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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 31/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अमहीयुः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अन॑वस्ते॒ रथ॒मश्वा॑य तक्ष॒न्त्वष्टा॒ वज्रं॑ पुरुहूत द्यु॒मन्त॑म्। ब्र॒ह्माण॒ इन्द्रं॑ म॒हय॑न्तो अ॒र्कैरव॑र्धय॒न्नह॑ये॒ हन्त॒वा उ॑ ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अन॑वः । ते॒ । रथ॑म् । अश्वा॑य । त॒क्ष॒न् । त्वष्टा॑ । वज्र॑म् । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । द्यु॒ऽमन्त॑म् । ब्र॒ह्माणः॑ । इन्द्र॑म् । म॒हय॑न्तः । अ॒र्कैः । अव॑र्धयन् । अह॑ये । हन्त॒वै । ऊँ॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनवस्ते रथमश्वाय तक्षन्त्वष्टा वज्रं पुरुहूत द्युमन्तम्। ब्रह्माण इन्द्रं महयन्तो अर्कैरवर्धयन्नहये हन्तवा उ ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनवः। ते। रथम्। अश्वाय। तक्षन्। त्वष्टा। वज्रम्। पुरुऽहूत। द्युऽमन्तम्। ब्रह्माणः। इन्द्रम्। महयन्तः। अर्कैः। अवर्धयन्। अहये। हन्तवै। ऊँ इति। ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 31; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे पुरुहूत राजन् ! येऽनवस्तेऽश्वाय रथं तक्षन् त्वष्टा द्युमन्तं वज्रं निपातयति महयन्तो ब्रह्माणोऽर्कैस्त्वामिन्द्रमवर्धयन्नहये हन्तवैऽवर्धयंस्तानु त्वं सततं सत्कुरु ॥४॥

    पदार्थः

    (अनवः) मनुष्याः। अनव इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (ते) तव (रथम्) (अश्वाय) सद्योगमनाय (तक्षन्) रचयन्तु (त्वष्टा) सर्वतो विद्यया प्रदीप्तः (वज्रम्) शस्त्रास्त्रसमूहम् (पुरुहूत) बहुभिः स्तुत (द्युमन्तम्) (ब्रह्माणः) चतुर्वेदविदः (इन्द्रम्) अखण्डैश्वर्यं राजानम् (महयन्तः) पूजयन्तः (अर्कैः) सत्कारसाधकतमैर्विचारैर्वचनैः कर्मभिर्वा (अवर्धयन्) वर्धयन्ति (अहये) मेघाय (हन्तवै) हन्तुम् (उ) वितर्के ॥४॥

    भावार्थः

    राज्ञां योग्यतास्ति येऽन्तःकरणेन राज्योन्नतिं कर्त्तुमिच्छेयुस्ते राज्ञा सदैव माननीयाः ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (पुरुहूत) बहुतों से स्तुति किये गये राजन् ! जो (अनवः) मनुष्य (ते) आपके (अश्वाय) शीघ्र गमन के लिये (रथम्) वाहन को (तक्षन्) रचें और (त्वष्टा) सब प्रकार से विद्या से प्रदीप्तजन (द्युमन्तम्) प्रकाशयुक्त (वज्रम्) शस्त्र और अस्त्र के समूह को गिराता है और (महयन्तः) प्रशंसा करते हुए (ब्रह्माणः) चारों वेदों के जाननेवाले विद्वान् (अर्कैः) सत्कार के अत्यन्त सिद्ध करनेवाले विचारों वचनों वा कर्मों से आप (इन्द्रम्) अखण्ड ऐश्वर्य्ययुक्त राजा की (अवर्धयन्) वृद्धि करते हैं और (अहये) मेघ के लिये (हन्तवै) नाश करने की वृद्धि करते हैं, उनका (उ) तर्कपूर्वक आप निरन्तर सत्कार करिये ॥४॥

    भावार्थ

    राजाओं की योग्यता है कि जो अन्तःकरण से राज्य की उन्नति करने की इच्छा करें, वे सदा ही सत्कार करने योग्य हैं ॥४॥

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    विषय

    प्रजा राजा की शक्ति बढ़ावे ।

    भावार्थ

    भा०-हे ( पुरुहूत) बहुतसी प्रजाओं द्वारा आदर पूर्वक सेनापति या राजा रूप से स्वीकृत राजन् ! ( अनवः ) मनुष्य ( ते अश्वाय ) तेरे अश्व के लिये रथसैन्य ( तक्षन् ) तैयार करें । ( त्वष्टा ) उत्तम शिल्पी ( ते द्युमन्तं ) तेरे लिये तेजस्वी ( वज्रं तक्षत् ) शस्त्र तैयार करें । इस प्रकार ( इन्द्रं महयन्तः ब्रह्माणः ) ऐश्वर्ययुक्त शत्रुहन्ता पुरुष को वेदज्ञ विद्वान् धनी पुरुष ( अर्कैः महयन्तः ) अर्चना योग्य उत्तम स्तुतिवचनों और उत्तम अन्नों से सत्कार करते हुए ( अहये हन्तवा ) अभिमुख खड़े शत्रु के मारने के लिये ( अवर्धयन् ) बढ़ावें, उसे अधिक शक्तिशाली करें । वाग्मी लोग उसे वचनों से और सम्पन्न पुरुष राशन आदि खाद्य सामग्री से उसे पुष्ट करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अवस्युरात्रेय ऋषिः ॥ १-८, १०-१३ इन्द्रः । ८ इन्द्रः कुत्सो वा । ८ इन्द्र उशना वा । ९ इन्द्रः कुत्सश्च देवते ॥ छन्द: – १, २, ५, ७, ९, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ , १० त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप । ८, १२ स्वराट्पंक्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    ते अनवः

    पदार्थ

    १. हे (पुरुहूत) = बहुतों से पुकारे जानेवाले प्रभो ! (ते अनवः) = तेरे ये प्राणशक्तिसम्पन्न पुरुष (रथम्) = अपने शरीररथ को (अश्वाय) = इन्द्रियाश्वों से सम्पर्क के लिए (तक्षन्) = बनाते हैं, अर्थात् इस रथ में ये घोड़े सदा जुते रहते हैं और इनका जीवन क्रियाशील होता है। यह आपका व्यक्ति (त्वष्टा) = [त्विषेर्दीप्तौ] बड़े दीप्त जीवनवाला होता हुआ (वज्रम्) = अपने क्रियाशीलतारूप वज्र को (द्युमन्तम्) = प्रशस्त ज्योतिर्मय बनाता है। संक्षेप में, प्रभु का व्यक्ति क्रियाशील होता है और इसकी क्रियाएँ ज्ञानपूर्वक होती हैं । २. (ब्रह्माणः) = स्तोतालोक (अर्कैः) = स्तुति मन्त्रों द्वारा (महयन्तः) = पूजन करते हुए (अवर्धयन्) = प्रभु की महिमा को बढ़ाते हैं। (अहये हन्तवा उ) = और [उ] इस प्रभु की महिमा के वर्धन के द्वारा ये वासना को विनष्ट करने में समर्थ होते हैं । वस्तुत: जब हृदय में प्रभु का निवास होता है तो वहाँ वासना का प्रवेश होता ही नहीं। ऐसे हृदय में प्रविष्ट होते ही वासना भस्म के रूप में हो जाती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के व्यक्ति क्रियामय होते हैं। इनकी क्रियाएँ ज्ञानपूर्वक होती हैं। ज्ञानयज्ञों द्वारा प्रभु का उपासन करते हुए ये वासना को विनष्ट कर पाते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे अन्तकरणापासून राजाची उन्नती करण्याची इच्छा बाळगतात त्यांचा राजाने सदैव सत्कार करावा. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, mighty ruler, expert craftsmen design and make the chariot for your fast movement and communication, the defence scientist and engineer, Tvashta, makes the blazing thunderbolt for you, and the scholars of the Veda celebrate your power and glory with hymns of adoration and exalt you to break the demonic cloud of darkness and want for showers of rain and prosperity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of king is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! invoked by many the good artisan have manufactured your ear for speedy movement. A man shining with full knowledge throws the volleys of radiant sharp weapons. The knowers of all the four Vedas honor you who are endowed with much wealth or are prosperous, enhance your power with thoughts, words and actions which make you worthy of more and more respect and enable to destroy crooked and wicked persons like the serpents or clouds (retaining the happiness of others).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of the king to always honor those whom we desire for the progress of the State heart and soul.

    Translator's Notes

    (त्वष्टा ) = त्विष् दीप्तौ (भ्वा० ) नप्तृनेष्ट त्वष्टृ होतृ पोतृ भ्रातु, जामातृ मातृ पितृ दुहितृ (उणादिकोषे 2,96) ऋकारस्याकारः । (अर्कैः) अर्च -पूजायाम् (भ्वा०) कृदाद्यार्चिकलिभ्यः कः । उणादिकोषे 3,40 ) इति अर्च धातोः क प्रत्ययः ।

    Foot Notes

    (अनव:) मनुष्याः । अनव इति मनुष्यनाम (NG 2, 3)। = The man. (अश्वाय ) सद्योगमनाय । = For speedy movement. (त्वष्टा ) सर्वतो विद्यया प्रदीप्तः । = Shining with knowledge all sides. (अर्के: ) सत्कारसाधकतमै विचारर्वचनैः कर्मभिर्वा । = With thoughts, words or actions which accomplish the maximum honor.

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