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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 91/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अरुणो वैतहव्यः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    वातो॑पधूत इषि॒तो वशाँ॒ अनु॑ तृ॒षु यदन्ना॒ वेवि॑षद्वि॒तिष्ठ॑से । आ ते॑ यतन्ते र॒थ्यो॒३॒॑ यथा॒ पृथ॒क्छर्धां॑स्यग्ने अ॒जरा॑णि॒ धक्ष॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वात॑ऽउपधूतः । इ॒षि॒तः । वशा॑न् । अनु॑ । तृ॒षु । यत् । अन्ना॑ । वेवि॑षत् । व्ऽतिष्ठ॑से । आ । ते॒ । य॒त॒न्ते॒ । र॒थ्याः॑ । यथा॑ । पृथ॑क् । शर्धां॑सि । अ॒ग्ने॒ । अ॒जरा॑णि । धक्ष॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वातोपधूत इषितो वशाँ अनु तृषु यदन्ना वेविषद्वितिष्ठसे । आ ते यतन्ते रथ्यो३ यथा पृथक्छर्धांस्यग्ने अजराणि धक्षतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वातऽउपधूतः । इषितः । वशान् । अनु । तृषु । यत् । अन्ना । वेविषत् । व्ऽतिष्ठसे । आ । ते । यतन्ते । रथ्याः । यथा । पृथक् । शर्धांसि । अग्ने । अजराणि । धक्षतः ॥ १०.९१.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 91; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वातोपधूतः) प्रणायाम योगाभ्यास से उपगत-साक्षात् हुआ परमात्मा अथवा वायु से प्रेरित भौतिक अग्नि (वशान्-अनु) कामना करते हुए स्तोताओं के प्रति या वश में आनेवाले वनस्पतियों के प्रति (तृषु) शीघ्र (यत्-अन्ना) जो अदनीय चराचर वस्तुओं के प्रति (वेविषत्) व्याप्त होता हुआ (वितिष्ठसे) विशेषरूप से ठहरता है-अधिकार करता है या स्वायत्त करके रहता है (अग्ने) हे परमात्मन् ! या अग्ने ! (ते धक्षतः) तेरे दान करते हुए या जलाते हुए (अजराणि शर्धांसि) स्थिर बल हैं (रथ्यः-यथा पृथक्-आ यतन्ते) रथ में जुड़े घोड़े जैसे पृथक्-पृथक् कार्य के लिए जाते हैं, ऐसे तेरे बल पराक्रम करते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    प्राणयाम आदि योगाभ्यास के द्वारा कामना करनेवाले स्तोताओं के प्रति परमात्मा साक्षात् होता है, उसके गुण पराक्रम कल्याणदान के लिए उसके अन्दर शीघ्र प्राप्त होते हैं एवं वायु के द्वारा प्रेरित अग्नि वनस्पतियों के अन्दर जलाने को घुसता चला जाता है उसके दाहक वेग उन्हें शीघ्र प्राप्त करते है ॥७॥

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    विषय

    अजीर्णशक्तिता

    पदार्थ

    [१] (वातोपधूतः) = [वात प्राण] प्राणायाम के द्वारा जिसने वासनाओं को कम्पित करके दूर कर दिया है और अपने वासनाशून्य हृदय में (इषित:) = जिसने प्रभु प्रेरणा को प्राप्त किया है। इस प्रेरणा को प्राप्त करके (यत्) = जो (वशान् अनु) = इन्द्रियों को वश में करने के अनुसार (तृषु) = शीघ्र (अन्ना) = अन्नों का (वेविषद्) = व्यापन करता हुआ, अर्थात् सात्त्विक अन्नों को ही खाता हुआ, (वितिष्ठसे) = विशेषरूप से स्थित होता है । [२] ऐसा होने पर (ते) = तेरे (रथ्यः) = ये शरीररूप रथ में जुतनेवाले इन्द्रियाश्व (यथा-पृथक्) = जिस-जिस कार्य के लिए वे उद्दिष्ट हैं, उस-उस कार्य में (आयतन्ते) = सब प्रकार से यत्नशील होते हैं । कर्मेन्द्रियाँ अपने-अपने कार्यों को ठीक से करती हैं, और ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्ति में प्रवृत्त रहती हैं । [३] इस प्रकार इन्द्रियों को ठीक से स्वकार्य में प्रवृत्त रहने पर, हे अग्ने प्रगतिशील जीव ! (धक्षतः) = वासनाओं का दहन करनेवाले तेरी शर्धांसि शक्तियाँ अजराणि जीर्ण होनेवाली नहीं होती ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणायाम के द्वारामलों को दूर कर के प्रभु प्रेरणा को सुनें । सात्त्विक अन्न खाएँ, इन्द्रियों को स्वकार्य में प्रवृत्त रखें और इस प्रकार अजीर्ण शक्तिवाले बनें ।

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    विषय

    अग्नि के तुल्य, आत्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (वात-उपधूतः) वायु से भभका हुआ अग्नि (वशान्) अपने इच्छानुसार चमकते काष्ठों को (वेविषत्) व्याप जाता है उसी प्रकार यह आत्मा (वात-उपधूतः) प्राण वायु से प्रेरित एवं प्रकाशित और (इषितः) इच्छावान् होकर (तृषु) शीघ्र ही, (यत्) जब हे (अग्ने) प्रकाश स्वरूप (अन्ना-अनु) अन्नों के तुल्य खाद्य वा भोग्य पदार्थों को (वेविषत्) प्राप्त करता और (वशान्) काम्य लोकों को (वितिष्ठसे) विशेष रूप से प्राप्त करता है, तब (ते शर्धांसि) तेरे नाना बल, (यथा रथ्यः) रथ में जुते अश्वों के तुल्य और (धक्षतः अजराणि शर्धांसि इव) जलाने वाले अग्नि के रथादि प्रेरक बलों के तुल्य (पृथक्-यतन्ते) पृथक यत्न करते हैं। वे आंख नाक चक्षुओं के रूप में पृथक् २ नाना कर्म करते हैं। वे अग्नि द्वारा सञ्चालित यन्त्रों के तुल्य अपना २ कार्य करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः अरुणो वैतहव्यः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, ३, ६ निचृज्जगती। २, ४, ५, ९, १०, १३ विराड् जगती। ८, ११ पादनिचृज्जगती। १२, १४ जगती। १५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूकम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वातोपधूतः) प्राणायामेन योगाभ्यासेन उपगतः परमात्मा यद्वा वायुना प्रेरितोऽग्निः (वशान्-अनु) कामयमानान् स्तोतॄननु वश्यान् वनस्पतीननु (तृषु) शीघ्रम् (यत्-अन्नावेविषत्-वितिष्ठसे) अद्यानि-चराचरात्मकानि वस्तूनि प्रति व्याप्नुवन् विशेषेण तिष्ठसे, ओषधिं वनस्पतीन् वा स्वायत्तीकृत्य वितिष्ठसे (अग्ने) हे परमात्मन् ! अग्ने वा (ते-अजराणि धक्षतः शर्धांसि) तव ददतो स्थिराणि बलानि “शर्ध बलनाम” [निघ० २।९] दहतो वा (रथ्यः-यथा पृथक्-आ यतन्ते) रथे युक्ता अश्वा इव पृथक् पृथक् कार्याय गच्छन्ति “यतते गतिकर्मा” [निघ० २।१४] ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When urged and impelled by wind, Agni, you rush fast to objects of your choice love and consumption, then your youthful unaging flames, burning and blazing, rush on like the horses of a monarch’s chariot.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्राणायम इत्यादी योगाभ्यासाद्वारे कामना करणाऱ्या स्तोत्यांना परमात्मा साक्षात होतो. त्याचे गुण पराक्रम त्यांच्या कल्याणासाठी तात्काळ त्यांच्यात येतात. तसेच वायुद्वारे प्रेरित झालेला अग्नी वनस्पतीत दहन करण्यासाठी घुसतो व त्याचा दाहक वेग त्यांना शीघ्र प्राप्त होतो. ॥७॥

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