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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 10/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गय आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्वं नो॑ अग्ने अङ्गिरः स्तु॒तः स्तवा॑न॒ आ भ॑र। होत॑र्विभ्वा॒सहं॑ र॒यिं स्तो॒तृभ्यः॒ स्तव॑से च न उ॒तैधि॑ पृ॒त्सु नो॑ वृ॒धे ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । अ॒ङ्गि॒रः॒ । स्तु॒तः । स्तवा॑नः । आ । भ॒र॒ । होतः॑ । वि॒भ्व॒ऽसह॑म् । र॒यिम् । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । स्तव॑से । च॒ । नः॒ । उ॒त । ए॒धि॒ । पृ॒त्ऽसु । नः॒ । वृ॒धे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं नो अग्ने अङ्गिरः स्तुतः स्तवान आ भर। होतर्विभ्वासहं रयिं स्तोतृभ्यः स्तवसे च न उतैधि पृत्सु नो वृधे ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। नः। अग्ने। अङ्गिरः। स्तुतः। स्तवानः। आ। भर। होतः। विभ्वऽसहम्। रयिम्। स्तोतृभ्यः। स्तवसे। च। नः। उत। एधि। पृत्ऽसु। नः। वृधे ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 10; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्यार्थिविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे होतरङ्गिरोऽग्ने ! स्तुतः स्तवानः सँस्त्वं नो विभ्वासहं रयिमा भर स्तोतृभ्यः स्तवसे च नोऽस्मानाभरोत पृत्सु नो वृध एधि ॥७॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (नः) अस्मान् (अग्ने) विद्वन् (अङ्गिरः) प्राण इव प्रियः (स्तुतः) प्रशंसितः (स्तवानः) प्रशंसन् (आ) (भर) (होतः) दातः (विभ्वासहम्) यो विभूनासहते तम् (रयिम्) (स्तोतृभ्यः) (स्तवसे) स्तावकाय (च) (नः) अस्मान् (उत) (एधि) (पृत्सु) सङ्ग्रामेषु (नः) (वृधे) वर्द्धनाय ॥७॥

    भावार्थः

    विद्यार्थिनो विदुष एवं प्रार्थयेर्युर्हे भगवन्तो यूयमस्मान् ब्रह्मचर्य्यं कारयित्वा सुशिक्षां विद्यां दत्त्वा सङ्ग्रामान् जित्वाऽस्माकं वृद्धिं सततं कुरुतेति ॥७॥ अत्राग्निविद्वद्विद्यार्थिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति दशमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्यार्थिविषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (होतः) दाता और (अङ्गिरः) प्राण के सदृश प्रिय (अग्ने) विद्वन् ! (स्तुतः) प्रशंसित (स्तवानः) प्रशंसा करते हुए (त्वम्) आप (नः) हम लोगों के लिये (विभ्वासहम्) व्यापकों के अच्छे प्रकार सहनेवाले (रयिम्) धन को (आ, भर) धारण कीजिये तथा (स्तोतृभ्यः) स्तुति करनेवालों और (स्तवसे) स्तुति करनेवाले के लिये (च) भी (नः) हम लोगों को धारण कीजिये (उत) और (पृत्सु) संग्रामों में (वृधे) वृद्धि के लिये (एधि) प्राप्त हूजिये ॥७॥

    भावार्थ

    विद्यार्थियों को चाहिये कि विद्वानों की इस प्रकार प्रार्थना करें कि हे भगवानो ! अर्थात् विद्यारूप ऐश्वर्य्ययुक्त महाशयो ! आप लोग हम लोगों को ब्रह्मचर्य्य करा और उत्तम शिक्षा तथा विद्या देके और संग्रामों को जीतकर हम लोगों की निरन्तर वृद्धि करिये ॥७॥ इस सूक्त में अग्निशब्दार्थ विद्वान् और विद्यार्थी के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह दशवाँ सूक्त और दूसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    अग्निवत् तेजस्वी विद्वान् पुरुष का वर्णन । उससे प्रजा की उपयुक्त याचनाएं ।

    भावार्थ

    भा०-हे (अग्ने) अग्रणी नायक ! विद्वन् ! हे ( अङ्गिरः ) प्राण- प्रिय ! तेजस्विन्! ( त्वं ) तू (स्तुतः ) प्रशंसित और शिक्षित होकर और (स्तवानः ) अन्यों को विद्या आदि का उपदेश करता हुआ (नः) हमें (विभ्व-सहं ) बड़ों २ को पराजित करने वाले ( रयिम् ) ऐश्वर्यं (आ भर) प्राप्त करा । और ( नः स्तोतृभ्यः ) हमारे बीच में स्तुति-कर्त्ता विद्वान् उपदेष्टाओं को भी ( स्तवसे ) उत्तम ज्ञानोपदेश करने के निमित्त ( रयिम् आ भर) धन प्रदान कर और ( पृत्सु ) संग्रामों वा प्रजाओं के बीच में (च ) भी ( नः वृधे ) हमारी बढ़ती के लिये ( एधि ) हो । इति द्वितीयो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गय अत्रेय ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द:-- १, ६ निचृदनुष्टुप् । ५ अनुष्टुप् । २, ३ भुरिगुष्णिक् । ४ स्वराड्बृहती । ७ निचृत् पंक्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विभ्वासह रयिं, स्तवन-सामर्थ्य, संग्राम-विजय

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी, (अंगिर:) = अंग-प्रत्यंग में रस का संचार करनेवाले प्रभो ! (स्तुतः) = पूर्वकाल में स्तुति किये गये (स्तवान:) = वर्तमान में स्तुति किये जाते हुए (त्वम्) = आप (नः) = हमारे लिये (रयिम्) = रयि को, धन को आभर प्राप्त कराइये । हे (होत:) = सर्वप्रद प्रभो ! (स्तोतृभ्यः) = हम स्तोताओं के लिये (विभ्वासहम्) = [विभु-आसहं] व्यापक-व्यापक हित करनेवाले, अधिक से अधिक लोगों के हित में विनियुक्त होनेवाले को दीप्ति तथा सब कष्टों का पराभव करनेवाले धन को दीजिये । [२] च और (नः) = हमारे लिये स्तवसे स्तवन के सामर्थ्य को (एधि) = प्राप्त कराइये, हमारे स्तवन सामर्थ्य के लिये होइये । (उत) = और इस प्रकार (पृत्सु) = संग्रामों में (नः) = हमारी (वृधे) = वृद्धि के लिये होइये । प्रभु-स्तवन द्वारा हमें वह सामर्थ्य प्राप्त हो, जिससे कि हम सब काम-क्रोध आदि शत्रुओं को पराभूत कर पायें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें लोकहित में विनियुक्त होनेवाले धन को, स्तुति- सामर्थ्य को और संग्रामविजय को प्राप्त करायें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्यार्थ्यांनी विद्वानांना याप्रमाणे प्रार्थना करावी की हे श्रेष्ठ पुरुषांनो! तुम्ही आम्हाला ब्रह्मचर्य पाळावयास लावून उत्तम शिक्षण व विद्या देऊन युद्धात जिंकावयास प्रवृत्त करून आमची निरंतर वृद्धी करा. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, light of the world, dear as breath of life, generous sage and scholarly yajaka, liberal giver, praised by devotees and approving and praising the celebrants, bring us wealth for the devotees and the worshipper good enough to challenge the mighty, and come for us so that we may win the battles of life and grow higher and higher.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the pupils are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O donor ! you are dear to us like our Prana (vital breath). O learned person! being admired by us and praising the worthy wise men, bring to us wealth which can put an end to even the most difficult situation. Bring us such wealth for all admirers (individually and collectively) and stand in all battles for our advancement.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The pupils have great regard and honor for the donors, because they give due recognition and respect to them. The right type of admirers (not the sycophants) are the great pillars of strength.

    Foot Notes

    (अङ्गिर:) प्राण इव प्रिय । प्राणे वा अंगिरा: (Stph 6, 1, 2, 28, II, 6, 5, 2, 3, 4 )। = O dear like our Prana. (पुत्सु) सङ्ग्रामेषु । पृत्सु इति संग्राम नाम (NG 2,17)। = In battles.

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