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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 41/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    यु॒वामिद्ध्यव॑से पू॒र्व्याय॒ परि॒ प्रभू॑ती ग॒विषः॑ स्वापी। वृ॒णी॒महे॑ स॒ख्याय॑ प्रि॒याय॒ शूरा॒ मंहि॑ष्ठा पि॒तरे॑व शं॒भू ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वाम् । इत् । हि । अव॑से । पू॒र्व्याय॑ । परि॑ । प्रभू॑ती॒ इति॒ प्रऽभू॑ती । गो॒ऽइषः॑ । स्वा॒पी॒ इति॑ सुऽआपी । वृ॒णी॒महे॑ । स॒ख्याय॑ । प्रि॒याय॑ । शूरा॑ । मंहि॑ष्ठा । पि॒तरा॑ऽइव । श॒म्भू इति॑ श॒म्ऽभू ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवामिद्ध्यवसे पूर्व्याय परि प्रभूती गविषः स्वापी। वृणीमहे सख्याय प्रियाय शूरा मंहिष्ठा पितरेव शंभू ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवाम्। इत्। हि। अवसे। पूर्व्याय। परि। प्रभूती इति प्रऽभूती। गोऽइषः। स्वापी इति सुऽआपी। वृणीमहे। सख्याय। प्रियाय। शूरा। मंहिष्ठा। पितराऽइव। शम्भू इति शम्ऽभू ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 41; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ प्रजाविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे राजाऽमात्यौ ! युवां हि पूर्व्यायावसे इत्प्रभूती स्वापी शूरा मंहिष्ठा पितरेव शम्भू प्रियाय सख्याय गविषो वयं परि वृणीमहे तस्माद्युवामस्माकं पालकौ सततं भवेतम् ॥७॥

    पदार्थः

    (युवाम्) (इत्) एव (हि) निश्चये (अवसे) रक्षणाद्याय (पूर्व्याय) पूर्वै राजभिः कृताय (परि) (प्रभूती) समर्थौ (गविषः) गवामिच्छोः (स्वापी) शयानौ (वृणीमहे) स्वीकुर्महे (सख्याय) मित्रत्वाय (प्रियाय) कमनीयाय (शूरा) निर्भयौ शत्रुहिंसकौ (मंहिष्ठा) अतिशयेन सत्कर्त्तव्यौ (पितरेव) यथा जनकजनन्यौ (शम्भू) शं सुखं भावुकौ ॥७॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । हे प्रजाजना भवन्तस्तानेव राजादीन् स्वीकुर्वन्तु ये पितृवत्सर्वान् पालयितुं समर्थाः स्युः ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब प्रजा विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजा और मन्त्रीजनो ! (युवाम्) तुम दोनों (हि) ही को (पूर्व्याय) पूर्व राजाओं ने किये (अवसे) रक्षण आदि के लिये (इत्) ही (प्रभूती) समर्थ (स्वापी) शयन करते हुए (शूरा) भयरहित और शत्रुओं के नाश करनेवाले (मंहिष्ठा) अत्यन्त सत्कार करने योग्य (पितरेव) जैसे पिता और माता, वैसे (शम्भू) सुख को हुवानेवाले =करनेवाले (प्रियाय) सुन्दर (सख्याय) मित्रपन के लिये (गविषः) गौओं की इच्छा करनेवाले का हम लोग (परि, वृणीमहे) स्वीकार करते हैं, इससे आप दोनों हम लोगों के पालन करनेवाले निरन्तर होवें ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे प्रजाजनो ! आप लोग उन्हीं राजा आदिकों को स्वीकार करो कि जो पिता के सदृश सब लोगों के पालन करने को समर्थ होवें ॥७॥

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    विषय

    पितरा इव शम्भू

    पदार्थ

    [१] (गविष:) = [गो इष्] ज्ञानवाणियों की कामनावाले हम (पूर्व्याय अवसे) = हमारा पालन व पूरण करने में उत्तम रक्षण के लिए (युवां इत् हि) = हे इन्द्र और वरुण! आपको ही (परिवृणीमहे) = सर्वथा वरनेवाले हैं। आप ही (प्रभूती) = प्रकृष्ट ऐश्वर्यवाले हैं तथा (स्वापी) = उत्तम बन्धु हैं। [२] हम (प्रियाय सख्याय) = सदा प्रीति को देनेवाली मित्रता के लिए आप को वरते हैं। जो आप (शूरा) = हमारे शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले हैं, (मंहिष्ठा) = हमें अधिक से अधिक उन्नति के साधनभूत पदार्थों को प्राप्त करानेवाले हैं। (पितरा इव शम्भू) = माता-पिता के समान हमारे लिए शान्ति को भावित करनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- इन्द्र और वरुण ही हमारे सच्चे मित्र हैं। ये ही हमारा रक्षण करते हैं। हमारा जीवन शान्त बनाते हैं।

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    विषय

    माता पितावत् उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (प्रियाय) प्रिय पुत्र को प्राप्त करने के लिये (पितरा इव) माता और पिता (प्रभूती) उत्तम धन धान्यादि से सम्पन्न, (स्वापी) उत्तम रीति से, आदर पूर्वक एक दूसरे को प्राप्त होने वाले उत्तम बन्धु (मंहिष्ठा) अति दानशील, (शंभू) एक दूसरे के कल्याणकारक होकर (सख्याय भवतः) परम सखिभाव, प्रेम भाव निभाने के लिये होते हैं उसी प्रकार हम लोग (गविषः) वाणियों और उत्तम भूमियों को प्राप्त करने की इच्छा वाले शिष्य और वीर जन (पूर्व्याय अवसे) पूर्व जनों से प्राप्त किये ज्ञान की प्राप्ति और पूर्व राजाओं से स्थापित राष्ट्र-रक्षा के लिये (प्रभूती) उत्तम सामर्थ्यवान्, (स्वापी) प्रजा के प्रति उत्तम बन्धु, (मंहिष्ठा) अति दानशील, (शंभू) शान्तिदायक, कल्याणकारी (शूरा) शूरवीर (युवाम्) तुम दोनों गुरु, उपदेशक और राजा और अमात्य को (प्रियाय सख्याय) अतिप्रिय, प्रीतिकारक मित्र भाव की वृद्धि के लिये (परि वृणीमहे) सब प्रकार से स्वीकार करते, वरण करते वा घेर कर बैठते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषि। इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्द:– १, ५, ६, ११ त्रिष्टुप्। २, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप् । ७ पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे प्रजाजन हो! जो पित्याप्रमाणे सर्व लोकांचे पालन करण्यास समर्थ असतो, तुम्ही त्याच राजाचा स्वीकार करा. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra and Varuna, ruler and sustainer, lord of life and power, giver of freedom and justice, we choose to dedicate ourselves to you for the sake of protection and progress as ever before, great and beneficent friends like brothers, brave and fearless, greatest majestic, and kind as parents as you are. Lovers of the earth and cows, knowledge and the language of Divinity as we are, we opt for you in freedom for the sake of love and friendship.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties and rights of the subjects are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king and prime minister ! you are able to protect us well as your predecessors had done. You are brave and fearless destroyer of your enemies, most respected like the benevolent parents whose children sleep well on account of discharging their duties. In day time (other times also), we choose you for our close friendship and desire the protection of the king.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O people ! you should accept only those rulers who are able to treat all like their children as parents do.

    Foot Notes

    (प्रभूती) समर्थों । = Capable, fit. (स्वाषी) शयानौ । = Sleeping well at night.

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