ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 67/ मन्त्र 1
ऋषिः - रातहव्य आत्रेयः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
बळि॒त्था दे॑वा निष्कृ॒तमादि॑त्या यज॒तं बृ॒हत्। वरु॑ण॒ मित्रार्य॑म॒न्वर्षि॑ष्ठं क्ष॒त्रमा॑शाथे ॥१॥
स्वर सहित पद पाठबट् । इ॒त्था । दे॒व॒ । निः॒ऽकृ॒तम् । आदि॑त्या । य॒ज॒तम् । बृ॒हत् । वरु॑ण । मित्र॑ । अर्य॑मन् । वर्षि॑ष्ठम् । क्ष॒त्रम् । आ॒शा॒थे॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
बळित्था देवा निष्कृतमादित्या यजतं बृहत्। वरुण मित्रार्यमन्वर्षिष्ठं क्षत्रमाशाथे ॥१॥
स्वर रहित पद पाठबट्। इत्था। देवा। निःऽकृतम्। आदित्या। यजतम्। बृहत्। वरुण। मित्र। अर्यमन्। वर्षिष्ठम्। क्षत्रम्। आशाथे इति ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 67; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यैः किंवत् किं करणीयमित्याह ॥
अन्वयः
हे देवा आदित्या मित्र वरुण ! युवां बृहन्निष्कृतं यजतं, हे अर्य्यमन्नित्था त्वं च यज। हे मित्रावरुण ! युवां यथा बड् वर्षिष्ठं क्षत्रमाशाथे तथेदमर्यमन्नपि प्राप्नोतु ॥१॥
पदार्थः
(बट्) सत्यम् (इत्था) अनेन प्रकारेण (देवा) दिव्यस्वभावौ (निष्कृतम्) निष्पन्नम् (आदित्या) अविनाशिनौ (यजतम्) सङ्गच्छेताम् (बृहत्) महत् (वरुण) श्रेष्ठ (मित्र) सुहृत् (अर्यमन्) न्यायकारिन् (वर्षिष्ठम्) अतिशयेन वृद्धम् (क्षत्रम्) राज्यं धनं वा (आशाथे) प्राप्नुथः ॥१॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । यथा विद्वांसोऽत्र धर्म्याणि कुर्युस्तथा राज्यं राजादयः पालयन्तु ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब पाँच ऋचावाले सड़सठवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को किसके तुल्य क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (देवा) श्रेष्ठ स्वभाववाले (आदित्या) अविनाशी (मित्र) मित्र (वरुण) श्रेष्ठ ! आप दोनों (बृहत्) बड़े (निष्कृतम्) उत्पन्न हुए को (यजतम्) उत्तम प्रकार मिलो, हे (अर्य्यमन्) न्यायकारी ! (इत्था) इस प्रकार से आप भी मिलिये और हे मित्र श्रेष्ठ जनो ! तुम जैसे (बट्) सत्य (वर्षिष्ठम्) अत्यन्त बढ़े हुए (क्षत्रम्) राज्य वा धन को (आशाथे) प्राप्त होते हो, वैसे इसको न्यायकारी भी प्राप्त हो ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे विद्वान् जन इस संसार में धर्म्म युक्त कर्म्मों को करें, वैसे राज्य का राजा आदि पालन करें ॥१॥
विषय
मित्र और वरुण । दो प्रजापालकों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०-हे (देवा) दानशील, तेजस्वी, हे ( आदित्या ) भूमि के पुत्रवत् हितकारी, हे ( वरुण मित्र अर्यमन् ) दुष्टों के वारक, प्रजा को मृत्यु से बचाने वाले, स्नेहयुक्त ! शत्रुओं और प्रजाजनों का नियन्त्रण करने वाले विद्वान् पुरुषो ! आप दोनों (बृहत् ) बड़े भारी ( क्षत्रं ) बल सैन्य को (यजतं ) प्राप्त करो। और ( वर्षिष्ठं ) उत्तम ऐश्वर्यदायक, शत्रु पर अस्त्र वर्षी तथा राज्य का उत्तम प्रबन्ध करने में समर्थ ( क्षत्रं ) बल सम्पत्ति को ( आशाथे ) प्राप्त करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यजत आत्रेय ऋषिः ।। मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, २, ४ निचृदनुष्टुप् । ३, ५ विराडनुष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'निष्कृत-यजत बृहत्' क्षत्र
पदार्थ
[१] हे (देवा) = द्योतमान- प्रकाशमान (आदित्या) = अदिति के पुत्रों [अ-दिति खण्डन] पूर्ण स्वास्थ्य से उत्पन्न होनेवाले (वरुण) = निर्देषता के भाव तथा (अर्यमन्) = शत्रुओं के नियन्तः (मित्र) = स्नेह के देव! आप दोनों (बट्) = सचमुच (इत्था) = [इदानीं] अब (क्षत्रम्) = बल का (आशाथे) = व्यापन करते हो। हम अस्वस्थ होते हैं, तभी ईर्ष्या-द्वेष-क्रोध में चलने लगते हैं। ये मित्र और वरुण हमारे जीवन को प्रकाशमय बना देते हैं। [२] ये मित्र और वरुण उस बल को हमें प्राप्त कराते हैं, जो (निष्कृतम्) = हमारे जीवन को बड़ा परिष्कृत बनाता है। (यजतम्) = परस्पर मेल की भावना को बढ़ाता है [संगतिकरण] । (बृहत्) = वृद्धि का कारण बनता है और (वर्षिष्ठम्) = अतिशयेन बढ़ा हुआ है। अहंकार युक्त शक्ति हमारे जीवन को परिष्कृत नहीं बनाती, वह हमें आपस में मिलानेवाली नहीं होती और अन्ततः हमारे हास का कारण बनती है।
भावार्थ
भावार्थ– स्नेह व निर्देषता के भाव से हमें वह शक्ति प्राप्त होती है, जो हमें पवित्र, मेल की भावनावाला व गुणों की दृष्टिकोण से बढ़ा हुआ बनाती है ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात मित्र वरुण व विद्वानांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची या पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक या जगात धर्मयुक्त कर्म करतात तसे राजाने राज्याचे पालन करावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
It is true, thus, that three brilliant and generous powers of divinity vested in humanity organise, sustain and promote the grand, united and adorable world order achieved and established: Mitra, spirit of love, friendship and constant vigilance; Varuna, spirit of justice, rectitude and discriminative sense of values and wisdom; and Aryaman, innate energy, comprehensive vision and all embracing spirit of progressive planning and guidance.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The men should follow an ideal person is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened immortal friend and noble person! be united with all great that has been accomplished. O friend O dispenser of justice! you should also do the same. and noble person! as you enjoy the most advanced kingdom or wealth, so let this administrator of justice also do.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the enlightened person do the righteous acts, so the king and officers of the State preserve and protect the State.
Foot Notes
(निष्कृतम्) निष्पन्नम्। = Accomplished. (वर्षिष्ठम् ) अतिशयेन वृद्धम् । (वर्षिष्ठम् ) वृद्ध शब्दादिष्ठन् वर्षिरादेशश्च । वर्षि इति सत्यनाम (NG 3, 10) = Most Advanced. (क्षत्रम्) राज्यं धनं वा । क्षत्रमिति धननाम (NG 2,10) क्षत्र हि (ग्रीम:) राष्ट्रम् (ऐत० 7, 22 जैमि० 1, 88 ) = The State or world.
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