ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
त्वं म॒हाँ इ॑न्द्र॒ तुभ्यं॑ ह॒ क्षा अनु॑ क्ष॒त्रं मं॒हना॑ मन्यत॒ द्यौः। त्वं वृ॒त्रं शव॑सा जघ॒न्वान्त्सृ॒जः सिन्धूँ॒रहि॑ना जग्रसा॒नान् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । म॒हान् । इ॒न्द्र॒ । तुभ्य॑म् । ह॒ । क्षाः । अनु॑ । क्ष॒त्रम् । मं॒हना॑ । म॒न्य॒त॒ । द्यौः । त्वम् । वृ॒त्रम् । शव॑सा । ज॒घ॒न्वान् । सृ॒जः । सिन्धू॑न् । अहि॑ना । ज॒ग्र॒सा॒नान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं महाँ इन्द्र तुभ्यं ह क्षा अनु क्षत्रं मंहना मन्यत द्यौः। त्वं वृत्रं शवसा जघन्वान्त्सृजः सिन्धूँरहिना जग्रसानान् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। महान्। इन्द्र। तुभ्यम्। ह। क्षाः। अनु। क्षत्रम्। मंहना। मन्यत। द्यौः। त्वम्। वृत्रम्। शवसा। जघन्वान्। सृजः। सिन्धून्। अहिना। जग्रसानान् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रपदवाच्यराजगुणानाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! यस्त्वं महान् क्षाः क्षत्रं मंहना द्यौरिवानुमन्यत तस्मै ह तुभ्यं वयमपि मन्यामहे यथा वृत्रं जघन्वान् सूर्य्योऽहिना सिन्धून् [सृजः] सृजति तथा त्वं शवसा जग्रसानान् सृजः ॥१॥
पदार्थः
(त्वम्) महान् (इन्द्र) विद्यैश्वर्यसम्पन्न राजन् ! (तुभ्यम्) (ह) खलु (क्षाः) भूमयः। क्षेति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (अनु) (क्षत्रम्) राज्यम् (मंहना) महती (मन्यत) मन्यसे (द्यौः) सूर्य्य इव (त्वम्) (वृत्रम्) मेघवद्वर्त्तमानं शत्रुम् (शवसा) बलेन (जघन्वान्) (सृजः) सृज (सिन्धून्) नदीः (अहिना) मेघेनेव धनेन (जग्रसानान्) शत्रुसेनाग्रसमानान् ॥१॥
भावार्थः
हे राजजना ! यथा महान् सूर्य्यो वृष्ट्या नदीः प्रीणाति तथैव धनैश्वर्य्येण राज्यमलङ्कुर्वन्तु राजाऽऽज्ञयाऽनुवर्त्य महद्राज्यं सम्पादयन्तु ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब इक्कीस ऋचावाले सत्रहवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्रपदवाच्य राजगुणों का वर्णन करते हैं ॥१॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य्य से युक्त राजन् ! जो (त्वम्) आप (महान्) बड़े (क्षाः) भूमियों और (क्षत्रम्) राज्य को (मंहना) महान् जैसे (द्यौः) सूर्य्य वैसे (अनु, मन्यत) मानते हो (ह) उन्हीं (तुभ्यम्) आपके लिये हम लोग भी मानते और जैसे (वृत्रम्) मेघ के सदृश वर्त्तमान शत्रु को (जघन्वान्) नाश करनेवाला (अहिना) मेघ के सदृश बड़े हुए धन से (सिन्धून्) नदियों को (सृजः) उत्पन्न करावे उसी प्रकार (त्वम्) आप (शवसा) बल से (जग्रसानान्) शत्रुसेना के अग्रणियों के समान उत्तम जनों को उत्पन्न कराओ ॥१॥
भावार्थ
हे राजसम्बन्धी जनो ! जैसे बड़ा सूर्य वृष्टि से नदियों को पूर्ण करता है, वैसे ही धन और ऐश्वर्य्य से राज्य को शोभित करो। राजा की आज्ञा के अनुकूल वर्त्ताव करके बड़े राज्य को सम्पादन करो ॥१॥
विषय
वासना विनाश व ज्ञान प्रवाह
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (तुभ्यम्) = आपके लिए (ह) = निश्चय से (क्षा:) = पृथिवी (मंहना) = नानाविध पदार्थों के दान द्वारा (क्षेत्रम्) = आपके बल को (अनु मन्यत) = अनुमत करती है। पृथिवी से प्राप्त इन सब पदार्थों में परमात्मा की ही विभूति दृष्टिगोचर होती है। इसी प्रकार (द्यौः) = द्युलोक आपके बल को अनुमत करता है। [२] हे प्रभो ! (त्वम्) = आप ही (शवसा) = शक्ति द्वारा (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को (जघन्वान्) = नष्ट करते हैं। इस (अहिना) =[आहन्ति] हमारा हनन करनेवाली वासना से (जग्रसानान्) = निगले जाते हुए विनष्ट किये जाते हुए, (सिन्धून्) = ज्ञानप्रवाहों को (सृजः) = आप उत्पन्न करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- द्युलोक व पृथिवी लोक के सब पदार्थों में प्रभु की महिमा दृष्टिगोचर होती है। प्रभु हमारी वासना को विनष्ट करते हैं और हमारे ज्ञान प्रवाहों को उत्पन्न करते हैं ।
विषय
शत्रुहन्ता इन्द्र
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे शत्रुहन्तः ! (त्वं) तू (महान्) गुणों और शक्तियों में महान्, पूजनीय है । (क्षाः) भूमिएं और भूमि निवासी प्रजाएं और (द्यौः) ज्ञान प्रकाश से युक्त विद्वान्जन (मंहना) महान् होकर (तुभ्यं क्षत्रं) तुझे ही बल, वीर्य, राज्य को (अनु मन्यत) प्राप्त करने की अनुमति दें, तेरे राज्य को चाहें । सूर्य वा वायु जिस प्रकार (शवसा) बलपूर्वक तेज से (वृत्रं जघन्वान्) मेघ को प्रहार करता है, उसी प्रकार तू (शवसा) सैन्य बल से (वृत्रं) अपने बढ़ते शत्रु को (जघन्वान्) नाश करने हारा हो । और (अहिना) मेघ या सूर्य द्वारा (जग्रसानान्) किरणों द्वारा ग्रस्त हुई (सिन्धून्) बहने वाली जल-धाराओं को विद्युत् जिस प्रकार (सृजः) उत्पन्न करता है उसी प्रकार (अहिना) आक्रमणकारी शत्रु द्वारा (जग्रसानान्) वशीकृत (सिन्धून्) वेग युक्त सेनाओं को (सृजः) भगा देते हो अथवा (अहि ग्रसमानान्) आगे बढ़ते बल वा धन बल से शत्रु सेनाओं को ग्रसती हुई स्व सेनाओं को सञ्चालित कर, वा ऐश्वर्य या मेघादि द्वारा अन्नादि प्राप्त करती हुईं प्रजाओं को (सृजः) सन्मार्ग में चला ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ पंक्तिः । ७,९ भुरिक पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः। १५ याजुषी पंक्तिः । निचृत्पंक्तिः । २, १२, १३, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । ४, २० , । विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात इंद्र, राजा, प्रजा व सेवक यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे राजपुरुषांनो! जसा प्रचंड सूर्य वृष्टीने नद्यांना पूर्ण करतो तसेच धन व ऐश्वर्याने राज्य शोभित करा. राजाज्ञेप्रमाणे वागून मोठ्या राज्याचे संपादन करा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord ruler of the world, you are great and glorious. The earths do homage to your divine order as do the heavens. By virtue of your glory alone are the earths and heavens reverenced as great. By your power and prowess you break the cloud and release the floods of water locked up and devoured by the dark and deep of the clouds.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a king (Indra) are denoted and told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (king endowed with knowledge and prosperity)! you are great. You regard the land and kingdom like the great sun and make it mighty. We also have great regard for you. The sun destroys the clouds and fills rivers with the rain waters, likewise you destroy your enemies, and with the wealth and strength make your people surpassing the best among the army of the enemies.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O the rulers and officers of the State ! as the great sun fills rivers with rain waters, in the same way you should adorn the State with wealth and prosperity. Complying to the commands of the king, makes the State great in every way.
Foot Notes
(क्षा:) भूमयः । क्षेति पृथिवीनाम = Earth, land. (वृत्रम्) मेघवद वर्त्तमानं शत्रूम् । वृत्त इति मेधनाम (NG 1, 10) = Cloud like enemy. (अहिना ) मेघेनेव धनेन । अहिरिति मेघनाथ (NG 1, 10) = With wealth like the cloud. (जग्रसानान् ) शत्रुसेनाग्रसमानान् । = Like the top men of the enemy's army.
हिंगलिश (1)
Word Meaning
राजा को विद्या और ऐश्वर्य से युक्त विस्तृत भूमि नदियों के जल सौर ऊर्जा की सहायता और सब रुकावटों दुष्ट जनों को दूर करके उग्रता से कर्मवीरों के प्रोत्साहन द्वारा उत्तम समाज का निर्माण करना चाहिये
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