ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 79/ मन्त्र 2
ऋषिः - अग्निः सौचीको, वैश्वानरो वा, सप्तिर्वा वाजम्भरः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
गुहा॒ शिरो॒ निहि॑त॒मृध॑ग॒क्षी असि॑न्वन्नत्ति जि॒ह्वया॒ वना॑नि । अत्रा॑ण्यस्मै प॒ड्भिः सं भ॑रन्त्युत्ता॒नह॑स्ता॒ नम॒साधि॑ वि॒क्षु ॥
स्वर सहित पद पाठगुहा॑ । शिरः॑ । निऽहि॑तम् । ऋध॑क् । अ॒क्षी इति॑ । असि॑न्वन् । अ॒त्ति॒ । जि॒ह्वया॑ । वना॑नि । अत्रा॑णि । अ॒स्मै॒ । प॒ट्ऽभिः । सम् । भ॒र॒न्ति॒ । उ॒त्ता॒नऽह॑स्ताः । नम॑सा । अधि॑ । वि॒क्षु ॥
स्वर रहित मन्त्र
गुहा शिरो निहितमृधगक्षी असिन्वन्नत्ति जिह्वया वनानि । अत्राण्यस्मै पड्भिः सं भरन्त्युत्तानहस्ता नमसाधि विक्षु ॥
स्वर रहित पद पाठगुहा । शिरः । निऽहितम् । ऋधक् । अक्षी इति । असिन्वन् । अत्ति । जिह्वया । वनानि । अत्राणि । अस्मै । पट्ऽभिः । सम् । भरन्ति । उत्तानऽहस्ताः । नमसा । अधि । विक्षु ॥ १०.७९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 79; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(शिरः) इस का सिर के समान उत्तम धाम मोक्षरूप (गुहा निहितम्) सूक्ष्म स्थिति में रखा है (अस्मै) इस परमात्मा के लिए (विक्षु-अधि) समस्त प्रजाओं के मध्य (उत्तानहस्ताः) जो उदार हाथवाले-सरलस्वभाववाले (नमसा) स्तुति के द्वारा (पड्भिः) योगाङ्गों से (अत्राणि सम्भरन्ति) स्वकीय अच्छे भोक्तव्य कर्मों का सम्पादन करते हैं ॥२॥
भावार्थ
मुक्तात्माओं का आश्रययोग्य धाम मोक्ष है, जो मनुष्य उदार भावनाओंवाले स्तुति और योगाङ्गों का सेवन करके उत्तम कर्म करते हैं, वे मोक्ष के भागी बनते हैं ॥२॥
विषय
शरीर में स्थित वैश्वानर आत्मा की अद्भुत महिमा। यज्ञवत् वैश्वानर अग्नि में आहुति। पक्षान्तर में विशाल वैश्वानर का वर्णन। उसमें महान् यज्ञ के दर्शन।
भावार्थ
देखो शरीर में स्थित वैश्वानर आत्मा की अद्भुत महिमा। (शिरः गुहा निहितम्) शिर भाग, मस्तिष्क गुहा अर्थात् खोपड़ी के भीतर सुरक्षित रखा है। और (अक्षी ऋधक्) दोनों आंखें पृथक् २ बनी हैं। वह (जिह्वया) जिह्वा द्वारा (असिन्वन्) भोज्य पदार्थ को विना पकड़े ही (वनानि) नाना भोग्य पदार्थों को (अत्ति) खा जाता है। (अस्मै) इसी पेट की अग्नि के लिये (पड्भिः) पैरों से अन्य २ देशों में जा २ कर (अत्राणि) अनेक खाद्य पदार्थ (सं भरन्ति = सं हरन्ति) प्राप्त करते हैं। और (अधि विक्षु) प्रजाओं के बीच (नमसा) अन्न सहित (उत्तानहस्ता) अपने हाथों को ऊपर उठाये हुए (अस्मै) इस वैश्वानर अग्नि को तृप्त करने के लिये ही (पड्भिः) उत्तम आदरयुक्त वचनों सहित (अत्राणि) नाना खाद्य (सं भरन्ति) प्रदान करते हैं। परमात्मा के पक्ष में—उस प्रभु का शिर (गुहा निहितम्) महान् आकाश में स्थिर है। ‘द्यौर्मूर्धा’०, सूर्य और चन्द्र उस प्रभु के (अक्षी ऋधक) दो पृथक २ आंखों के समान हैं। विद्युत् उसकी जिह्वा के समान (वनानि अत्ति) जलों को ग्रहण करती हैं, उस प्रभु को प्राप्त करने के लिये ही भक्त जन हाथ उठा कर ज्ञानमय वचनों से नमस्कारपूर्वक स्तुति करते और प्रजाओं में दान देते हैं।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निः सौचीको वैश्वानरो वा सप्तिर्वा वाजम्भरः। अग्निर्देवता॥ छन्द:-१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ४, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ आर्ची- स्वराट् त्रिष्टुप्। ७ त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
सिर, आँखें व जिह्वा
पदार्थ
[१] गत मन्त्र में वर्णित जबड़ों की अद्भुत रचना के साथ प्रभु ने (शिरः) = सर्वमुख्य अंग मस्तिष्क को (गुहा निहितम्) = एक हड्डियों से बनी हुई गुफा-सी में रख दिया है । वहाँ उस गुफा में यह कितना सुरक्षित विद्यमान है। उस गुफा पर केश रूप घास-फूस के उगने की व्यवस्था से उसका रक्षण और भी सुन्दर हो जाता है । [२] प्रभु ने (ऋषक् अक्षी) = अलग-अलग दो आँखों को रखा है। दो होती हुई भी ये पदार्थों को दो न दिखाकर एक रूप में ही दिखाती हैं। यह भी एक अद्भुत ही रचना की कुशलता है । [३] सिर व आँखों के अतिरिक्त यह जिह्वा भी अद्भुत है । (जिह्वया) = इस जिह्वा से (असिन्वन्) = कभी अतितृप्ति को न अनुभव करता हुआ यह 'सौचीक अग्नि' (वनानि अत्ति) = वानस्पतिक पदार्थों को खाता है । जिह्वा से उनमें एक इस प्रकार का स्राव मिल जाता है जिससे कि उनका पाचन ठीक से हुआ करता है यहाँ कुछ stareh निशास्ता खाण्ड में परिवर्तित हो जाता है । [४] (अस्मै) = इसके लिये (अत्राणि) = भोज्य पदार्थों को (पभिः) = श्रमों के द्वारा, गति के द्वारा (संभरन्ति) = संभृत करते हैं। वस्तुतः पुरुषार्थ से प्राप्त भोजन ही भोजन है । बिना पुरुषार्थ के प्राप्त भोजन अन्ततः विध्वंस का कारण बनता है। (विक्षु) = प्रजाओं में (उत्तानहस्ताः) = ऊपर उठाये हुए हाथोंवाले, अर्थात् पुरुषार्थ में रत पुरुष (नमसा) = नमन के द्वारा, प्रभु के प्रति नम्रभाव को धारण करते हुए इन भोजनों को प्राप्त करते हैं। इन भोजनों में भी ये प्रभु की महिमा को देखते हैं और प्रभु के प्रति नतमस्तक होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - मस्तिष्क, आँखों व जिह्वा की रचना में भी उस रचयिता की महिमा स्पष्ट है । जिह्वा से हम पुरुषार्थ से प्राप्त वानस्पतिक पदार्थों का ही सेवन करें।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(शिरः-गुहा निहितम्) अस्य शिरोवदुत्तमं धाममुक्तानामा-श्रयणीयो मोक्षः सूक्ष्मस्थितौ रक्षितम् (अस्मै) एतस्मै परमात्मने (विक्षु-अधि) समस्तासु प्रजासु मध्ये (उत्तानहस्ता) ये सन्ति खलूत्तानहस्ता उदारहस्ताः सरलभावाः (नमसा) स्तुत्या (पड्भिः) योगाङ्गैः (अत्राणि सम्भरन्ति) स्वकीयानि साधुभोक्तव्यानि कर्माणि सम्पादयन्ति ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The highest presence of Agni is hidden in mystery, in the cave of the heart. Its eyes of universal vision are objectified separately in the sun and moon. With its tongue it consumes various things, even the best and most beautiful too, insatiably. In homage to it, yajakas all across humanity bear holy offerings with hands raised in reverence and adoration and bring them step by step for its consumption in the fire and in the crucibles of the discipline of meditation.
मराठी (1)
भावार्थ
मुक्तात्म्यांचा आश्रय योग्य धाम मोक्ष आहे. जी माणसे उदार भावनेने स्तुती व योगांगांचे सेवन करून उत्तम कर्म करतात ते मोक्षाचे भागी बनतात. ॥२॥
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