ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 82/ मन्त्र 2
ऋषिः - विश्वकर्मा भौवनः
देवता - विश्वकर्मा
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वि॒श्वक॑र्मा॒ विम॑ना॒ आद्विहा॑या धा॒ता वि॑धा॒ता प॑र॒मोत सं॒दृक् । तेषा॑मि॒ष्टानि॒ समि॒षा म॑दन्ति॒ यत्रा॑ सप्तऋ॒षीन्प॒र एक॑मा॒हुः ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒श्वऽक॑र्मा । विऽम॑नाः । आत् । विऽहा॑याः । धा॒ता । वि॒ऽधा॒ता । प॒र॒मा । उ॒त । स॒म्ऽदृक् । तेषा॑म् । इ॒ष्टानि॑ । सम् । इ॒षा । म॒द॒न्ति॒ । यत्र॑ । स॒प्त॒ऽऋ॒षीन् । प॒रः । एक॑म् । आ॒हुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वकर्मा विमना आद्विहाया धाता विधाता परमोत संदृक् । तेषामिष्टानि समिषा मदन्ति यत्रा सप्तऋषीन्पर एकमाहुः ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वऽकर्मा । विऽमनाः । आत् । विऽहायाः । धाता । विऽधाता । परमा । उत । सम्ऽदृक् । तेषाम् । इष्टानि । सम् । इषा । मदन्ति । यत्र । सप्तऽऋषीन् । परः । एकम् । आहुः ॥ १०.८२.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 82; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(विश्वकर्मा) विश्व का रचनेवाला परमात्मा (विमनाः) विशेष मनन शक्तिवाला (विहायाः) व्यापक (धाता) जगत् का धारक (विधाता) कर्मफलविधायक-कर्मफल को नियत कर देनेवाला (परमा सन्दृक्) परम इन्द्रिय-विषयों का ( तेषाम्-इष्टानि) उन इन्द्रियों के विषयसुखों को (इषा-सम्-मदन्ति) उस की प्रेरणा से मनुष्य सम्यक् सुख का अनुभव करते हैं (यत्र) जिस परमात्मा में (सप्त-ऋषीन्) सात छन्दोंवाले मन्त्र रखे हुए हैं तथा (परः-एकम्-आहुः) पार-मोक्षधाम में वर्तमान है, उस एक अधिष्ठाता परमात्मा को वे मन्त्र कहते हैं ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा विश्व का रचनेवाला उसमें व्यापक सर्वज्ञ है, जीवों के कर्मफलों को देनेवाला इन्द्रियों के विषयों का प्रेरक तथा सुख अनुभव करानेवाला है ॥२॥
विषय
विश्वकर्मा, विश्वस्त्रष्टा का वर्णन। पक्षान्तर में देहाश्रित विश्वकर्मा आत्मा का वर्णन। विश्वकर्मा आदित्य का वर्णन।
भावार्थ
(विश्व-कर्मा) समस्त विश्व का बनाने वाला, परमेश्वर, अनेक प्रकार के जगत् के पदार्थों को रचने वाला (वि-मनाः) विविध मनों का स्वामी, वा विशेष संकल्पवान्, समष्टि चित्त रूप और (आत्) सर्वत्र (वि-हायाः) आकाश के तुल्य महान्, व्यापक, (धाता) सब विश्व को धारण करने वाला और (वि धाता) विशेष रूप से सूर्य, पृथिवी आदि समस्त लोकों को विविध रूप में बनाने वाला, (परमा) परम, सर्वोत्कृष्ट ज्ञानवान् (उत) और (सं-दृक्) समस्त विश्वों और जीवों के सब कार्यों का द्रष्टा है। (यत्र) जिसके विषय में विद्वान् लोग (आहुः) कहते हैं कि वह (सप्त-ऋषीन् परः) सातों दर्शनकारी इन्द्रियों को अतिक्रमण करके उनसे भी परे है। और (यत्र) जिस प्रभु के आश्रय (तेषाम्) उनके (इष्टानि) अभिलषित समस्त भोग्य वा दृश्य पदार्थ (इषा) उसकी प्रेरक शक्ति से (सं मदन्ति) भली प्रकार हृष्ट, प्रसन्न, एवं हर्ष-सुख के कारण होते हैं। (२) देह में आत्मा भी अपने प्रवेश योग्य देह रचने और देहोचित विविध चेष्टा करने से ‘विश्वकर्मा’ है। विविध संकल्प-विकल्पवान् चित्त वाला होने से ‘विमना’ है। (विहाया) असङ्ग, सब देह में शक्ति सामर्थ्य से व्यापक, (धाता) देह का धारक, कर्मों का विधाता, (परमा उत संदृक्) इन्द्रियों से भी श्रेष्ठ, (परमा) प्रमाता, ज्ञाता सम्यग् दर्शनवान् है। (यत्र सप्त ऋषीन् परः) जिसमें सातों इन्द्रियों के भी परे। उनका भेदभाव हटा कर (एकम्) एक असंग पुरुष, अद्वितीय रूप (आहुः) बतलाते हैं। उसी आत्मा में (तेषाम्) उन इन्द्रियों के (इष्टानि) इष्ट भोग्य, पदार्थों को (इषा) अन्न से (सं मदन्ति) हर्षित वा बलवान् करते हैं। आधिदैवत पक्ष में—विश्वकर्मा ‘आदित्य’ है। वृष्टि आदि विविध कर्म करने से ‘विश्वकर्मा’ है, उसी के आश्रय पर उन जीवों के इष्ट, भोग्य अन्नादि की उत्पत्ति होती है। जो सातों ऋषि, अर्थात् गतिशील ग्रहों से भी परे विद्यमान है। वह अद्वितीय है इत्यादि।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वकर्मा भौवन ऋषिः॥ विश्वकर्मा देवता॥ छन्द:- १, ५, ६ त्रिष्टुप्। २, ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप्। ७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्।
विषय
'विश्वकर्मा-विमना - विहायाः'
पदार्थ
[१] गत मन्त्र का जितेन्द्रिय पुरुष (विश्वकर्मा) = अपने सब कर्त्तव्यों का पालन करनेवाला होता है, (विमनाः) = यह विशिष्ट मनवाला, अर्थात् उत्कृष्ट चिन्तनवाला होता है, (आद्) = अब, अर्थात् विश्वकर्मा व विमना होता हुआ (विहाया:) = महान् होता है । इसका हृदय विशाल होता है, उदार दिलवाला होता हुआ यह सभी को अपनी में समाविष्ट करता है । (धाता) = यह सबका धारण करनेवाला बनता है, (विधाता) = विशिष्ट रूप से धारण करता है, (उत) = और (परम सन्दृक्) = [look after] सब से अधिक ध्यान करनेवाला होता है। जैसे माता-पिता बच्चे का ध्यान करते हैं, इसी प्रकार यह विश्वकर्मा सभी का ध्यान करने का प्रयत्न करता है । [२] (तेषाम्) = ऊपर वर्णन किये गये लोगों को ही (इष्टानि) = इष्ट लोकों की प्राप्ति होती है। ये (इषा) = उस प्रभु की प्रेरणा से (संमदन्ति) = सम्यक् हर्ष का अनुभव करते हैं। ये (यत्रा) = जहाँ, जिस स्थिति में पहुँचकर (सप्त ऋषीन्) = कानों, नासिका, आँखों व मुख को परे उस पर परमात्मा में ही धारण करते हैं, उस समय ये लोग (एकं आहुः) = उस अद्वितीय प्रभु का ही शंसन करते हैं । चित्तवृत्ति को एकाग्र करके, जितेन्द्रिय बनकर, प्रभु का शंसन करना ही जीवन का परम सौभाग्य है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम कर्त्तव्यों को करनेवाले, चिन्तनशील व उदार बनकर औरों का भी धारण करनेवाले बनें। जब इन्द्रियवृत्तियों का निरोध करके हम उस प्रभु का शंसन करेंगे तभी इष्ट लोकों को प्राप्त कर पायेंगे।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(विश्वकर्मा) विश्वरचयिता परमात्मा (विमनाः) विभूतमनाः-अतिशयितमननशक्तिमान् (विहायाः) व्यापकः (धाता) जगतो धारयिता (विधाता) कर्मफलविधायकः (परमा सन्दृक्) परमः सन्दर्शयितेन्द्रियविषयाणाम् “लिङ्व्यत्ययश्छान्दसः” (तेषाम्-इष्टानि) तेषामिन्द्रियाणामिष्टानि विषयसुखानि (इषा-सम्-मदन्ति) तत्प्रेरणया जनाः सम्यगानन्देनानुभवन्ति (यत्र सप्त-ऋषीन्) यस्मिन् सप्तछन्दोयुक्ताः मन्त्राः सन्ति “व्यत्ययेन द्वितीया” (परः-एकम्-आहुः) परः परिपाप्यः पारवर्त्तमानोऽस्ति, तमकेमधिष्ठातारं ते मन्त्राः कथयन्ति ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Vishvakarma is infinitely intelligent, infinitely pervasive, all sustaining, all controlling, supreme, all percipient, and all watchful. By virtue of his immanence and inspiration, living beings enjoy the cherished objects of their love and desire. It is that one Supreme Spirit which all sages celebrate and adore as One and Absolute. It is from him that all seven mantra chants arise and unto him return.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा विश्वाचा रचनाकार असून, त्यात व्यापक आहे. तो सर्वज्ञ असून जीवांना कर्मफल देणारा, इंद्रियांचा प्रेरक व सुखाचा अनुभव करविणारा आहे. ॥२॥
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