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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ वो॒ राजा॑नमध्व॒रस्य॑ रु॒द्रं होता॑रं सत्य॒यजं॒ रोद॑स्योः। अ॒ग्निं पु॒रा त॑नयि॒त्नोर॒चित्ता॒द्धिर॑ण्यरूप॒मव॑से कृणुध्वम् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वः॒ । राजा॑नम् । अ॒ध्व॒रस्य॑ । रु॒द्रम् । होता॑रम् । स॒त्य॒ऽयज॒म् । रोद॑स्योः । अ॒ग्निम् । पु॒रा । त॒न॒यि॒त्नोः । अ॒चित्ता॑त् । हिर॑ण्यऽरूपम् । अव॑से । कृ॒णु॒ध्व॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वो राजानमध्वरस्य रुद्रं होतारं सत्ययजं रोदस्योः। अग्निं पुरा तनयित्नोरचित्ताद्धिरण्यरूपमवसे कृणुध्वम् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। वः। राजानम्। अध्वरस्य। रुद्रम्। होतारम्। सत्यऽयजम्। रोदस्योः। अग्निम्। पुरा। तनयित्नोः। अचित्तात्। हिरण्यऽरूपम्। अवसे। कृणुध्वम्॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सूर्य्यरूपाग्निदृष्टान्तेन राजप्रजाजनकृत्यमाह ॥

    अन्वयः

    हे आप्ता विद्वांसो ! यथा वयं वोऽध्वरस्यावसे होतारं सत्ययजं रुद्रमचित्तात् तनयित्नोर्हिरण्यरूपं रोदस्योरग्निमिव राजानं पुरा कुर्याम तथाभूतमस्माकं नृपं यूयमाकृणुध्वम् ॥१॥

    पदार्थः

    (आ) (वः) युष्माकम् (राजानम्) प्रकाशमानम् (अध्वरस्य) अहिंसनीयस्य राज्यस्य (रुद्रम्) दुष्टानां रोदयितारम् (होतारम्) दातारम् (सत्ययजम्) यः सत्यमेव यजति सङ्गच्छते तम् (रोदस्योः) द्यावापृथिव्योर्मध्ये (अग्निम्) सूर्य्यमिव वर्त्तमानम् (पुरा) पुरस्तात् (तनयित्नोः) विद्युतः (अचित्तात्) अविद्यमानं चित्तं यत्र तस्मात् (हिरण्यरूपम्) हिरण्यस्य तेजसो रूपमिव रूपं यस्य तम् (अवसे) धर्मात्मनां रक्षणाय दुष्टानां हिंसनाय (कृणुध्वम्) ॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! राजप्रजाजनैरेकसम्मतिं कृत्वा यथेश्वरेण ब्रह्माण्डस्य मध्ये सूर्य्यं स्थापयित्वा सर्वस्य प्रियं साधितं तथाभूतं राजानमस्माकं मध्ये शुभगुणकर्मस्वभावाऽन्वितं नृपं कृत्वाऽस्माकं हितं यूयं साधयत यतो युष्माकमपि प्रियं सिध्येत् ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सोलह ऋचावाले तीसरे सूक्त का वर्णन है उसके प्रथम मन्त्र में सूर्य्यरूप अग्नि के दृष्टान्त से राज प्रजाजनों के कृत्य का वर्णन करते हैं ॥

    पदार्थ

    हे यथार्थवक्ता विद्वानो ! जैसे हम लोग (वः) आपके (अध्वरस्य) न नष्ट करने योग्य राज्य के (अवसे) धर्मात्माओं की रक्षा और दुष्टों के नाश करने के लिये (होतारम्) देने (सत्ययजम्) सत्य ही को प्राप्त होने और (रुद्रम्) दुष्टों के रुलानेवाले (अचित्तात्) जिसमें चित्त नहीं स्थिर होता, ऐसी (तनयित्नोः) बिजुली के (हिरण्यरूपम्) तेजरूप के समान रूपवाले वा (रोदस्योः) अन्तरिक्ष और पृथिवी के मध्य में (अग्निम्) सूर्य्य के सदृश (राजानम्) प्रकाशमान न्याय (पुरा) प्रथम करें, वैसा हम लोगों के बीच राजा आप लोग (आ, कृणुध्वम्) सब प्रकार करें ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वान् लोगो ! राजा और प्रजाजनों के साथ एक सम्मति करके जैसे ईश्वर ने ब्रह्माण्ड के मध्य में सूर्य्य को स्थित करके सब का प्रियसुख साधन किया, वैसे ही हम लोगों के मध्य में उत्तम गुण, कर्म और स्वभावयुक्त को राजा करके हम लोगों के हित को आप लोग सिद्ध करो, जिससे आप लोगों का भी प्रिय सिद्ध होवे ॥१॥

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    विषय

    [१] (वः) = तुम्हारे (अध्वरस्य) = इस जीवन-यज्ञ के (राजानम्) = दीप्त करनेवाले (रुद्रम्) = [रुत् द्रावयति] सब कष्टों का निवारण करनेवाले प्रभु को (अवसे) = रक्षा के लिये (आकृणुध्वम्) = अपने हृदयों में उपासित करो। उस प्रभु को, जो कि (होतारम्) = सब आवश्यक पदार्थों के देनेवाले हैं। जो (रोदस्योः) = द्यावापृथिवी के साथ (सत्य यजम्) = सत्य का मेल करनेवाले हैं, अर्थात् जो प्रभु मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञान को तथा शरीररूप पृथिवी में दृढ़ता को स्थापित करनेवाले हैं। (अग्निम्) = जो निरन्तर उन्नति-पथ पर ले चलनेवाले हैं तथा (हिरण्यरूपम्) = ज्योतिर्मय रूपवाले हैं। [२] इस प्रभु का स्मरण (तनयित्नो:) = आकस्मिक पतनवाली अशनि [विद्युत्] के समान न जाने कब आ जानेवाली (अचित्तात्) = अचेतना, अर्थात् मृत्यु से (पुरा) = पहले ही उस प्रभु को अपने हृदयों में प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न करो। 'इह चेदवेदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टि:'। 'न जाने कब मृत्यु आ जाये', सो हमें सदा उस प्रभु की भावना से हृदय को भावित करने का प्रयत्न करना चाहिये। 'नहि प्रतीक्षते मृत्युः' मृत्यु हमारे प्रभु स्मरण के लिये प्रतीक्षा न करेगी। सदा प्रभु का स्मरण करेंगे तो प्रभु जैसे ही बन पायेंगे।

    पदार्थ

    भावार्थ- हम मृत्यु से पूर्व ही प्रभु स्मरण का प्रयत्न करें। हमारा जीवन संसार की आसक्ति में ही न समाप्त हो जाए। प्रभु स्मरण का अभाव हमें विषयों के आक्रमण से न बचायेगा।

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    विषय

    न्यायवान् राजा की प्रथम स्थापना ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( वः ) अपने ( अध्वरस्य ) न नष्ट होने वाले और प्रजा को नष्ट न होने देने वाले राज्य के ( राजानम् ) तेजस्वी ( रुद्रं ) दुष्टों को रुलाने और गर्जना सहित शत्रु पर धावा करने वाले ( होतारं ) युद्ध में शत्रुओं को ललकारने और भृत्यादि को वेतनादि देने वाले ( रोदस्योः ) भूमि और आकाश के बीच सूर्य के समान स्व और पर-पक्षों वा वादि प्रतिवादी वा स्त्री और पुरुष दोनों के बीच में ( सत्ययजं ) सत्य बल और न्याय के देने वाले वा सत्य प्रतिज्ञा द्वारा दोनों को मिलाने वाले ( अग्निं ) अग्रणी नायक, अग्नि के तुल्य (हिरण्यरूपम् ) हित और रमणीय रूप वाले तेजस्वी पुरुष को ( अवसे ) राष्ट्र की रक्षा करने के लिये ( अचित्तात् ) बिना चित्त के, हृदयहीन ( तनयिन्तोः ) गर्जना करने वाले सैन्य बल को उत्पन्न करने के ( पुरा ) पूर्व ही ( कृणुध्वम् ) स्थापित करो । ( २ ) भौतिक पक्ष में—यज्ञ के बीच में चमकने वाले प्रचण्ड, सर्व सुखप्रद, आकाश भूमि के बीच सत्-विद्यमान पदार्थों में व्यापक चमकते हुए अग्नि तत्व को ( अचित्तात् ) विना काष्ठ चयनादि के ( तनयित्नोः ) गर्जना वाली विद्युत् से अपने कार्य व्यवहार के लिये उत्पन्न करो । ( ३ ) इसी प्रकार ज्ञानदाता, उपदेशक तेजस्वी पुरुष को विना ज्ञान से शून्य पुत्रादि के समक्ष उपदेशार्थ स्थापित करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १२, १५ निचृत्त्रिष्टुप । २, १३, १४ विराट्त्रिष्टुप् । ३, ७, ९ त्रिष्टुप । ४ स्वराड्-बृहती । ६, ११, १६ पंक्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नी, राजा व प्रजा यांच्या कृत्याचे व गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर पूर्व सूक्तार्थाची संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो! जसे ईश्वराने ब्रह्मांडात सूर्य स्थित करून सर्वांचे प्रिय सुख साधन निर्माण केलेले आहे. तसे राजा व प्रजा यांच्या संमतीने आमच्यातील गुणकर्मस्वभाव उत्तम असेल त्याला राजा करून आमचे हित साधा. ज्यामुळे तुमचेही हित व्हावे ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    All ye people of the land, before the unexpected and inconceivable thunder and lightning, light the fire and, for the protection and advancement of your peaceful, non-violent yajnic social order in the midst of heaven and earth, appoint the golden gloried ruler, a very Rudra, saviour of the good, a terror for the evil, hota, a yajaka and not a grabber or hoarder, but one inviolably dedicated to truth and Dharma.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the kings and their subjects are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O absolutely truthful learned persons ! as we have appointed for the protection of your inviolable administrative works king who is a liberal donor, truthful, and afflicter of the wicked (causing them to weep-literally). He is like the resplendent sun from the innominate electricity between the earth and the heaven, so you should also do with regard to our king. (You should guide us in the matter of the election of the best person as a king).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons! as God has accomplished the welfare of all by placing the sun at the axis of this solar world, in the same manner, it is the duty of the offices and people of the State to consult each other and elect unanimously or by majority (as the case may be a king of noble merits, actions and temperament, in order to establish the well being of all,

    Foot Notes

    (अध्वरस्य) अहिंसनीयस्य राज्य । अध्वरः-ध्वरति हिंसा कर्मा तत्प्रतिषेधः ( NKT 1, 7 ) अंत प्रकरणादहिंसनीयराज्यस्य ग्रहणम् = Of the of inviolable State or administrative work. (तनयित्नोः) विद्युत: । = electricity or lightning. (हिरण्यरूपम् ) हिरण्यस्य तेजस: रूपम् इव रूपं यस्य तम् -सूर्यम् । इव वर्तमानम् तेजो वे हिरण्यम् (Taittiriya 1, 8, 8, 1 ) = Like the resplendent sun.

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