न, वा (श्येनासाः) प्रशंसनीय आचरण वाले होकर (स्वयशसः) अपना यश फैलाते हुए, (रिशादसः) दुष्टों का नाश करते हुए, (प्र-वासः) उत्तम वस्त्रों को धारण करते हुए, उत्तम रीति से प्रजा का आच्छादन वा पालन करते हुए, उत्तम गृहों के समान (प्र-सितासः) उत्तम बन्धनों, नियमों में बद्ध होकर (प्र-सितासः) उत्तम, शुक्ल कर्मों से शुद्ध अन्तःकरण होकर (परि-प्रुषः) सर्वत्रागमनागमन करनेवाले होवो। इति दशमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    स्यूमरश्मिर्भार्गवः॥ मरुतो देवता॥ छन्द:– १, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४ त्रिष्टुप्। ६—८ विराट् त्रिष्टुप्। ५ पादनिचृज्जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    लक्ष्य की ओर

    पदार्थ

    [१] हे [मरुतः = ] प्राणसाधक पुरुषो! (यूयम्) = आप (रश्मिभिः) = प्रग्रहों, लगामों के कारण (धूर्षु) = रथ के जुए में जुते हुए (प्रयुजः न) = प्रकृष्ट घोड़ों के समान हो । जैसे रश्मियों से युक्त घोड़े इष्ट-स्थान पर ले जानेवाले होते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियों पर नियन्त्रणवाले ये प्राणसाधक पुरुष अपने को लक्ष्य पर प्राप्त करानेवाले होते हैं । [२] ये (भासा) = दीप्ति से (व्युष्टिषु) = उषाओं के होने पर (ज्योतिष्मन्तः न) = ज्योतिवाले सूर्यादि के समान होते हैं । प्राणसाधना से ज्ञान ज्योति इस प्रकार दीप्त होती है, जैसे उषाकाल में सूर्य चमकता है । [३] (श्येनासः न) = बाज पक्षी के समान (रिशादसः) = [रिश अदस्] शत्रुओं के समाप्त करनेवाले (स्वयशसः) = अपने कर्मों से यशस्वी होते हैं प्राणसाधना से काम-क्रोधादि शत्रुओं का संहार होता है और यह साधक उत्तम कर्मोंवाला होकर यशस्वी जीवनवाला बनता है । [४] ये साधक (प्रवासः न) = प्रवासी पुरुषों की तरह, पथिकों की तरह (प्रसितास:) = [intention, longing for, craering after ] लक्ष्य पर पहुँचने के लिये प्रबल उत्सुकतावाले और अतएव (परिप्रुषः) = [परितो गन्तारः ] खूब गतिवाले होते हैं। लक्ष्य मार्ग की ओर ये निरन्तर बढ़ रहे होते हैं, इनकी सब क्रियाएँ लक्ष्य प्राप्ति के लिये होती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधक पुरुष संयत-जीवनवाले, ज्योतिष्मान्, यशस्वी कर्मोंवाले तथा निरन्तर गतिशील होते हैं ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यूयम्) हे विद्वांसः ! यूयं (धूषु-प्रयुजः) धारणीयेषु ज्ञानप्रबन्धेषु “धूर्वते धूर्धारयतेर्वा-अस्मान्” [निरु० ३।९] प्रयोक्तारः प्रकृष्टेन नियोक्तारः सन्तः (रश्मिभिः-न) यथा प्रग्रहैरश्वान् प्रयोजयन्ति तथाऽस्मान् प्रयोजयितारः सन्तः (भासा-ज्योतिष्मन्तः-न) यथा वा ज्योतिषा ज्ञानज्योतिषा ज्ञानप्रकाशवन्तः (व्युष्टिषु) विशिष्टज्ञानस्थलीषु जनेभ्यो ज्ञानज्योतिः प्रयच्छन्ति, तद्वत्, (श्येनासः-न स्वयशसः) यद्वा यथा शंसनीयाः स्वाधारयशस्विनो महात्मानस्तथा किं वा (रिशादसः प्रवासः-न) हिंसकान् दोषान् क्षेप्तारः प्रवसन्तोऽतिथयः प्रवक्तारः (प्रसितासः परिप्रुषः) प्रकृष्टनिर्मलाः पवित्राचरणा जनान् स्वोपदेशेनामृतेन परितः सिञ्चन्ति ये तथाभूता अस्माननुगृह्णन्तु ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    In our programmes of progress, be like the motive powers of the plan with rays of light and reins of control. Be like light givers with sun-light on the rise of the dawns of initiative on a new day. Self- refulgent and glorious like harbingers of soma, be destroyers of violence and negativity. Like world- travellers, shining and sinless on meticulous missions, be harbingers of universal showers of rain and prosperity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांनी आम्हाला ज्ञानस्थानी नियुक्त करावे. ज्ञानाने व शुभाचरणाने आम्हाला विभूषित करावे. जसे ते यशस्वी होतात तसे आम्हालाही उपदेशामृत देऊन निर्दोष करावे. ॥५॥

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