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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 11/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    भ॒द्रं ते॑ अग्ने सहसि॒न्ननी॑कमुपा॒क आ रो॑चते॒ सूर्य॑स्य। रुश॑द्दृ॒शे द॑दृशे नक्त॒या चि॒दरू॑क्षितं दृ॒श आ रू॒पे अन्न॑म् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भ॒द्रम् । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । स॒ह॒सि॒न् । अनी॑कम् । उ॒पा॒के । आ । रो॒च॒ते॒ । सूर्य॑स्य । रुश॑त् । दृ॒शे । द॒दृ॒शे॒ । न॒क्त॒ऽया । चि॒त् । अरू॑क्षितम् । दृ॒शे । आ । रू॒पे । अन्न॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भद्रं ते अग्ने सहसिन्ननीकमुपाक आ रोचते सूर्यस्य। रुशद्दृशे ददृशे नक्तया चिदरूक्षितं दृश आ रूपे अन्नम् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भद्रम्। ते। अग्ने। सहसिन्। अनीकम्। उपाके। आ। रोचते। सूर्यस्य। रुशत्। दृशे। ददृशे। नक्तऽया। चित्। अरूक्षितम्। दृशे। आ। रूपे। अन्नम् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाग्निसादृश्येन राजगुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे सहसिन्नग्ने ! यस्य त उपाके भद्रं रुशदनीकं सूर्य्यस्य किरणा इवारोचते नक्तया रात्र्या सहितश्चन्द्र इव ददृशे चिदपि सुखं दृशेऽरूक्षितमन्नं दृशे रूप आ रोचते तस्य तव सर्वत्र विजय इति निश्चयः ॥१॥

    पदार्थः

    (भद्रम्) कल्याणकरम् (ते) तव (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान (सहसिन्) बहुबलयुक्त (अनीकम्) सैन्यम् (उपाके) समीपे (आ) (रोचते) प्रकाशते (सूर्य्यस्य) (रुशत्) सुरूपम् (दृशे) द्रष्टुम् (ददृशे) दृश्यते (नक्तया) रात्र्या (चित्) अपि (अरूक्षितम्) रूक्षतारहितम् (दृशे) द्रष्टव्ये (आ) (रूपे) (अन्नम्) अत्तव्यम् ॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो राजा सुशिक्षितया सेनया शुभैर्गुणैरैश्वर्य्येण च सहितः प्रजाः पालयति दुष्टान् दण्डयति स चन्द्रवत्सूर्य्य इव सर्वत्र प्रकाशितो भवति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब अग्नि की सदृशता से राजगुणों को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सहसिन्) बहुत बल से युक्त (अग्ने) अग्नि के सदृश वर्त्तमान ! जिन (ते) आपके (उपाके) समीप में (भद्रम्) कल्याणकारक (रुशत्) उत्तम स्वरूपयुक्त (अनीकम्) सेना (सूर्यस्य) सूर्य के किरणों के सदृश (आ, रोचते) प्रकाशित होती है और (नक्तया) रात्रि के सहित चन्द्रमा के सदृश (ददृशे) दीखती (चित्) और सुख (दृशे) देखने के (अरूक्षितम्) रुखेपन से रहित (अन्नम्) भोजन करने योग्य पदार्थ (दृशे) देखने के योग्य (रूपे) रूप में (आ) प्रकाशित होता है, उन आप का सर्वत्र विजय हो, यह निश्चय है ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा उत्तम प्रकार शिक्षित सेना तथा उत्तम गुणों और ऐश्वर्य के सहित प्रजाओं का पालन करता और दुष्टों को पीड़ा देता है, वह चन्द्र और सूर्य के सदृश सर्वत्र प्रकाशित होता है ॥१॥

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    विषय

    भद्रं 'अनीकम्'

    पदार्थ

    [१] हे (सहसिन्) = बलवन् ! (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (ते अनीकम्) = आपका तेज (भद्रम्) = कल्याणकर है। (सूर्यस्य उपाके) = सूर्य की समीपता में (आ रोचते) = आपका ही तेज चमकता है, अर्थात् आपके तेज से ही दीप्त होकर यह सूर्य चारों ओर प्रकाश कर रहा है। [२] सूर्य दिन में ही प्रकाश करता है, पर [क] आपका (रुशत्) = चमकीला (दृशे) = दर्शनीय यह तेज (नक्तया चित्) = रात्रि में भी (ददृशे) = प्रकाश को करनेवाला होता है । [ख] (अरूक्षितम्) = आपका यह तेज रूक्ष नहीं । अन्य तेज स्निग्धता को नष्ट करके रूक्षता को पैदा करते हैं। आपका यह तेज अरूक्षित व स्निग्ध है, स्निग्धता का यह तेज वर्धन करनेवाला है। [२] (दृशे) = यह दर्शनीय तेज (आरूपे) = समन्तात् रूप के निमित्त शोभा के निमित्त (अन्नम्) = अन्न होता है। जैसे अन्न से शरीर रूपवान् होता है, स्वाध्याय से मस्तिष्क श्री सम्पन्न बनता है, उसी प्रकार उपासना से वह दर्शनीय तेज प्राप्त होता है जो कि हृदय को उत्तम रूपवाला [= श्री सम्पन्न] बना देता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उपासना के द्वारा हम प्रभु के उस तेज को प्राप्त करते हैं जो कि हमें सदा प्रकाशमय स्निग्ध व श्री सम्पन्न बनाता है ।

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    विषय

    विद्वान् नायक को तेजस्वी होने का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्विन् ! अग्रणी नायक ! हे (सहसिन्) बलवन् ! (ते) तेरा (भद्रं) कल्याणकारी, अन्यों को सुख देने वाला, (रुशत्) कान्तियुक्त (अनीकम्) मुख और तेज (उपाके) समीप में (सूर्यस्य रुशत् अनीकम् इव) सूर्य के चमचमाते तेज के समान (नक्तया चित्) रात्रि के समय में भी (दृशे) सत्यासत्य दर्शाने के लिये (आ रोचते) सर्वत्र प्रकाशित हो और सबको (ददृशे) दीखे । वह तेरा तेज, मुख वा स्वरूप (अरूक्षितम् अन्नम्) स्निग्ध घृतादि से युक्त अन्न के तुल्य (दृश) देखने और (रूपे) निरूपण करने में भी (आ रोचते) सब प्रकार से चमके । सबको भला लगे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता । छन्दः–१, २, ५, ६ निचृत्रिष्टुप्। ३ स्वराडबृहती । ४ भुरिक् पंक्तिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नी, राजा, विद्वान पुरुषाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो राजा प्रशिक्षित सेना, उत्तम गुण व ऐश्वर्यासहित प्रजेचे पालन करतो व दुष्टांना त्रास देतो तो चंद्र व सूर्याप्रमाणे सर्वत्र प्रकाशित होतो. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, mighty presiding power of the world, holy and blissful is your splendour at the dawn of sunrise as it shines in majesty, and while it shines, it is seen by night also, as glorious to the sight as by day. And in that bright and blissful form of beauty and majesty I see delicious food for life and energy for mind and soul.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a king are stated on the analogy of the Agni.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O mighty king ! like the purifying fire, your victory is assured everywhere. Under your guidance the beneficent and beautiful army shines like the rays of the sun. It is like the moon in the night or like the juicy meals of a powerful person in the presentable form.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That king who guards his subjects with well-trained army, with noble virtues and good wealth and punishes the wicked, he shines everywhere like the moon in the night.

    Foot Notes

    (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान | = O king, who are like the purifying fire. ( सहसिन् ) बहुबलयुक्त | सह इति वलनाम ( NG 2, 9) Very powerful. (उपाके) समीपे = Near.

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