ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 1/ मन्त्र 19
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ नो॑ गहि स॒ख्येभिः॑ शि॒वेभि॑र्म॒हान्म॒हीभि॑रू॒तिभिः॑ सर॒ण्यन्। अ॒स्मे र॒यिं ब॑हु॒लं संत॑रुत्रं सु॒वाचं॑ भा॒गं य॒शसं॑ कृधी नः॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । ग॒हि॒ । स॒ख्येभिः॑ । शि॒वेभिः॑ । म॒हान् । म॒हीभिः॑ । ऊ॒तिऽभिः॑ । स॒र॒ण्यन् । अ॒स्मे इति॑ । र॒यिम् । ब॒हु॒लम् । सम्ऽत॑रुत्रम् । सु॒ऽवाच॑म् । भा॒गम् । य॒शस॑म् । कृ॒धि॒ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो गहि सख्येभिः शिवेभिर्महान्महीभिरूतिभिः सरण्यन्। अस्मे रयिं बहुलं संतरुत्रं सुवाचं भागं यशसं कृधी नः॥
स्वर रहित पद पाठआ। नः। गहि। सख्येभिः। शिवेभिः। महान्। महीभिः। ऊतिऽभिः। सरण्यन्। अस्मे इति। रयिम्। बहुलम्। सम्ऽतरुत्रम्। सुऽवाचम्। भागम्। यशसम्। कृधी। नः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 19
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे विद्वँस्त्वं शिवेभिः सख्येभिः सह नोऽस्मानागहि महीभिरूतिभिरस्मेऽस्मान् सरण्यन्महान् सन्तरुत्रं सुवाचं यशसं भागं बहुलं रयिम्प्राप्तान्नः कृधि ॥१९॥
पदार्थः
(आ) (नः) (अस्मान्) (गहि) प्राप्नुहि (सख्येभिः) सखिभिः कृतैः कर्म्मभिः (शिवेभिः) मङ्गलमयैः (महान्) (महीभिः) महतीभिः (ऊतिभिः) रक्षाभिः (सरण्यन्) प्राप्नुवन् (अस्मे) अस्मान् (रयिम्) श्रियम् (बहुलम्) पुष्कलम् (सन्तरुत्रम्) दुःखात् सम्यक्तारकम् (सुवाचम्) सुष्ठुवाग्निमित्तम् (भागम्) भजनीयम् (यशसम्) कीर्त्तिकारकम् (कृधि) कुरु। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नः) अस्मान् ॥१९॥
भावार्थः
यदि मनुष्यः सुमित्राणि प्राप्नुयात्तर्हि तं महती श्रीः कथं न प्राप्नुयात् ॥१९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे विद्वान् ! आप (शिवेभिः) मङ्गलमय (सख्येभिः) मित्रों के किये हुए कर्म्मों के साथ (नः) हम लोगों को (आ, गहि) प्राप्त हूजिये (महीभिः) बड़ी-बड़ी (ऊतिभिः) रक्षाओं से (अस्मे) हम लोगों को (सरण्यन्) प्राप्त होते हुए (महान्) बड़े सज्जन आप (सन्तरुत्रम्) दुःख से अच्छे प्रकार तारनेवाले (सुवाचम्) सुन्दर वाणी के निमित्त (यशसम्) कीर्ति करनेवाले (भगम्) सेवन करने योग्य (बहुलम्) बहुत प्रकार के (रयिम्) पुष्कल धन को प्राप्त (नः) हम लोगों को (कृधि) कीजिये ॥१९॥
भावार्थ
यदि मनुष्य सुन्दर मित्रों को प्राप्त हो, तो उसको बड़ी लक्ष्मी कैसे न प्राप्त हो ॥१९॥
विषय
प्रभु की मित्रता रक्षण तथा तरुत्र धन
पदार्थ
[१] हे महान् पूज्य (सरण्यन्) = निरन्तर गतिशील प्रभो! आप (शिवेभिः सख्येभिः) = कल्याणकर मित्रताओं के साथ तथा (महीभिः ऊतिभिः) = महनीय रक्षणों के साथ (नः) = हमें (आगहि) = प्राप्त होइये। आपकी मित्रता में हमारा सदा कल्याण ही कल्याण है तथा आपके रक्षण सदा महनीय हैं। आपका उपासन करते हुए हम इन्हें प्राप्त हों। [२] आप (अस्मे) = हमारे लिये (रयिम्) = धन को (कृधि) = करिये। जो धन [क] (बहुलम्) [बहून् लाति] = बहुत अर्थों को प्राप्त करानेवाला है- प्रचुर मात्रावाला है। [ख] (सन्तरुत्रम्) = हमें सब वासनाओं व उपद्रवों से तरानेवाला है। (न:) = हमारे लिये आप उस धन को करिये, जो कि [ग] (सुवाचम्) = उत्तम वाणीवाला है, जिसको प्राप्त करके हम अभिमानवश तेज वाणी नहीं बोलते। [घ] (भागम्) = जो धन संविभागपूर्वक बहुतों से सेवन करने योग्य है। जिसको हम अकेले ही नहीं खा जाते। [ङ] (यशसम्) = जो धन हमारे जीवन को यशस्वी बनाता है। जिस धन का हम यज्ञों में विनियोग करके यश प्राप्त करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हमें प्रभु की मित्रता व रक्षण प्राप्त हो । वह धन प्राप्त हो, जो आवश्यकताओं को पूर्ण करे और हमारे यश का भी कारण बने ।
विषय
राष्ट्र तेजस्वी राजा का वर्णन।
भावार्थ
हे विद्वन् ! राजन् ! प्रभो ! तू (नः) हमें (शिवेभिः) मङ्गलमय (सख्येभिः) मित्रताओं, सौहार्दों सहित (आगहि) प्राप्त हो। और तू (महान्) सबसे बड़ा (महीभिः) बड़ी पूजनीय (ऊतिभिः) ज्ञान और रक्षाओं से (सरण्यन्) प्राप्त होता हुआ (अस्मे) हमें (बहुलं) बहुतसा (सन्तरुत्रं) दुःखों से भली प्रकार तारने वाला (सुवाचं) उत्तम वाणी से युक्त (भागं) सेवने योग्य (नः) हमारा (यशसं) यश, कीर्त्तिजनक (रयिम्) ऐश्वर्य (कृधि) उत्पन्न कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गाथिनो विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ३, ४, ५, ९, ११,१२, १५, १७, १९, २० निचृत् त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १३, १४ त्रिष्टुप्। १०, २१ विराट् त्रिष्टुप्। २२ ज्योतिष्मती त्रिष्टुप्। ८, १६, २३ स्वराट् पङ्क्तिः। १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ त्रयोविंशत्यर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसाला चांगले मित्र मिळाल्यास लक्ष्मी का प्राप्त होणार नाही? ॥ १९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of knowledge and power, come to us with friendly acts of grace and benevolence. Lord of universal movement and freedom, mighty great, come with grand provisions of protection and promotion. Lead us to honour and success and render us our share of abundant wealth and power, mutual and ultimate peace and saving grace worthy of poetic celebration.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
More praise of wisdom and knowledge underlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened person ! came to us with friendly auspicious and mighty protections. You are great, approaching us bestow upon us ample riches. These take us across the difficulties, and lead us to highly desirable noble speech and good reputation.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If a man gets good friends, why should he not obtain wealth and beauty?
Foot Notes
(सन्तरुत्नम् ) दुःखात् सम्यक्तारकम् । = Taking across all difficulties. (भागम् ) भजनीयम् । = Desirable.
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