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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 43/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - कपिञ्जलइवेन्द्रः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    आ॒वदं॒स्त्वं श॑कुने भ॒द्रमा व॑द तू॒ष्णीमासी॑नः सुम॒तिं चि॑किद्धि नः। यदु॒त्पत॒न्वद॑सि कर्क॒रिर्य॑था बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽवद॑न् । त्वम् । स॒कु॒ने॒ । भ॒द्रम् । आ । व॒द॒ । तू॒ष्णीम् । आसी॑नः । सु॒ऽम॒तिम् । चि॒कि॒द्धि॒ । नः॒ । यत् । उ॒त्ऽपत॑न् । वद॑सि । क॒र्क॒रिः । य॒था॒ । बृ॒हत् । व॒दे॒म॒ । व् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आवदंस्त्वं शकुने भद्रमा वद तूष्णीमासीनः सुमतिं चिकिद्धि नः। यदुत्पतन्वदसि कर्करिर्यथा बृहद्वदेम विदथे सुवीराः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽवदन्। त्वम्। शकुने। भद्रम्। आ। वद। तूष्णीम्। आसीनः। सुऽमतिम्। चिकिद्धि। नः। यत्। उत्ऽपतन्। वदसि। कर्करिः। यथा। बृहत्। वदेम। विदथे। सुऽवीराः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 43; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे शकुने त्वमावदन् सन् भद्रमावद तूष्णीमासीनो योगाभ्यासं कुर्वन् नः सुमतिं चिकिद्धि उत्पतन्निव यद्भद्रं यथा कर्करिस्तथा वदसि अनेनैव सुवीराः सन्तो वयं विदथे बृहद्वदेम ॥३॥

    पदार्थः

    (आवदन्) समन्तादुपदिशन् (त्वम्) (शकुने) शक्तिमत्पक्षिवद्वर्त्तमान (भद्रम्) भन्दनीयं वचः (आ) (वद) (तूष्णीम्) मौनमालम्ब्य (आसीनः) उपविष्टस्सन् (सुमतिम्) शोभनां प्रज्ञाम् (चिकिद्धि) ज्ञापय (नः) अस्मान् (यत्) (उत्पतन्) ऊर्ध्वमुड्डीयमान इव (वदसि) (कर्करिः) भृशं कुर्वन् (यथा) (बृहत्) (वदेम) (विदथे) (सुवीराः) ॥३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्याः श्रुत्वा मन्वाना अध्यापयन्तस्सन्तः सत्यं विज्ञायाऽन्यानुपदिशन्ति ते सर्वेषां कल्याणकरा भवन्तीति ॥३॥ अत्रोपदेशकगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्वेद्या ॥ इति त्रिचत्वारिंशत्तमं सूक्तं द्वादशो वर्गश्चतुर्थोऽनुवाको द्वितीयं मण्डलं च समाप्तम् ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (शकुने) शक्तिमान् पक्षी के समान वर्त्तमान ! तू (आवदन्) सब ओर से उपदेश करता हुआ (भद्रम्) कल्याण करने योग्य प्रस्ताव का (आवद) अच्छे प्रकार उपदेश कर (तूष्णीम्) मौन को आलम्बन कर (आसीनः) बैठे हुए योग का अभ्यास करता हुआ (नः) हम लोगों की (सुमतिम्) शुभ बुद्धि (चिकिद्धि) समझ (उत्पतन्) ऊपर को उड़ते के समान जिस (भद्रम्) कल्याण करने योग्य काम को (यथा) जैसे (कर्करिः) निरन्तर करनेवाला हो वैसे (वदसि) कहते हो इसी से (सुवीराः) सुन्दर वीरोंवाले हम लोग (विदथे) संग्राम में (बृहत्) बहुत कुछ (वदेम) कहें ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्याओं को सुनकर मनन करते हुए पढ़ाते और सत्य को जानकर औरों को उपदेश करते हैं, वे सबके कल्याण करनेवाले होते हैं ॥३॥ इस सूक्त में उपदेशकों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह तेतालीसवाँ सूक्त बारहवाँ वर्ग चौथा अनुवाक और दूसरा मण्डल समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    (आवदंस्त्वं शकुने) हे शकुने! जगदीश्वर ! आप सब (भद्रम्) कल्याण का भी कल्याण, अर्थात् व्यावहारिक सुख के भी ऊपर मोक्ष-सुख का निरन्तर उपदेश सब जीवों को कीजिए। (तूष्णीमासीन:)  हे अन्तर्यामिन् ! आप हमारे हृदय में सदा स्थिर हो मौनरूप से ही (सुमतिम्) सर्वोत्तम ज्ञान देओ । (चिकिद्धि नः) आप स्वकृपा से हमको अपने रहने के लिए घर ही बनाओ और आपकी परमविद्या को हम प्राप्त हों। (यदुत्पतन्) उत्तम व्यवहार में पहुँचाते हुए आपका यथा=जिस प्रकार से (कर्करिर्वदसि) कर्त्तव्य कर्म, धर्म को ही अत्यन्त पुरुषार्थ से करो, अकर्त्तव्य दुष्ट कर्म मत करो, मत करो, ऐसा उपदेश है कि पुरुषार्थ, अर्थात् यथायोग्य उद्यम को कभी कोई मत छोड़ो। जैसे (बृहद्वदेम विदथे)  विज्ञानादि यज्ञ वा धर्मयुक्त युद्धों में (सुवीराः)  अत्यन्त शूरवीर होके (बृहत्) [सबसे बड़े] आप जो परब्रह्म उन आपकी (वदेम) स्तुति, आपका उपदेश, आपकी प्रार्थना और उपासना तथा आपका यह बड़ा, अखण्ड साम्राज्य और सब मनुष्यों का हित सर्वदा कहें, सुनें और आपके अनुग्रह से परमानन्द को भोगें ॥५३॥

    टिपण्णी

    १. अजमेरीय संस्करण में ५२, ५३ मन्त्र भी एक साथ मुद्रित हुए हैं । हमने पृथक्-पृथक् कर दिये हैं। – सं०

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    विषय

    सुमति की कामना

    पदार्थ

    १. हे (शकुने) सशक्त शरीरवाले संन्यासिन्! (आवदन्) = चारों ओर उपदेश देता हुआ (त्वम्) = तू (भद्रम् आवद) = कल्याण का ही उपदेश कर । (तूष्णीम् आसीन:) = उपासना में चुपचाप शान्त बैठा हुआ भी तू (नः) = हमारे लिए (सुमतिम्) = कल्याणी मति की चिकिद्धि [कित् to desire] कामना कर। 'सबको शुभबुद्धि प्राप्त हो' यही तेरी आराधना हो । संन्यासी ने कभी किसी के अशुभ की तो कामना करनी ही नहीं। २. (यद्) = जब तू (उत्पतन्) = उत्कृष्ट मार्ग पर चलता हुआ होता है तो ऐसे (वदसि) = उपदेश देता है (यथा) = जैसे (कर्करिः) = वाद्यविशेष । जैसे वीणा से मधुर ही स्वर निकलता है, इस प्रकार तू मधुर ही बोलता है। तेरे सम्पर्क में (विदथे) = ज्ञानयज्ञों में बैठे हुए हम भी (सुवीराः) = कामादि शत्रुओं को कम्पित करके दूर करनेवाले वीर बनकर (बृहद्वदेम) = खूब ही ज्ञान की बातों का प्रतिपादन करें। परस्पर ज्ञानचर्चा को करनेवाले ही हम बनें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- संन्यासी कल्याण का उपदेश करे और सबके लिए शुभबुद्धि की कामना करे । उपदेश मधुर शब्दों में ही दे ।

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    विषय

    शकुनि, श्येन, शकुन्त, आदि का रहस्य। शक्तिशाली और ज्ञानी पुरुष का और पक्षान्तर में प्रभु का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ( शकुने ) शान्तिदायक ! शक्तिशालिन् ! ( त्वं ) तू जब भी बोलता हो तब तब ( भद्रम् आ वद ) दूसरों के कल्याणकारी वचन ही कहाकर । और ( तूष्णीम् आसीनः ) जब तू मौन बैठे तब भी ( नः ) हमारे लिये ( सुमतिम् ) शुभ मति, संकल्प ( चिकिद्धि ) किया कर । ( कर्करिः ) कद्दू का फल ( उत्पतन् ) जब जल में उतराने वाला अर्थात् सूख जाता है तभी वह वाद्य में लगकर सुरीला शब्द करता है उसी प्रकार तू भी ( उत्-पतन् ) जब उत्तम पद पर आरूढ़ हो ( कर्करिः ) प्रधान कार्य कर्त्ता होकर ( वदसि ) बोले तब भी ( भद्रम् आ वद ) शुभ ही वचन कह । मदमत्त या गर्वी होकर कुवाच्य मत कह । हम ( सुवीराः ) उत्तम वीर और बलवान् पुत्रों से युक्त होकर ( विदथे ) संग्राम और यज्ञ में ( बृहत् वदेम ) तेरे बड़े यश का वर्णन करें। इति द्वादशो वर्गः ॥ इति द्वितीये मण्डले चतुर्थोऽनुवाकः ॥ इति गार्त्समदं द्वितीयं मण्डलम् ॥ इति द्वादशो वर्गः॥ इति द्वितीयं मण्डलं समाप्तम् ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ कपिञ्जल इवेन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १ जगती ३ निचृज्जगती २ भुरिगतिशक्करी ॥ तृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विद्येचे श्रवण करून मनन करून शिकवितात व सत्य जाणून इतरांना उपदेश करतात, ते सर्वांचे कल्याणकर्ते असतात. ॥ ३ ॥

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    विषय

    प्रार्थना

    व्याखान

    हे (आवदंस्त्वं शकुने) सर्व शक्तिमान ईश्वरा ! कल्याणांमध्ये उत्तम असे (भद्रम्) कल्याण जे व्यावहारिक सुखापेक्षाही श्रेष्ठ आहे अशा मोक्ष सुखाचा तू निरन्तर उपदेश कर, (तूष्णीमासीनः) हे अन्तर्यामी ! आमच्या हृदयात सदैव स्थिर व मौन राहून (सुमितम्) सर्वोत्तम ज्ञान दे. (चिकिद्धि नः) कृपा करून आमच्या निवासाची सोय कर व तुझी परम विद्या आम्हाला प्राप्त होऊ दे. (यदुत्पतन्) उत्तम व्यवहार करत असताना ज्याप्रमाणे (कर्करिर्वदसि) कर्तव्य, कर्म, धर्म अत्यंत पुरुषार्थाने व [अकर्तव्य] दृष्ट कर्म करू नये असा तुझा उपदेश आहे. (पुरुषार्थ) यथायोग्य व्यवसाय करावा, कधीही सोडू नये. तसेच (बृहद्वदेम विदथे) विज्ञान इत्यादी यज्ञमय कर्म सोडता कामा नये. व धर्मयुक्त युद्धामध्ये (सुवीराः) अत्यंत शूरवीर बनून (बृहत्) सर्वात मोठा असा परब्रम्ह त्या तुझी (वेदम) स्तुती, उपदेश, व प्रार्थना आणि उपासना, तसेच तुझे हे मोठे अखण्ड साम्राज्य आणि सर्व माणसांचे हित या संबंधी आम्ही नेहमी बोलावे, ऐकावे व तुझ्या अनुग्रहाने परमानंद भोगावा. ॥५३॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Shakuni, poet of power and imagination, while speaking, speak to us of good. Silent and sitting, enlighten our mind with noble thoughts. While flying on the wings of imagination, you speak of the way you do good. Let us then, blest with good and brave children, sing songs of high praise for the lord.

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    Purport

    O the Lord of the universe! Instruct all the souls fully and continuously about the hightest happinesssalvation, which is higher than all worldy pleasures. O Omniscient Lord! Be seated firmly in our heart and quietly impart us your highest knowledge. Kindly make us [our soul] your abode to dwell in, so that we may receive your Vedic Lore. Leading us in excellent behaviour your teaching is like this-"Do your duty. With your full capacity with great efforts follow the laws of righteousness. Do not do unlawful and evil acts. Never give up efforts which one can do." Bless us O God! So that becoming valorous we may in Yajñās, which are scientific and in wars which are in accordance with righteousness, we may sing your glory-the Supreme Spirit! We should pray to you, listen about your teachings and meditate upon you. We should talk about Your sovereign imperial sway and welfare of mankind. By your grace we should always experience divine bliss.

    I bow to God Almighty again and again, who is the supreme ruler of the whole world.

    Here ends the first part of Aryabhivinaya written by Swami Dayānanda-diciple of Paramahansa, most learned Swami Virjānanda Saraswati.
     

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Again about the preachers stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O preacher ! like a singing bird while speaking, you always utter sweet, pleasant and beneficent words, when you sit for the practice of Yoga, and instruct us well about the wisdom. Like a flying bird, you speak to us like a man who acts matching his professions. We may also act accordingly and being good heroes impart good knowledge or speak about the Great God at the Yajnas or religious assemblies.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons bring about the welfare of all, whose precepts and professions are identical and who learn various sciences from others.

    Translator's Notes

    In the Aryabhivinaya, Rishi Dayananda has explained this mantra with God, taking शकुने for the Almighty. The meaning of other words is almost common in both the cases.

    Foot Notes

    (शकृने) शक्तिमत्पक्षिवद्वर्त्तंमान। = O preacher ! acting like a mighty bird, going from place to place for preaching truth. (चिकिद्धि) ज्ञापय। = Teach. (कर्करिः) भृशं कुर्वन। = Very active, and acting according to the teachings received from great scholars.

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    नेपाली (1)

    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    आवदंस्त्वं शकुने- हे शकुने जगदीश्वर ! तपाईं सम्पूर्ण भद्रम् = कल्याण का पनि कल्याण अर्थात् व्यावहारिक सुख भन्दा पनि माथि मोक्ष-सुख को उपदेश सबै जीव हरु लाई निरन्तर गर्नुहोस् । तूष्णीमासीनः हे अन्तर्यामिन् ! हजुर हाम्रा हृदय मा सदा स्थिर भइ मौन रूप ले नै सुमतिम् = सर्वोत्तम ज्ञान दिनुहोस् । चिकिद्धि नः= निज कृपा ले हामीलाई आफु बस्ने घर नै बनाउनु होस् र हजुर को परम विद्या लाई हामी प्राप्त गरौं । यदुत्पतन्- उत्तम व्यवहार मा पुयाउँदै तपाईंले यथा = जुनप्रकार ले कर्करिर्वदसि = कर्तव्य, कर्म र धर्म लाई नै अत्यन्त पुरुषार्थ पूर्वक पालन गर्नु र अकर्तव्य दुष्ट कर्म नगर्नु भन्ने उपदेश दिनुभएको छ । अर्थात् यथायोग्य उद्यम गर्न कहिल्यै न छोड्नु भन्ने दिव्य उपदेश गर्नुभएको छ । जस्तै बृहद्वम विदथे = विज्ञान आदि यज्ञमा वा धर्म युक्त युद्ध हरु मा सुवीराः = अत्यन्त शूरवीर भएर बृहत् = सबैभन्दा ठूलो हजुर जुन परब्रह्म हुनुहुन्छ तेस्ता तपाईंको वदेम= स्तुति गरौं तपाईंको बारे मा उपदेश गरौं, तपाईंको प्रार्थना र उपासना गरौं तथा तपाईंको यो विशाल, एवं अखण्ड साम्राज्य को बखान गरौं र सबै मानिस हरु लाई सर्वदा हित का कुरा भनौं, सुनौं र हजुरका अनुग्रह ले परमानन्द को भोग गरौं ॥५३॥ 

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