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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 9/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    तद्भ॒द्रं तव॑ दं॒सना॒ पाका॑य चिच्छदयति। त्वां यद॑ग्ने प॒शवः॑ स॒मास॑ते॒ समि॑द्धमपिशर्व॒रे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । भ॒द्रम् । तव॑ । दं॒सना॑ । पाका॑य । चि॒त् । छ॒द॒य॒ति॒ । त्वाम् । यत् । अ॒ग्ने॒ । प॒शवः॑ । स॒म्ऽआस॑ते । सम्ऽइ॑द्धम् । अ॒पि॒ऽश॒र्व॒रे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तद्भद्रं तव दंसना पाकाय चिच्छदयति। त्वां यदग्ने पशवः समासते समिद्धमपिशर्वरे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। भद्रम्। तव। दंसना। पाकाय। चित्। छदयति। त्वाम्। यत्। अग्ने। पशवः। सम्ऽआसते। सम्ऽइद्धम्। अपिऽशर्वरे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 9; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः कथं सर्वभयाद्रहिता भवन्तीत्याह।

    अन्वयः

    हे अग्ने ! यद्ये मनुष्या अपिशर्वरे समिद्धमग्निं पशवइव त्वां समासते तेषां पाकायाग्निश्चिदिव तद्भद्रं तव दंसना छदयति ॥७॥

    पदार्थः

    (तत्) प्रज्ञाजन्यं ज्ञानम् (भद्रम्) भन्दनीयम् कल्याणकारम् (तव) (दंसना) दंसनं दर्शनम्। अत्र विभक्तेराकारादेशः। (पाकाय) परिपक्वत्वाय (चित्) इव (छदयति) सत्करोति। छदयतीत्यर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४। (त्वाम्) (यत्) यतः (अग्ने) अग्निरिव प्रकाशात्मन् (पशवः) गवादयः (समासते) सम्यगुपविशन्ति (समिद्धम्) प्रदीप्तम् (अपिशर्वरे) निश्चिते रात्रावन्धकारे ॥७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यथाऽरण्येऽग्नेरभितः स्थिताः पशवः सिंहादिभ्यो रक्षिता भवन्ति तथैव विद्वज्ज्ञानाश्रयो मनुष्यान् सर्वतो भयात् रक्षति ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य कैसे सब भय से रहित होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वि ! (यत्) जो मनुष्य (अपिशर्वरे) निश्चित अन्धकाररूप रात्रि में भी (समिद्धम्) प्रज्वलित अग्नि के निकट जैसे (पशवः) गौ आदि पशु शीतनिवारणार्थ वैसे (त्वाम्) आपके निकट (समासते) बैठते हैं उनके (पाकाय) परिपक्व दृढ़ होने के लिये अग्नि के (चित्) तुल्य (तत्) उस (भद्रम्) कल्याणकारक बुद्धि से उत्पन्न ज्ञान को (तव) आपका (दंसना) दर्शन शास्त्र (छदयति) बढ़ाता है ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे वन में अग्नि के चारों ओर स्थित हुए पशु सिंह आदि से रक्षित होते हैं, वैसे ही विद्वानों के ज्ञान का आश्रय मनुष्यों की सब ओर के भय से रक्षा करता है ॥७॥

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    विषय

    भद्रम्

    पदार्थ

    [१] (तद् भद्रम्) = कल्याण व सुख यही है कि (तव दंसना) = तेरे कर्मों से, अर्थात् तेरे पुरुषार्थ के होने पर (पाकाय) = जीवन ठीक से परिपाक हो सकने के लिए (चित्) = निश्चय से (छदयति) = वे प्रभु तुझे धन से परिवृत करनेवाले होते हैं। प्रभु तुझे तेरे पुरुषार्थ के अनुपात में धन प्राप्त कराते हैं, जिससे कि तेरे जीवन का ठीक परिपाक हो सके। पुरुषार्थ से प्राप्त धन उन्नति का कारण बनता है, व्यर्थ में [बिना पुरुषार्थ के] मिला धन जीवन की व्यर्थता का कारण बनता है। [२] हे अग्ने प्रगतिशील जीव ! दूसरी भद्रता की बात यह है (यत्) = कि (त्वाम्) = तुझे (पशवः समासते) = गौ आदि पशु समीपता से प्राप्त होते हैं। गौ तेरा दाहिना हाथ होती है तो घोड़ा तेरा बांया हाथ होता है। ये पशु तेरे जीवन में 'ब्रह्म व क्षत्र' के विकास का कारण बनते हैं। [३] तीसरी बात यह है कि (शर्वरे अपि) = [darkness] चारों ओर अन्धकार होने पर भी (समिद्धम्) = तेरे अन्दर ज्ञानदीप्ति होती है। तेरा हृदय प्रकाशमय होता है। बाहर विषाद के होने पर भी तेरे अन्दर प्रसाद होता है, अर्थात् आपत्ति में भी तू घबराता नहीं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- कल्याण की बात यही है कि (क) जीवनपरिपाक के लिये पुरुषार्थ से पर्याप्त धन की प्राप्ति हो, (ख) गौ आदि पशुओं की कमी न हो, (ग) आपत्तियों में अव्याकुल भाव से हम रह सकें।

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    विषय

    अन्धकार में दीपवत् विद्वान्।

    भावार्थ

    (यत्) जिस प्रकार (पशवः अपिशर्वरे समिद्धम्) रात्रि के अन्धकार में प्रदीप्त अग्नि के समीप ही समस्त गवादि पशु और मनुष्यादि आश्रय पाते हैं । उसी प्रकार हे (अग्ने) तेजस्विन् ! ज्ञानवन् ! (यत्) जब (अपिशर्वरे) रात्रि के समान घोर अज्ञानान्धकार के काल में और चारों ओर से हिंसाकारी शस्त्रादि के द्वारा प्रवृत्त संग्राम काल में (पशवः) सब मनुष्य पशुओं के समान अज्ञानी और अधीनता स्वीकार करने वाले या तुझको ही तेजस्वी देखने वाले (समिद्धम्) खूब ज्ञान-प्रकाश से प्रकाशित और खूब तेजस्वी (त्वाम्) तुझको ही (सम्-आसते) आश्रय लेते हैं। (तव) तेरा (तद्) वह (भद्रम्) कल्याण और सुखजनक (दंसना) उत्तम कर्म और ज्ञान दर्शन ही (पाकाय) परिपाक के लिये अग्नि के तेज के समान अपने ज्ञान-अनुभव और बल वीर्य को परिपक्व करने के लिये या उत्तम उपदेश देने के लिये (चित्) ही (छदयति) उनको आप वस्त्रों और कवचों से आच्छादित, सत्कृत, सुशोभित या अलंकृत करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥अग्निदेवता॥ छन्दः- १, ४ बृहती। २, ५, ६, ७ निचृद् बृहती। ३, ८ विराड् बृहती। ९ स्वराट् पङ्क्ति॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसे वनात अग्नीच्या चारी बाजूंनी स्थित असलेले पशु सिंह इत्यादीपासून रक्षित असतात, तसेच विद्वानाच्या ज्ञानाचा आश्रय माणसांना सर्व प्रकारे भयापासून रक्षण करतो. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    That is your holy action, precious gift, O power of fire, which gratifies and advances humanity to maturity and the good life, and as even the animals in winter nights come and sit round the burning fire for relief from the cold, so do humans, O brilliant and fiery scholar, come to you and receive the light of knowledge and warmth of life against the cold and dark winter nights of ignorance.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The path of fearlessness is indicated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As animals come near the fire in the darkness of night (to seek warmth), so O enlightened person ! those who come to you, their sharp intellect born out of their auspicious knowledge grows at your very sight, when the fire ripens.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! as in the forest animals sitting around the fire become safe from the lions and other ferocious and cruel creatures, in the same manner, the support of the good knowledge received from the enlightened persons protects the men from all sides.

    Foot Notes

    (दंसना) दंशनं दर्शनम् | अन विभक्तेराकारादेशः = Sight. (छदयति) सत्करोति। छदयतित्यर्चतिकर्मा। (N.G. 3/14) = Honors or increases. (अपिशवंरे) निश्चिते रात्रावन्धकारे । = In the darkness of the night.

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