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ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 23/ मन्त्र 4
ऋषिः - द्युम्नो विश्वचर्षणिः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
स हि ष्मा॑ वि॒श्वच॑र्षणिर॒भिमा॑ति॒ सहो॑ द॒धे। अग्न॑ ए॒षु क्षये॒ष्वा रे॒वन्नः॑ शुक्र दीदिहि द्यु॒मत्पा॑वक दीदिहि ॥४॥
स्वर सहित पद पाठसः । हि । स्म॒ । वि॒श्वऽच॑र्षणिः । अ॒भिऽमा॑ति । सहः॑ । द॒धे । अग्ने॑ । ए॒षु । क्षये॑षु । आ । रे॒वत् । नः॒ । शु॒क्र॒ । दी॒दि॒हि॒ । द्यु॒ऽमत् । पा॒व॒क॒ । दी॒दि॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स हि ष्मा विश्वचर्षणिरभिमाति सहो दधे। अग्न एषु क्षयेष्वा रेवन्नः शुक्र दीदिहि द्युमत्पावक दीदिहि ॥४॥
स्वर रहित पद पाठसः। हि स्म। विश्वऽचर्षणिः। अभिऽमाति। सहः। दधे। अग्ने। एषु। क्षयेषु। आ। रेवत्। नः। शुक्र। दीदिहि। द्युऽमत्। पावक। दीदिहि ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 23; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे शुक्राग्ने ! यो विश्वचर्षणिरेषु क्षयेष्वभिमाति सहो दधे स हि ष्मा विजेता भवति तेन त्वं नो रेवद्दीदिहि। हे पावक ! पवित्राचरणेनाऽस्मभ्यं द्युमदा दीदिहि ॥४॥
पदार्थः
(सः) (हि) (स्मा) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (विश्वचर्षणिः) अखिलविद्याप्रकाशः (अभिमाति) अभिमन्यते येन (सहः) बलम् (दधे) दधाति (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान (एषु) (क्षयेषु) निवासेषु (आ) (रेवत्) प्रशस्तधनयुक्तम् (नः) अस्मभ्यम् (शुक्र) शक्तिमन् (दीदिहि) देहि (द्युमत्) प्रकाशमत् (पावक) पवित्र (दीदिहि) प्रकाशय ॥४॥
भावार्थः
ये मनुष्याः पूर्णं शरीरात्मबलं दधति ते सर्वेभ्यः सुखं दातुं शक्नुवन्तीति ॥४॥ अत्राग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्रयोविंशतितमं सूक्तं पञ्चदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (शुक्र) सामर्थ्ययुक्त (अग्ने) अग्नि के सदृश वर्तमान ! जो (विश्वचर्षणिः) सम्पूर्ण विद्याओं का प्रकाश (एषु) इन (क्षयेषु) निवास स्थानों में (अभिमाति) अभिमान जिससे हो उस (सहः) बल को (दधे) धारण करता (सः, हि) वही (स्मा) निश्चय से जीतनेवाला होता है, इससे आप (नः) हम लोगों के लिये (रेवत्) प्रशस्त धन से युक्त पदार्थ को (दीदिहि) दीजिये और हे (पावक) पवित्र, पवित्राचरण से हम लोगों के लिये (द्युमत्) प्रकाशयुक्त का (आ, दीदिहि) प्रकाश कीजिये ॥४॥
भावार्थ
जो मनुष्य पूर्ण शरीर और आत्मा के बल को धारण करते हैं, वे सब के लिये सुख दे सकते हैं ॥४॥ इस सूक्त में अग्नि के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह तेईसवाँ सूक्त और पन्द्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
अग्रणी नायक के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०- ( सः विश्व चर्षणिः ) वह सबका दृष्टा होकर ( अभिमाति ) समस्त शत्रुओं को पराजय करने योग्य एवं अभिमान योग्य ( सहः ) प्रबल सैन्य को ( दुधे ) धारण करे । हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! नायक ! (एषु क्षयेषु ) इन निवास योग्य भवनों में या पदों पर रहता हुआ तू हे (शुक्र) शुद्धाचरण वाले ! हे तेजोयुक्त ! तू (नः) हमारे ( रेवत् ) उत्तम धन से युक्त राष्ट्र को ( दीदिहि ) प्रकाशित कर और हे ( पावक ) पवित्रकारक, कण्टक-शोधन विधि से राज्य को निष्कण्टक करने हारे ! तू स्वयं हमें ( द्युमत्) तेजोयुक्त ऐश्वर्य ( दीदिहि ) प्रदान कर । स्वयं यशस्वी होकर प्रकाशित हो । इति पञ्चदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
द्युम्नो विश्वचर्षणिर्ऋषि: ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः - १, २ निचृदनुष्टुप् । ३ विराडनुष्टुप् । ४ निचृत्पंक्तिः ॥ चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥
विषय
शत्रु-हिंसक बल-धन-ज्योति
पदार्थ
[१] (सः) = वे (विश्वचर्षणिः) - विश्वद्रष्टा सबका ध्यान करनेवाले प्रभु (हि) = ही (अभिमाति) = शत्रुओं के हिंसक (सहः) = बल को (आ दधे स्म) = हमारे में धारण करते हैं। [२] (अग्ने) = हे अग्रणी प्रभो! आप (एषु क्षयेषु) = गृहों में (रेवत्) = धनयुक्त होकर (न:) = हमारे लिये (दीदिहि) = दीप्त होइये । अर्थात् हमें आवश्यक धनों को प्राप्त कराइये । हे पावक पवित्र करनेवाले, (शुक्र) = दीप्त प्रभो ! (द्युमत्) = ज्योतिर्मय होकर हमारे लिये (दीदिहि) = दीप्त होइये ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें शत्रु-हिंसक बल, धन व ज्योति प्राप्त करायें। इस प्रकार शत्रु - हिंसक बल को प्राप्त करके ये 'लौपायन' शत्रुओं का लोप करनेवाले बनते हैं । इन्द्रियों का रक्षण करते हुए 'गौपायन' होते हैं। इनके रक्षण के लिये ही बन्धुः सदा यज्ञादि कर्मों में अपने को बाँधनेवाले, सुबन्धुः उत्तम कार्यों में अपने को बाँधनेवाले होते हैं। ये श्रुतबन्धु शास्त्रज्ञान से अपने को बाँधनेवाले व विप्रबन्धु - ज्ञानी पुरुषों के संगवाले बनते हैं। ये प्रार्थना करते है कि -
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे संपूर्ण शरीर व आत्म्याचे बल धारण करतात ती सर्वांसाठी सुख देऊ शकतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, that all watchful commander of the world brings us challenging strength and victorious force. Agni, light of life and ruler of the world, in these homes and places, shine, lord of wealth, shine for us, fire pure and light illuminating, shine in command of the wealth and honour of humanity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of brave persons is further developed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned mighty person ! you shine like the fire. One can certainly be a victor who is endowed with the light of all knowledge, upholds power in the dwelling places which ultimately creates self-respect and self-confidence. With the help of such a person, grant unto us articles with admirable wealth. O purifier! with pure character and conduct you enlighten us well.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The men who possess perfect physical and spiritual power are able to impart strength to all.
Foot Notes
(विश्वचर्षणिः) अखिलविद्याप्रकाशः । चर्षणिरिति पदनाम (NG 4, 2) पद-गतौ । गतेस्त्रिष्वर्थेषु ज्ञानार्थं ग्रहणम् । विश्वचर्षणीः इति पश्यति कर्मा (NG 3, 11 ) । = A man full of the light of the knowledge of all sciences. (दीदिहि ) १. देहि = Give. २. प्रकाशय । = Enlighten.
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