ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 21/ मन्त्र 10
ए॒वा वस्व॒ इन्द्रः॑ स॒त्यः स॒म्राड्ढन्ता॑ वृ॒त्रं वरि॑वः पू॒रवे॑ कः। पुरु॑ष्टुत॒ क्रत्वा॑ नः शग्धि रा॒यो भ॑क्षी॒य तेऽव॑सो॒ दैव्य॑स्य ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । वस्वः॑ । इन्द्रः॑ । स॒त्यः । स॒म्ऽराट् । हन्ता॑ । वृ॒त्रम् । वरि॑वः । पू॒रवे॑ । क॒रिति॑ कः । पुरु॑ऽस्तुत । क्रत्वा॑ । नः॒ । श॒ग्धि॒ । रा॒यः । भ॒क्षी॒य । ते । अव॑सः । दैव्य॑स्य ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा वस्व इन्द्रः सत्यः सम्राड्ढन्ता वृत्रं वरिवः पूरवे कः। पुरुष्टुत क्रत्वा नः शग्धि रायो भक्षीय तेऽवसो दैव्यस्य ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठएव। वस्वः। इन्द्रः। सत्यः। सम्ऽराट्। हन्ता। वृत्रम्। वरिवः। पूरवे। करिति कः। पुरुऽस्तुत। क्रत्वा। नः। शग्धि। रायः। भक्षीय। ते। अवसः। दैव्यस्य ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 21; मन्त्र » 10
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे पुरुष्टुत ! यः सत्य इन्द्रस्त्वं सूर्य्यो वृत्रमिव शत्रून् हन्तैवा सम्राट् पूरवे वस्वो वरिवः कः यस्त्वं क्रत्वा नो रायः शग्धि तस्यैव ते दैव्यस्याऽवसः सकाशाद्रक्षितोऽहं धनानि भक्षीय ॥१०॥
पदार्थः
(एवा) निश्चये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (वस्वः) धनस्य (इन्द्रः) ऐश्वर्य्यप्रदाता (सत्यः) सत्सु पुरुषेषु साधुः (सम्राट्) सार्वभौमो राजा (हन्ता) (वृत्रम्) मेघमिव शत्रुम् (वरिवः) सेवनम् (पूरवे) धार्मिकाय मनुष्याय। पूरव इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (कः) कुर्य्याः (पुरुष्टुत) बहुभिः प्रशंसित (क्रत्वा) श्रेष्ठया प्रज्ञयोत्तमेन कर्म्मणा वा (नः) अस्मान् (शग्धि) देहि (रायः) धनानि (भक्षीय) सेवेय भुञ्जीय वा (ते) तव (अवसः) रक्षणस्य (दैव्यस्य) दिव्यसुखप्रापकस्य ॥१०॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यः सूर्य्यवत् प्रकाशितन्यायोऽभयदाता सर्वथा सर्वस्य रक्षको नरो भवेत् स एव चक्रवर्त्ती भवितुमर्हति ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (पुरुष्टुत) बहुतों से प्रशंसित ! जो (सत्यः) श्रेष्ठ पुरुषों में श्रेष्ठ (इन्द्रः) ऐश्वर्य्य के देनेवाले आप सूर्य (वृत्रम्) मेघ को जैसे वैसे शत्रुओं को (हन्ता, एवा) नाश करनेवाले ही (सम्राट्) सम्पूर्ण भूमि के राजा (पूरवे) धार्मिक मनुष्य के लिये (वस्वः) धन का (वरिवः) सेवन (कः) करें और जो आप (क्रत्वा) श्रेष्ठ बुद्धि वा उत्तम कर्म्म से (नः) हम लोगों के लिये (रायः) धनों को (शग्धि) देवें उन्हीं (ते) आपके (दैव्यस्य) श्रेष्ठ सुख प्राप्त करानेवाले (अवसः) रक्षण की उत्तेजना से रक्षित मैं धनों का (भक्षीय) सेवन वा भोग करूँ ॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सूर्य के सदृश प्रकाशित, न्याययुक्त, अभय का देनेवाला और सब प्रकार से सब का रक्षक नायक होवे, वही चक्रवर्त्ती होने के योग्य होता है ॥१०॥
विषय
दिव्यरक्षण की प्राप्ति
पदार्थ
[१] (एवा) = इस प्रकार (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (वस्वः) = सब वसुओं के (सम्राट्) = सम्राट् हैं। (सत्यः) = सत्यस्वरूप हैं । (वृत्रं हन्ता) = उपासक की वासना को विनष्ट करनेवाले हैं। (पूरवे) = अपना पालन व पूरण करनेवाले के लिए (वरिवः) = सब वरणीय धनों को (कः) = करनेवाले हैं। [२] हे (पुरुष्टुत) = जिन आपकी स्तुति पालन व पूरण करनेवाली है, वे आप (न:) = हमारे लिए (क्रत्वा) = [क्रतुना] यज्ञों के हेतु से (रायः शग्धि) = धनों को दीजिए। (ते) = आपके (दैव्यस्य) = अलौकिक सब सूर्य, चन्द्र, तारे आदि देवों से प्राप्त होनेवाले (अवसः) = रक्षण का भक्षीय मैं सेवन करनेवाला बनूँ। आपके दिव्यरक्षण का पात्र बनूँ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही सब ऐश्वर्यों के स्वामी हैं। वे हमें यज्ञों के लिए धनों को प्राप्त कराते हैं। प्रभु ही हमारी वासनाओं को विनष्ट करते हैं और हमें दिव्यरक्षण प्राप्त कराते हैं।
विषय
राजा कर्मानुसार वेतन दे ।
भावार्थ
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता, राजा (सत्यः) सज्जनों के बीच सज्जन, न्यायशील, सत्यधर्म का पालक, (वस्वः) ऐश्वर्य और राष्ट्र में बसी प्रजा का (सम्राट्) महाराजाधिराज, (वृत्रं हन्ता) मेघनाशक विद्युत् के तुल्य विघ्नकारी दुष्ट पुरुष को दण्डित करने वाला होकर (पूरवे) अपने ऐश्वर्य को पूर्ण करने और अपने बनाये राजनियमों को पालने वाले प्रजाजन की वृद्धि के लिये (वरिवः कः) नाना ऐश्वर्य उत्पन्न करे । हे (पुरुस्तुत) बहुतों से प्रशंसित उत्तम राजन् ! (नः) हमें (क्रवा) हमारे काम और ज्ञान, योग्यता वा कर्म कौशल के अनुसार (रायः) धन या देने योग्य वेतनें (शग्धि) प्रदान कर । मैं प्रजाजन (ते) तुझ (दैव्यस्य) दानशील पुरुष के (अवसा) रक्षा और उत्तम व्यवहार का (भक्षीय) उपभोग करूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, २, ७, १० भुरिक् पंक्तिः । ३ स्वराड् पंक्तिः । ११ निचृत् पंक्तिः । ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप । ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो सूर्याप्रमाणे प्रकाशदाता, न्यायी, अभयदाता व सर्वप्रकारे सर्वांचा रक्षक नायक असेल, तर तोच चक्रवर्ती (राजा) होण्यायोग्य आहे. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Thus does Indra, ruler of the world, brilliant and ever true, destroyer of the demons of darkness and enmity, give us abundant wealth for the devotee. O lord praised and universally celebrated, give us the wealth of the world by virtue of noble and creative actions. Pray give us the privilege of your divine protection so that we may enjoy the gift of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of state officials are outlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! praised by many, you slay your enemies, as the sun smashes the cloud. You are sovereign. You serve a righteous man. You grant riches sublimely and wisely. May I make proper use of the wealth, safe under your divine protective wings?
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
He alone can be a sovereign, whose justice is manifest like the sun, who provides fearlessness and protects all.
Foot Notes
(पूरवे) धार्मिकाय मनुष्याय । पूरव इति मनुष्यनाम (NG 2, 3) = For a righteous man. (वरिवः) सेवनम् । अत्र धनादि द्वारा सेवनम् इत्यमिप्रायः । = Use money etc.
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