ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 37/ मन्त्र 4
न स राजा॑ व्यथते॒ यस्मि॒न्निन्द्र॑स्ती॒व्रं सोमं॒ पिब॑ति॒ गोस॑खायम्। आ स॑त्व॒नैरज॑ति॒ हन्ति॑ वृ॒त्रं क्षेति॑ क्षि॒तीः सु॒भगो॒ नाम॒ पुष्य॑न् ॥४॥
स्वर सहित पद पाठन । सः । राजा॑ । व्य॒थ॒ते॒ । यस्मि॑न् । इन्द्रः॑ । ती॒व्रम् । सोम॑म् । पिब॑ति । गोऽस॑खायम् । आ । स॒त्व॒नैः । अज॑ति । हन्ति॑ । वृ॒त्रम् । क्षेति॑ । क्षि॒तीः । सु॒ऽभगः॑ । नाम॑ । पुष्य॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
न स राजा व्यथते यस्मिन्निन्द्रस्तीव्रं सोमं पिबति गोसखायम्। आ सत्वनैरजति हन्ति वृत्रं क्षेति क्षितीः सुभगो नाम पुष्यन् ॥४॥
स्वर रहित पद पाठन। सः। राजा। व्यथते। यस्मिन्। इन्द्रः। तीव्रम्। सोमम्। पिबति। गोऽसखायम्। आ। सत्वनैः। अजति। हन्ति। वृत्रम्। क्षेति। क्षितीः। सुऽभगः। नाम। पुष्यन् ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 37; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सद्यो यानचालनविषयमाह ॥
अन्वयः
यस्मिन् राजनीन्द्रो गोसखायं तीव्रं सोमं पिबति सत्वनैराजति वृत्रं हन्ति स राजा सुभगो नाम पुष्यन् क्षितीः क्षेति न व्यथते ॥४॥
पदार्थः
(न) निषेधे (सः) (राजा) (व्यथते) भयं पीडां प्राप्नोति (यस्मिन्) (इन्द्रः) विद्युत् (तीव्रम्) (सोमम्) जलम् (पिबति) (गोसखायम्) गौर्भूगोलः सखा यस्य तम् (आ) (सत्वनैः) रथादिद्रव्यैः (अजति) गच्छति (हन्ति) नाशयति (वृत्रम्) मेघम् (क्षेति) निवासयत्यैश्वर्य्यं करोति वा (क्षितीः) मनुष्यान् (सुभगः) शोभनो भग ऐश्वर्य्यं यस्मात्तम् (नाम) प्रसिद्धिम् (पुष्यन्) ॥४॥
भावार्थः
यस्य राज्ञो वशे भूमिजलाग्निवायवो वर्त्तन्ते यस्य राज्ञः कुतश्चिदर्य्यादेर्भयं कदाचिन्न जायते यशस्वी प्रसिद्धश्चाऽस्मिञ्जगति भवति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
अब शीघ्र यानचालनविषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
(यस्मिन्) जिस राजा में (इन्द्रः) बिजुली (गोसखायम्) भूगोल है मित्र जिसका उस (तीव्रम्) तीव्र (सोमम्) जल का (पिबति) पान करती (सत्वनैः) और रथ आदि द्रव्यों से (आ, अजति) आती और (वृत्रम्) मेघ का (हन्ति) नाश करती है (सः) वह (राजा) राजा (सुभगः) सुन्दर ऐश्वर्य्य जिससे उस (नाम) प्रसिद्धि को (पुष्यन्) पुष्ट करता हुआ (क्षितीः) मनुष्यों को (क्षेति) वसाता है वा ऐश्वर्य्य करता और (न) न (व्यथते) भय वा पीड़ा को प्राप्त होता है ॥४॥
भावार्थ
जिस राजा के वश में भूमि, जल, अग्नि और पवन हैं, उस राजा को किसी शत्रु आदि से भय कभी नहीं होता और वह राजा यशस्वी और प्रसिद्ध इस जगत् में होता है ॥४॥
विषय
पत्नीवत् पालक प्रभु का वरण
भावार्थ
भा०—(सः) वह ( राजा ) राजा ( न व्यथते ) भय या पीड़ा को कभी प्राप्त नहीं होता ( यस्मिन् ) जिसके शासन करते हुए (इन्द्रः) सूर्य और विद्युत् ( तीव्रं ) अति तीक्ष्ण होकर ( गो-सखायं ) भूमि के मित्र भूत वा किरणों के साथ मित्रवत् वाष्प होकर ऊपर जाने वाले ( सोमं ) जल को ( पिवति ) पान करता है । और ( यस्मिन् ) जिसके अधीन ( इन्द्रः ) शत्रुहन्ता सेनापति और ऐश्वर्यवान् सम्पन्न भूमिपति लोग भी ( गो-सखायं ) वाणी या वचन के अनुसार वा भूमिवासी प्रजा के मित्रवत् उपकारक ( सोमं पिबति ) राष्ट्र का पालन करता है । और जिस राज्य में ( इन्द्रः ) विद्युत् ( वृत्रं ) मेघ को ( सत्वनैः ) बलवत् प्रहारों से ( अजति) कंपाता, ( हन्ति ) ताड़ित करता और ( क्षितीः क्षेति ) मनुष्यों को देवमातृक भूमियों में बसाता है और उसके तुल्य ही राजा स्वयं भी ( वृत्रं ) बढ़ते हुए शत्रु को ( सत्वनैः) प्रबल वीरों से ( अजति ) उखाड़ता और ( हन्ति ) दण्डित करता है, ( क्षितीः क्षेति ) अपनी भूमियों और प्रजाओं को बसाता है । वह स्वयं राजा भी विद्युत्वत् ही ( सुभगः) उत्तम सौभाग्यशाली ऐश्वर्यवान् होकर (नाम पुष्यन् ) अपने नाम को पुष्ट करता, प्रसिद्धि पाता और राष्ट्र को भी पुष्ट करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अत्रिर्ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १ निचृत्पंक्तिः । २ विराट्त्रिष्टुप् । ३, ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
हन्ति वृत्रे, क्षेति क्षितीः
पदार्थ
[१] सः = वह राजा - दीप्त जीवनवाला पुरुष न व्यथते= कभी पीड़ित नहीं होता, यस्मिन्- जिस पुरुष के जीवन में इन्द्रः = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु तीव्रम् - इन शत्रुओं के संहार के लिये अत्यन्त तीव्र गोसखायम् - ज्ञान की वाणियों के मित्र सोमम् सोम को पिबति-शरीर में पीता है, अर्थात् व्याप्त करता है। प्रभु की कृपा से ही सोम शरीर में सुरक्षित होता है, मानो प्रभु ही इसका पान करते हैं। [२] यह पुरुष सत्वनैः = सब शक्तियों के साथ आ अजति समन्तात् गतिवाला होता है। अपने सब कर्त्तव्य कर्मों को शक्ति के साथ करता है। वृत्रं हन्ति वासना को यह विनष्ट करता है । क्षितीः क्षेति= इन शरीरों में उत्तम निवासवाला होता है। सुभगः = सौभाग्यवाला होता हुआ नाम पुष्यन्- अपने जीवन में प्रभु के नाम का पोषण करता है। सदा प्रभु स्मरणपूर्वक चलता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु कृपा से सोम का रक्षण होने पर हमारा जीवन दीप्त बनता है, यह सोम हमारे साथ ज्ञान की वाणियों के सम्पर्क को करता है। हमारे बल को यह सोम बढ़ाता है, वासना को विनष्ट करता हैं और हमें सौभाग्यशाली व प्रभु प्रवण बनाता है ।
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या राजाच्या ताब्यात भूमी, जल, अग्नी व वायू आहेत त्या राजाला कोणत्याही शत्रू इत्यादींचे कधीही भय नसते व तो राजा जगात प्रसिद्ध व यशस्वी होतो. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That ruler does not face want and trouble in whose realm Indra, fire or electric energy, consumes intense liquid, friendly with earth connection, and goes forward with various forms of power. The ruler moves forward, breaks the clouds for rain, destroys the demon of darkness with light and knowledge, and settles his people in homes, thus progressing all forward in health and sustenance and earning a name for wealth and power.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The nature of fact locomotion is described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
That king suffers no fear or trouble in whose kingdom the electricity drinks strong waster (hydro-eclectic); its companion is earth (i.e. used in proper combination of water, earth and other elements) and which is used in various means of quick locomotion. It strikes the cloud. That king becomes prosperous and makes other men also wealthy and gives them residential lands by enhancing his glory or good reputation.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The king who has (through scientific knowledge of ) the earth, water, fire and air under his control, is never afraid of his enemies or other's. He becomes famous and glorious in this world.
Foot Notes
(इन्द्रः) विद्युत् । यदशनिरिन्द्रस्तेन (Kaushitaki Brahman 6, 9) = Electricity. (सोमम् ) जलम् । सोमः पेय: (Stph 12, 7, 3, 13)। = Water. (सत्वनैः) रथादिद्रव्यैः । = With chariots and other quick-going things. (क्षेति ) निवासयत्यैश्वर्य करोति वा । क्षि-निवासगत्योः (तुदा० ) अत्र निवासार्थकः । क्षितयः इति मनुष्यनाम (NG 2,3) क्षियति ऐश्वर्यकर्मा (MK 2, 14)। = Causes them to reside or makes them wealthy.
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