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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 41/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒यं वां॑ मित्रावरुणा सु॒तः सोम॑ ऋतावृधा। ममेदि॒ह श्रु॑तं॒ हव॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । वा॒म् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । सु॒तः । सोमः॑ । ऋ॒त॒ऽवृ॒धा॒ । मम॑ । इत् । इ॒ह । श्र॒त॒म् । हव॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं वां मित्रावरुणा सुतः सोम ऋतावृधा। ममेदिह श्रुतं हवम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। वाम्। मित्रावरुणा। सुतः। सोमः। ऋतऽवृधा। मम। इत्। इह। श्रुतम्। हवम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 41; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे तावृधा मित्रावरुणा योऽयं वा सोमः सुतस्तत्पीत्वेदिह मम हवं श्रुतम् ॥४॥

    पदार्थः

    (अयम्) (वाम्) युवाभ्याम् (मित्रावरुणा) प्राणोदानवद्वर्त्तमानौ (सुतः) निष्पादितः (सोमः) (तावृधा) सत्येन वृद्धौ (मम) (इत्) (इह) (श्रुतम्) (हवम्) ॥४॥

    भावार्थः

    यथा वायवः सर्वस्माद्रसं गृहीत्वा वर्षयन्ति तथैव सत्या विद्याः श्रुत्वा सर्वेभ्यः सुखं देयम् ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (तावृधा) सत्य से बड़े हुए (मित्रावरुणा) प्राण और उदान के समान वर्त्तमान अध्यापको ! जो (अयम्) यह (वाम्) तुम दोनों से (सोमः) ओषधियों का रस (सुतः) उत्पन्न हुआ उसको पीके (इत्) ही (इह) यहाँ (मम) मेरे (हवम्) आह्वान को (श्रुतम्) सुनिये ॥४॥

    भावार्थ

    जैसे वायु सबसे रस को ग्रहण कर वर्षाते हैं, वैसे ही सत्य विद्याओं को सुनकर सबके लिये सुख देना चाहिये ॥४॥

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    विषय

    नीरोग व निष्पाप

    पदार्थ

    १. प्रस्तुत मन्त्र में 'मित्रावरुण' द्वारा जीव को यह कहते हैं कि 'प्रमीतेः अयते' मृत्यु व रोगों से अपने को बचानेवाला हो 'पापात् निवारयति' पाप से अपने को निवारित करे। 'शरीर के दृष्टिकोण से रोगों से बचना तथा मन के दृष्टिकोण से पाप से दूर रहना' यही मित्र और वरुण बनना है। ये मित्र और वरुण अपने में ॠत का वर्धन करते हैं इनके सब कार्य ठीक समय व ठीक स्थान पर होते हैं । हे (ऋतावृधा मित्रावरुणा) = ॠत का अपने में वर्धन करनेवाले मित्र और वरुण ! [नीरोग व निष्पाप जीवनवाले व्यक्ति !] (अयं सोमः) = यह सोम [= वीर्यशक्ति] (वाम्) = आप के लिए (सुतः) = उत्पादित हुआ है। इस सोम द्वारा ही तो वस्तुतः वे मित्र और वरुण नीरोगता व निष्पापता को प्राप्त करते हैं। इस सोम रक्षण के लिए सब कार्यों को ऋत से करना आवश्यक है। यह ऋत का पालन-ठीक समय व ठीक स्थान पर कार्यों को करना-मनुष्य को सोमरक्षण के योग्य बनाएगा। २. प्रभु इन मित्र वरुण से कहता है कि इस प्रकार ऋतपालन द्वारा सोमरक्षण करते हुए तुम इह इस जीवन में (इत्) = निश्चय से (मम) = मेरी (हवम्) = प्रेरणा को (श्रुतम्) = सुनो। यह सोमरक्षकपुरुष हृदयस्थ- प्रभु की प्रेरणा को सुनने के योग्य बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - ऋतपालन से वीर्य का शरीर में रक्षण होता है। इस सोमरक्षण से मनुष्य नीरोग व निष्पाप बनता है। ऐसा बनने पर हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को यह सुन पाता है।

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    विषय

    उत्तम पुरुषों, नाना अध्यक्षों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( मित्रावरुणा ) मित्र के समान स्नेही, प्रजा को मरण से बचाने वाले सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष ! और वरुण, वरण करने योग्य श्रेष्ठ और वरने वाले एवं रात्रि के समान शान्ति और आश्रय सुख देने वाले स्त्रीजन ! आप दोनों ( ऋतावृधा ) सत्य को बढ़ाने, सत्य से बढ़ने वाले और ऋत अर्थात् जल और धन की वृद्धि करने वाले सूर्य वायु और न्यायाधीश और राजा के समान होवो । ( सुतः सोमः ) वायु, सूर्य से उत्पन्न जिस प्रकार जल या ओषधिगण हो, में उत्पन्न जिस प्रकार ( सुतः सोमः ) अभिषिक्त आज्ञापक या उत्पन्न ऐश्वर्य हो उसी प्रकार हे स्त्री पुरुषो ! ( वाम् ) तुम दोनों का भी ( अयं ) यह (सुतः) उत्पन्न ( सोमः ) सौम्य पुत्र हो । उसी प्रकार ( सुतः सोमः ) स्नान किया, स्नातक शिष्य ज्ञानवान् हो। और आप दोनों ( मम इत् ) मेरा ( हवम् ) ग्रहण करने योग्य वचन ( श्रुतम् ) श्रवण करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ १, २ वायुः । ३ इन्द्रवायू । ४–६ मित्रावरुणौ । ७–९ अश्विनौ । १०–१२ इन्द्रः । १३–१५ विश्वेदेवाः । १६–१८ सरस्वती । १६–२० द्यावापृथिव्यौ हविर्भाने वा देवता ॥ छन्दः-१, ३, ४, ६, १०, ११, १३ ,१५ ,१९ ,२० ,२१ गायत्री । २,५ ,९ , १२, १४ निचृत् गायत्री । ७ त्रिपाद् गायत्री । ८ विराड् गायत्री । १६ अनुष्टुप् । १७ उष्णिक् । १८ बृहती ॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे वायू सर्वांकडून रस ग्रहण करून वृष्टी करतात तसेच सत्य विद्येचे श्रवण करून सर्वांना सुख दिले पाहिजे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Mitra and Varuna, dear as breath of life and soothing as morning mist, eminent in dedication to truth and law, the soma of life is distilled and prepared for you. Listen to this call and invitation of mine and come here and now.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More about the teachers and pupils.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O advancers or propagators of truth ! O Mitra and Varuna (king and prime minister) ! you are like Prana and Udana (vital breaths ). This juice of Soma (nourishing herbs) has been prepared for you. Drink it and listen to my invocation.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the winds take sap from all articles and then rain it down, so men should study all the sciences and bestow happiness upon all.

    Foot Notes

    (मित्रावरुणा ) प्राणोदानवद्वर्त्तमानौ । राजप्रधानामात्यो । प्राणोदानौ वै मित्रावरुणा (Stph. 1, 8, 3, 12 ) = The king and prime minister who are like Prana and Udana.

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