ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 2/ मन्त्र 14
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - अग्निर्वैश्वानरः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
शुचिं॒ न याम॑न्निषि॒रं स्व॒र्दृशं॑ के॒तुं दि॒वो रो॑चन॒स्थामु॑ष॒र्बुध॑म्। अ॒ग्निं मू॒र्धानं॑ दि॒वो अप्र॑तिष्कुतं॒ तमी॑महे॒ नम॑सा वा॒जिनं॑ बृ॒हत्॥
स्वर सहित पद पाठशुचि॑म् । न । याम॑न् । इ॒षि॒रम् । स्वः॒ऽदृश॑म् । के॒तुम् । दि॒वः । रो॒च॒न॒ऽस्थाम् । उ॒षः॒ऽबुध॑म् । अ॒ग्निम् । मू॒र्धान॑म् । दि॒वः । अप्र॑तिऽस्कुतम् । तम् । ई॒म॒हे॒ । नम॑सा । वा॒जिन॑म् । बृ॒हत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
शुचिं न यामन्निषिरं स्वर्दृशं केतुं दिवो रोचनस्थामुषर्बुधम्। अग्निं मूर्धानं दिवो अप्रतिष्कुतं तमीमहे नमसा वाजिनं बृहत्॥
स्वर रहित पद पाठशुचिम्। न। यामन्। इषिरम्। स्वःऽदृशम्। केतुम्। दिवः। रोचनऽस्थाम्। उषःऽबुधम्। अग्निम्। मूर्धानम्। दिवः। अप्रतिऽस्कुतम्। तम्। ईमहे। नमसा। वाजिनम्। बृहत्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 14
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या वयं विदुषां सकाशान्नमसा शुचिं न यामन्निषिरं स्वर्दृशं केतुं दिवो रोचनस्थामुषर्बुधं दिवो मूर्द्धानमप्रतिष्कुतं बृहद्वाजिनमग्निमीमहे तं तेभ्यो यूयमपि याचत ॥१४॥
पदार्थः
(शुचिम्) पवित्रं शुद्धिकारकम् (न) इव (यामन्) यान्ति गच्छन्ति यस्मिन्मार्गे (इषिरम्) एष्टव्यम् (स्वर्दृशम्) स्वः सुखं दृश्यते यस्मात्तम् (केतुम्) रूपादिप्रापकम् (दिवः) प्रकाशस्य (रोचनस्थाम्) रोचने प्रदीप्ते तिष्ठति तम् (उषर्बुधम्) य उषसि बोधयति तम् (अग्निम्) वह्निम् (मूर्द्धानम्) आकर्षणेन बद्धारम् (दिवः) दिव्याकाशस्य मध्ये (अप्रतिष्कुतम्) इतस्ततो लोकान्तरस्याभितो भ्रमणरहितम् (तम्) (ईमहे) (नमसा) सत्कारेण (वाजिनम्) बहुवेगवन्तम् (बृहत्) महान्तम्। अत्र सुपां सुलुगिति अमो लुक् ॥१४॥
भावार्थः
मनुष्यैराप्तेभ्यो विद्वद्भ्योऽग्न्यादिविद्याः प्राप्तव्याः । यो यस्माद्विद्यां जिघृक्षन्तं सततं सत्कुर्य्यात्। सूर्यः कस्यापि लोकस्य परिक्रमणं न करोति सर्वेभ्यो महांश्च ॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! हम लोग विद्वानों की उत्तेजना से (नमसा) सत्कार से जिस (शुचिम्) पवित्र और पवित्र करनेवाले के (न) समान (यामन्) जिसके गमन करते हैं उस मार्ग में (इषिरम्) इच्छा करने योग्य (स्वर्दृशम्) जिससे कि सुख दीखता है उस (केतुम्) रूपादिप्रापक (दिवः) प्रकाश के बीच (रोचनस्थाम्) उजाले में स्थित होने (उषर्बुधम्) प्रातःकाल बोध दिलाने और (दिवः) दिव्य आकाश के बीच (मूर्द्धानम्) खींचने से बाँधने (अप्रतिष्कुतम्) इधर-उधर से लोकान्तर के चारों ओर से भ्रमणरहित (बृहत्) महान् (वाजिनम्) बहुत वेगवाले (अग्निम्) अग्नि को (ईमहे) याचते हैं (तम्) उस अग्नि को उन हम लोगों से तुम भी चाहो वा माँगो ॥१४॥
भावार्थ
मनुष्यों को आप्त विद्वानों से अग्न्यादि विद्या प्राप्त करनी चाहिये, जो जिससे विद्या ग्रहण की इच्छा करे, वह उसका निरन्तर सत्कार करे, सूर्य किसी लोक का परिक्रमण नहीं करता और सबसे बड़ा भी है ॥१४॥
विषय
'शोधक' प्रभु
पदार्थ
[१] (यामन्) = हमारी जीवनयात्रा में (शुचिं न) = शोधक के समान जो प्रभु हैं। प्रभु वस्तुतः हमारे जीवन का शोधन करनेवाले हैं। प्रभुस्मरण हमें पाप से बचाता है। (इषिरम्) = वे प्रभु हमें सतत प्रेरणा देनेवाले हैं [इष प्रेरणे], (स्वर्दृशम्) = प्रकाश को दिखानेवाले हैं, (दिवः केतुम्) = ज्ञान के प्रज्ञापक हैं। प्रभु ही तो सृष्टि के प्रारम्भ में वेदज्ञान देते हैं। (रोचनस्थाम्) = दीप्त हृदय में स्थित होनेवाले हैं। मैं अपने हृदय को निर्मल करने का प्रयत्न करता हूँ-उस निर्मल हृदय में प्रभु को (आमन्त्रित) = करने का अधिकारी होता हूँ। (उषर्बुधम्) = वे प्रभु प्रातः हमारे में प्रबुद्ध होनेवाले हैं। उस समय का नाम ही 'ब्राह्ममुहूर्त' पड़ गया है। रात्रि की निद्रा से उस समय हम जागे हैं और अभी सांसारिक व्यवहारों का प्रारम्भ नहीं हुआ। इस प्रकार यह उषाकाल प्रभुस्मरण का सर्वोत्तम समय है। [२] (तम्) = उस (अग्निम्) = अग्रणी, (दिवः मूर्धानम्) = ज्ञान के शिखरभूत, अप्रतिष्कुतम् किसी से [अप्रतिष्कृतः अप्रस्खलितः नि० ६।१६] विचलित न किये जानेवाले, (वाजिनम्) = शक्तिशाली प्रभु को (नमसा) = नमन द्वारा (बृहत्) = अत्यन्त ही (ईमहे) = याचना करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- यह प्रभुस्मरण ही हमें पवित्र, प्रकाशमय व अस्खलित जीवनवाला बनायेगा ।
विषय
उसके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(शुचिं) स्वयं शुद्ध, तेजःस्वरूप, अन्यों को भी पवित्र करने वाले, (यामन्) जाने योग्य मार्ग में (इषिरम्) अति आवश्यक रूप से अपेक्षित, या सन्मार्ग में प्रेरणा करने हारे, दीपक के समान मार्ग दिखाने वाले, (स्वर्दृशं) सुखों को, या समस्त पदार्थों के विज्ञान को देखने वाले, (दिवः) प्रकाश का (केतुं) ज्ञान कराने वाले (रोचनस्थाम्) स्वयं प्रकाश में विद्यमान (उषर्बुधम्) प्रातः उषा काल में सूर्य और यज्ञाग्नि के समान स्वयं भोर में जागने और अन्यों को जगाने वाले, (दिवः मूर्धानम्) आकाश में मस्तकस्थ सूर्य के समान ज्ञान प्रकाश के बीच भी (मूर्धानम्) सब के शिरोदेश पर स्थित शिरोमणि, पूज्य, अग्रणी, (अप्रतिष्कुतम्) अन्य प्रतिद्वन्दी से कभी स्पर्द्धा में न पराजित होने वाले, अद्वितीय, (वाजिनम्) ज्ञान और ऐश्वर्य से युक्त (तम् ) उस (बृहत्) महान् पुरुष को हम लोग (नमसा) आदर सत्कार पूर्वक (ईमहे) प्राप्त हों और प्रार्थना करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्वैश्वानरो देवता॥ छन्दः–१, ३, १० जगती। २, ४, ६, ८, ९, ११ विराड् जगती। ५, ७, १२, १३, १४, १५ निचृज्जगती च ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी आप्त विद्वानांकडून अग्नी इत्यादी विद्या प्राप्त केली पाहिजे. जो ज्याच्याकडून जी विद्या ग्रहण करण्याची इच्छा करतो त्याने त्याचा निरंतर सत्कार केला पाहिजे. सूर्य कोणत्याही गोलाचे परिक्रमण करीत नाही. तो सर्वात मोठा आहे. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
We invoke, admire, worship and pray with homage and oblations to that Agni which is pure and purifying, vigorous and lovely, brilliant as light of the sun, banner of heaven, established in beauty, rising as the dawn, shining on top of heaven, irresistible and impetuous lord of majesty. We follow this lord as a torch bearer over untrodden paths of infinity to the Sublime and the Divine.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
More attributes of the fire are explained.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! we implore the learned scientists with reverence to teach us the nature and properties of the fire which is pure and purifier. It is sought for by all and is the cause of happiness and seeing beautiful forms. It is desirable in the path of righteousness. The dwellers in light, not moving around other worlds, awaken at the dawn (as it is kindled at dawn) which is the front of heaven. The great and speedy, you should also do likewise.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should acquire the knowledge of the fire and other elements from great scholars and scientists. Men should honor those from whom they received education. The sun does not revolve around the planets and is the greatest in its sun world.
Foot Notes
(इषिरम् ) एष्टव्यम् = Desirable. (केतुम् ) रूपादिप्रापकम्। = The conveyor of the beauty or form. (अप्रतिष्कुतम् ) इतस्ततो लोकान्तरस्याभितो भ्रमणरहितम्। = Not revolving around the worlds.
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