ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 49/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रतिभानुरात्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
दे॒वं वो॑ अ॒द्य स॑वि॒तार॒मेषे॒ भगं॑ च॒ रत्नं॑ वि॒भज॑न्तमा॒योः। आ वां॑ नरा पुरुभुजा ववृत्यां दि॒वेदि॑वे चिदश्विना सखी॒यन् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वम् । वः॒ । अ॒द्य । स॒वि॒तार॑म् । आ । ई॒षे॒ । भग॑म् । च॒ । रत्न॑म् । वि॒ऽभज॑न्तम् । आ॒योः । आ । वा॒म् । न॒रा॒ । पु॒रु॒ऽभु॒जा॒ । व॒वृ॒त्या॒म् । दि॒वेऽदि॑वे । चि॒त् । अ॒श्वि॒ना॒ । स॒खि॒ऽयन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवं वो अद्य सवितारमेषे भगं च रत्नं विभजन्तमायोः। आ वां नरा पुरुभुजा ववृत्यां दिवेदिवे चिदश्विना सखीयन् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठदेवम्। वः। अद्य। सवितारम्। आ। ईषे। भगम्। च। रत्नम्। विऽभजन्तम्। आयोः। आ। वाम्। नरा। पुरुऽभुजाः। ववृत्याम्। दिवेऽदिवे। चित्। अश्विना। सखिऽयन् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 49; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैः परोपकार एव कर्त्तव्य इत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! अहमद्य व आयोर्विभजन्तं देवं सवितारं रत्नं भगञ्चेषे। हे पुरुभुजा नरा अश्विना ! सखीयन्नहं चिद्दिवेदिवे वामा ववृत्याम् ॥१॥
पदार्थः
(देवम्) विद्वांसम् (वः) युष्मदर्थम् (अद्य) (सवितारम्) ऐश्वर्य्यवन्तम् (आ) (ईषे) इच्छामि (भगम्) ऐश्वर्य्यम् (च) (रत्नम्) रमणीयं धनम् (विभजन्तम्) विभागं कुर्वन्तम् (आयोः) जीवनस्य (आ) (वाम्) युवाम् (नरा) नेतारौ (पुरुभुजा) यौ पुरून् बहून् पालयतस्तौ (ववृत्याम्) वर्त्तयेयम् (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (चित्) (अश्विना) राजप्रजाजनौ (सखीयन्) सखेवाचरन् ॥१॥
भावार्थः
ये मनुष्याः सखायो भूत्वा परार्थं सुखमिच्छेयुस्ते सदैव माननीया भवेयुः ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब पाँच ऋचावाले उनचासवें सूक्त का प्रारम्भ किया जाता है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को चाहिये कि परोपकार ही करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! मैं (अद्य) आज (वः) आप लोगों के लिये (आयोः) जीवन का (विभजन्तम्) विभाग करते हुए (देवम्) विद्वान् (सवितारम्) ऐश्वर्यवान् (रत्नम्) रमणीय धन (भगम्) और ऐश्वर्य्य को (च) भी (आ, ईषे) अच्छे प्रकार चाहता हूँ और हे (पुरुभुजा) बहुतों का पालन करते हुए (नरा) अग्रणी (अश्विना) राजा और प्रजाजनो ! (सखीयन्) मित्र के सदृश आचरण करता हुआ मैं (चित्) निश्चित (दिवेदिवे) प्रतिदिन (वाम्) आप दोनों को (आ, ववृत्याम्) अच्छे प्रकार वर्त्ताऊँ ॥१॥
भावार्थ
जो मनुष्य मित्र होकर दूसरे के लिये सुख की इच्छा करें, वे सदा ही आदर करने योग्य होवें ॥१॥
विषय
पितावत् शासकों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०- ( अद्य ) आज हे विद्वान् पुरुषो ! ( वः ) आप लोगों के बीच (देवं) दानशील, तेजस्वी, (सवितारं ) सर्वप्रेरक, सर्वोत्पादक, पितावत् पूज्य (भगं ) ऐश्वर्य युक्त और ( आयोः ) मनुष्यमात्र को ( रत्नं विभजन्तं ) उत्तम बल, ऐश्वर्य न्यायानुसार बांटते हुए को ( आ ईषे ) आदर पूर्वक प्राप्त होऊं और मैं ( सखीयन) मित्र के समान आचरण करता हुआ (दिवे दिवे ) दिनों दिन ( अश्विना चित् ) दिन वा रात्रि या सूर्य चन्द्र के तुल्य ( पुरु-भुजा ) बहुतों के पालन करने वाले ( नरा ) उत्तम नेता स्वरूप (वाम् ) आप दोनों राजा रानी, पति पत्नी वा राजा सचिव दोनों को (आ ववृत्याम् ) उत्तम व्यवहार में नियुक्त करूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रतिप्रभ आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:- १, २, ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् पंक्तिः ॥
विषय
'सवितादेव, भग व अश्विनीदेवों' का आराधन
पदार्थ
[१] (अद्य) = आज (वः सवितारम्) = तुम सब के प्रेरक (देवम्) = प्रकाशमय प्रभु को (आ ईषे) = [उपगच्छामि] समीपता से प्राप्त होता हूँ, प्रेरक प्रभु की उपासना करता हूँ। (च) = और प्रभु की उपासना के साथ (भगम्) = ऐश्वर्य की देवता का भी आराधन करता हूँ, जो (आयो:) = गतिशील पुरुषों को (रत्नं विभजन्तम्) = रमणीय वस्तुओं को विभागपूर्वक प्राप्त कराते हैं। 'सवितादेव' का उपासन मुझे अध्यात्म दृष्टिकोण से उन्नत करता है और 'भग' की उपासना मेरी भौतिक आवश्यकताओं को पूर्ण करती है। 'सवितादेव' की उपासना ही परमात्मा की अर्चना है। [२] हे नरा मुझे उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले, (पुरुभुजा) = खूब ही मेरा पालन करनेवाले (अश्विना) = प्राणापानो! मैं सखीयन्=प्रभु की मित्रता की कामना करता हुआ वाम्-आप दोनों को दिवे दिवे चित्-प्रतिदिन ही आ ववृत्याम्- अपने अभिमुख करने का प्रयत्न करूँ। यह प्राणापान की साधना ही वस्तुतः हमें प्रभु की मित्रता को प्राप्त कराती है।
भावार्थ
भावार्थ- हम सवितादेव, भग व अश्विनीदेवों की आराधना करनेवाले बनें ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात सूर्य व विद्वानाच्या गुणांचे वर्णन केल्याने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
जी माणसे मित्र बनून दुसऱ्याचे सुख इच्छितात ती सदैव आदरणीय असतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
For you all today I love, gratefully desire and pray for favour of the brilliant and generous Savita, inspirer of light and life, Bhaga, treasure source of honour and prosperity and the loving spirit of life and living beings that showers the jewel wealth and felicity on all. O Ashvins, leading complementarities of nature powers and humanity, ruler and people, leaders and followers, men and women, parents and children, teachers and disciples, blessed participants and celebrants of life for all, I love to be friends with you and pray that I may love, cooperate and be with you day in and day out.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Men should always do good to others is narrated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! I desire a wealthy learned man who preaches proper division of the life (in the form of Ashramas), charming wealth and prosperity, and leading men of the king and many supporter subjects. They behave like a friend day in and day out. I solicit your presence and help.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons always deserve great respect who are friends by their acts and desire the happiness of others.
Foot Notes
(अश्विना ) राजप्रजाजनो। अश्विनो इन्द्रियाश्व-स्वामिनो । इन्द्रियाणि हयानाहु: ( कठोप० 1, 3, 4) तस्माज्जितेन्द्रियो राजप्रजापुरुषो | = Prominent men of the king and the subjects ( पुरुभुजा) यो पुरून् वहून् पालयतस्तौ । पुरु इति बहुनाम (N G3, 1) भुज पालनाभ्यव्यवहारयो ( रुधा० ) अत्र- पालनार्थग्रहणम् । = Those who support and nourish many.
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