ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 54/ मन्त्र 6
ये ते॒ त्रिरह॑न्त्सवितः स॒वासो॑ दि॒वेदि॑वे॒ सौभ॑गमासु॒वन्ति॑। इन्द्रो॒ द्यावा॑पृथि॒वी सिन्धु॑र॒द्भिरा॑दि॒त्यैर्नो॒ अदि॑तिः॒ शर्म॑ यंसत् ॥६॥
स्वर सहित पद पाठये । ते॒ । त्रिः । अह॑न् । स॒वि॒त॒रिति॑ । स॒वासः॑ । दि॒वेऽदि॑वे । सौभ॑गम् । आ॒ऽसु॒वन्ति॑ । इन्द्रः॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । सिन्धुः॑ । अ॒त्ऽभिः । आ॒दि॒त्यैः । नः॒ । अदि॑तिः । शर्म॑ । यं॒स॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये ते त्रिरहन्त्सवितः सवासो दिवेदिवे सौभगमासुवन्ति। इन्द्रो द्यावापृथिवी सिन्धुरद्भिरादित्यैर्नो अदितिः शर्म यंसत् ॥६॥
स्वर रहित पद पाठये। ते। त्रिः। अहन्। सवितरिति। सवासः। दिवेऽदिवे। सौभगम्। आऽसुवन्ति। इन्द्रः। द्यावापृथिवी इति। सिन्धुः। अत्ऽभिः। आदित्यैः। नः। अदितिः। शर्मः। यंसत् ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 54; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 6
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पदार्थोद्देशेनेश्वरसेवनमाह ॥
अन्वयः
हे सवितर्जगदीश्वर ! ते तव ये सवासोऽहन् दिवेदिवे सौभगं त्रिरासुवन्ति। अद्भिरादित्यैस्सह इन्द्रो द्यावापृथिवी सिन्धुश्चासुवन्ति सोऽदितिर्भवान्नः शर्म यंसत् ॥६॥
पदार्थः
(ये) (ते) तव (त्रिः) (अहन्) अहनि (सवितः) परमेश्वर (सवासः) उत्पन्नाः पदार्थाः (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (सौभगम्) सुभगस्य श्रेष्ठैश्वर्य्यस्य भावम् (आसुवन्ति) उत्पादयन्ति (इन्द्रः) सूर्य्यः (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (सिन्धुः) (अद्भिः) जलैः (आदित्यैः) मासैः (नः) अस्मभ्यम् (अदितिः) अखण्डितः परमात्मा (शर्म) सुखम् (यंसत्) प्रदद्यात् ॥६॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यस्य जगदीश्वरस्य सृष्टौ वयमत्यन्तैश्वर्य्यवन्तो भवामोऽस्माकरक्षकाः सर्वे पदार्थाः सन्ति तमेव वयं सततं भजेमेति ॥६॥ अत्र सवित्रीश्वरविद्वत्पदार्थगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥६॥ इति चतुःपञ्चाशत्तमं सूक्तं पञ्चमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब पदार्थोद्देश से ईश्वर की सेवा को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सवितः) परमेश्वर (ते) आपके (ये) जो (सवासः) उत्पन्न पदार्थ (अहन्) दिन में (दिवेदिवे) प्रतिदिन (सौभगम्) श्रेष्ठ ऐश्वर्य्य के होने को (त्रिः) तीन वार (आसुवन्ति) उत्पन्न कराते हैं तथा (अद्भिः) जलों और (आदित्यैः) और महीनों के साथ (इन्द्रः) सूर्य्य (द्यावापृथिवी) प्रकाश-भूमि और (सिन्धुः) समुद्र भी उत्पन्न कराते हैं, वह (अदितिः) खण्डरहित परमात्मा आप (नः) हम लोगों के लिये (शर्म) सुख को (यंसत्) दीजिये ॥६॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिस जगदीश्वर की सृष्टि में हम लोग ऐश्वर्य्यवाले होते हैं और हम लोगों के रक्षा करनेवाले सम्पूर्ण पदार्थ हैं, उसी का हम लोग निरन्तर भजन करें ॥६॥ इस सूक्त में सविता, ईश्वर, विद्वान् और पदार्थों के गुणों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥६॥ यह चौवनवाँ सूक्त और पाँचवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
यज्ञशीलता व विश्व की अनुकूलता
पदार्थ
[१] हे (सवितः) = प्रेरक प्रभो ! (ये) = जो (अहन्) = दिन में (त्रिः) = तीन बार (सवासः) = यज्ञ हैं- प्रातः सवन, माध्यन्दिन सवन व सायन्तन सवन, (ते) = वे (दिवेदिवे) = प्रतिदिन (सौभगम्) = उत्तम सौभाग्य को (आसुवन्ति) = प्राप्त कराते हैं। हम प्रतिदिन प्रातः, मध्याह्न व सायं प्रभु का स्मरण करते हुए, अर्थात् सदा प्रभु का स्मरण करते हुए सौभाग्यशील हों। जीवन-दिन का प्रातः सवन प्रथम २४ वर्ष का है, माध्यन्दिन सवन अगले ४४ वर्ष का और सायन्तन सवन अन्तिम ४८ वर्ष का। इस प्रकार हम आजीवन प्रभु की उपासना के साथ कर्म करें। [२] (इन्द्रः) = वे प्रभु, (द्यावापृथिवी) = ये द्युलोक व पृथिवी लोक, (अद्भिः) = जलों के साथ (सिन्धुः) = ये नदियाँ तथा (आदित्यैः) = सब सूर्यादि देवों के साथ (अदितिः) = यह प्रकृति (नः) = हमारे लिए (शर्म यंसत्) = सुख दे। यज्ञात्मक जीवन होने पर यह सारा ब्रह्माण्ड सुख ही सुख देनेवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम यज्ञशील बनकर विश्व की अनुकूलता प्राप्त करें। इस प्रकार यज्ञशील जीवन होने पर सब दिव्यगुणों का विकास होगा, सब देवों की अनुकूलता होगी, सो अगला सूक्त 'विश्वे देवाः' देवता का है
विषय
सब उसी की विभूति हैं।
भावार्थ
हे (सवितः) सर्वशासक ! ऐश्वर्यवन् ! राजन् वा प्रभो ! (ये) जो (सवासः) उत्तम ऐश्वर्यवान् ! अभिषिक्त पदाधिकारी लोग (दिवे दिवे) दिनों दिन (त्रिः) तीन बार वा तीनों प्रकार से (ते) तेरे (सौभगम्) सुखदायी ऐश्वर्य को (आसुवन्ति) सब प्रकार से बढ़ाते हैं उन (आदित्यैः) बारह मासों से सूर्य के तुल्य (इन्द्रः) तेजस्वी शत्रुहन्ता और (अद्भिः सिन्धुः न) जलों से पूर्ण महानद, सागर वा आकाश के तुल्य वेगवान् विशाल और सौख्य वृष्टि आदि का दाता (अदितिः) अदीन अखण्डित शासक और (द्यावापृथिवी) सूर्य, भूमि के तुल्य माता पिता होकर (नः) हमें तू (शर्म यंसत्) सुख शरण प्रदान कर (२) ये सब उत्पन्न पदार्थ परमेश्वर के ऐश्वर्य की वृद्धि करते हैं । वह प्रभु हमें सुख शरण दे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ सविता देवता॥ छन्दः- १ भुरिक् त्रिष्टुप् । २ निचृत्-त्रिष्टुप्। ३, ४, ५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्। षडृर्चं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(सवितः) हे उत्पादक प्रेरक परमात्मन् ! (ते) तेरे शासन में रहकर तेरी प्रेरणा से (ये) जो (सवासः) उत्पत्ति कर्त्ता देव 'उत्तर पंक्ति में कहे हुए इन्द्र आदि' (दिवे दिवे) प्रतिदिन (अहन् त्रिः) दिन में-दिनरात में तीन वार प्रात: मध्याह्न सायं अथवा प्रातः सायं समान भाव काल में प्रकाश 'प्रधान दिन भर में अन्धकारमय रात्रि में (सौभगम्) सुखसस्पत्ति को (सुन्वन्ति) प्रादुर्भूत करते हैं वे देव (इन्द्र:-द्यावापृथिवी) विद्युत्, द्यलोक पृथिवी लोक (सिन्धुः-अद्भिः) नदियों सहित समुद्र (अदितिः-आदित्यैः) उषा आदित्योंकिरणों के सहित (नः शर्म यंसत्) हमारे लिए सुख शरण -दे ॥६॥
विशेष
ऋषिः- वामदेवः (वननीय-श्रेष्ठ विद्वान्) देवता- सविता (उत्पादक प्ररेक परमात्मा तथा सूर्य)
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! ज्या जगदीश्वराच्या सृष्टीत आम्ही ऐश्वर्यवान होतो व सर्व पदार्थांमुळे आमचे रक्षण होते त्याचे आम्ही सतत भजन करावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Savita, lord creator, the created ones such as sun and moon and the human beings, who daily do homage to you thrice every day, may all these, earth and heaven, the sea with waters, mother nature with her solar lights, and Indra, the sun, and lord omnipotent create for us homely sweetness and give us a peaceful home for rest.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
To serve God by the illustration of the objects of the world is. mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God, Creator of the world ! may all objects created by You lead us to three fold prosperity day by day. The sun, the heaven, the earth, the ocean with waters and the months bestow happiness upon us. May You, Who are Lord of all these objects and Indestructible God, confer happiness upon us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
May we always worship that One God-the Lord of the universe, in Whose creation, we enjoy prosperity and all objects created by Whom protect or sustain us.
Foot Notes
(अदितिः) अखण्डीतः परमात्मा। अदितिः दो अवखण्डने (दिवा०) कतम अदित्या इति । द्वादशमासाः संवत्सरस्य एत आदित्याः एतेहीदं सर्वमाददानः यन्ति तद् यदिदं सवमाददाना यन्ति तस्मादादित्या इति (Stph. Brahman 14, 16)। = Indestructible God. (आदित्यैः) मासैः = With months.
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