ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 77/ मन्त्र 4
यो भूयि॑ष्ठं॒ नास॑त्याभ्यां वि॒वेष॒ चनि॑ष्ठं पि॒त्वो रर॑ते विभा॒गे। स तो॒कम॑स्य पीपर॒च्छमी॑भि॒रनू॑र्ध्वभासः॒ सद॒मित्तु॑तुर्यात् ॥४॥
स्वर सहित पद पाठयः । भूयि॑ष्ठम् । नास॑त्याभ्याम् । वि॒वेष॑ । चनि॑ष्ठम् । पि॒त्वः । रर॑ते । वि॒ऽभा॒गे । सः । तो॒कम् । अ॒स्य॒ । पी॒प॒र॒त् । शमी॑भिः । अनू॑र्ध्वऽभासः । सद॑म् । इत् । तु॒तु॒र्या॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो भूयिष्ठं नासत्याभ्यां विवेष चनिष्ठं पित्वो ररते विभागे। स तोकमस्य पीपरच्छमीभिरनूर्ध्वभासः सदमित्तुतुर्यात् ॥४॥
स्वर रहित पद पाठयः। भूयिष्ठम्। नासत्याभ्याम्। विवेष। चनिष्ठम्। पित्वः। ररते। विऽभागे। सः। तोकम्। अस्य। पीपरत्। शमीभिः। अनूर्ध्वऽभासः। सदम्। इत्। तुतुर्यात् ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 77; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यो नासत्याभ्यां शमीभिर्भूयिष्ठं चनिष्ठं विवेष पित्वो विभागे ररते सोऽनूर्ध्वभासोऽस्य तोकं पीपरत् स इत्सदं तुतुर्यात् ॥४॥
पदार्थः
(यः) (भूयिष्ठम्) अतिशयेन बहु (नासत्याभ्याम्) अविद्यमानासत्याभ्याम् (विवेष) वेवेष्टि (चनिष्ठम्) अतिशयेनान्नम् (पित्वः) अन्नस्य (ररते) राति ददाति (विभागे) (सः) (तोकम्) अपत्यम् (अस्य) (पीपरत्) पालयेत् (शमीभिः) कर्म्मभिः (अनूर्ध्वभासः) न ऊर्द्ध्वा भासो दीप्तिर्यस्य (सदम्) प्राप्तं दुःखम् (इत्) (तुतुर्यात्) हिंस्यात् ॥४॥
भावार्थः
येऽग्न्युदकाभ्यां बहूनि कार्य्याणि साध्नुवन्ति ते जगतो रक्षणं कृत्वा सर्वं विषादं हन्तुमर्हन्ति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यः) जो (नासत्याभ्याम्) नहीं विद्यमान असत्य जिनके उनसे (शमीभिः) कर्म्मों के द्वारा (भूयिष्ठम्) अतीव बहुत (चनिष्ठम्) अतिशय अन्न को (विवेष) व्याप्त होता है और (पित्वः) अन्न के (विभागे) विभाग में (ररते) देता है (सः) वह (अनूर्ध्वभासः) नहीं ऊपर कान्तियाँ जिसकी (अस्य) इसके (तोकम्) सन्तान का (पीपरत्) पालन करे वह (इत्) ही (सदम्) प्राप्त दुःख का (तुतुर्यात्) नाश करे ॥४॥
भावार्थ
जो अग्नि और जल से बहुत कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वे जगत् का रक्षण करके सम्पूर्ण दुःख के नाश करने योग्य हैं ॥४॥
विषय
प्रधान पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
भा०- (यः) जो पुरुष, ( नासत्याभ्याम् ) कभी असत्य व्यवहार न रखने वाले स्त्री पुरुषों के लिये ( भूयिष्ठं ) बहुत अधिक और ( चनिष्ठं) उत्तमोत्तम अन्न ( विवेष ) प्रदान करता है और (वि-भागे) विविध प्रकार से विभक्त करने के निमित्त ( पित्वः ) अन्न का ( ररते) दान करता है ( सः ) वह ( शमीभिः ) अपने शान्तिजनक कर्मों से (अस्य) इस राष्ट्र के ( तोकम् ) पुत्र के समान प्रजाजन को ही ( पीपरत् ) पालन करता है, और ( अनूर्ध्व-भासः ) ऊपर को उठने वाली दीप्तियों से रहित, अग्नि आदि से रहित, अथवा अतेजस्वी, अल्पदीप्ति अग्निवत् स्वल्प शक्ति वाले दीन जन वा राष्ट्र के ( सदम् ) प्राप्त दुःख वा नाशकारी कष्ट को ( इत्) ही ( तुतुर्यात् ) नाश किया करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अत्रिर्ऋषिः ।। अश्विनौ देवते । त्रिष्टुप् छन्दः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ।।
विषय
प्राणायाम- सात्विक अन्न का सेवन
पदार्थ
[१] (यः) = जो (नासत्याभ्याम्) = इन प्राणापानों के लिये (भूयिष्ठम्) = अत्यधिक (विवेष) = व्याप्तिवाला होता है, अर्थात् जो प्राणापान को साधना के लिये अधिकाधिक समय को देता है तथा (विभागे) = हविर्विभागवाले यज्ञादि कर्मों के होने पर (पित्वः चनिष्ठम्) = अन्नों में उत्तम अन्नों को इनके लिये (ररते) = देता है। अर्थात् यज्ञशेष के रूप में सात्त्विक अन्नों का सेवन करता है। (सः) = वह व्यक्ति (अस्य तोकम्) = इस अपने शरीरस्थ की वृद्धि को (पीपरत्) = पालित करता है। अर्थात् प्राणायाम व यज्ञशिष्ट सात्त्विक अन्न के सेवन से उसका यह शरीर सब दृष्टियों से उन्नत ही उन्नत होता है। [२] यह प्राणसाधक पुरुष (शमीभिः) = शान्त भाव से किये जानेवाले कर्मों से (अनूर्ध्वभासः) = अतेजस्विताओं को [न ऊर्ध्व भास्] अथवा अयज्ञिय भावनाओं को जिनमें यज्ञाग्नि का प्रज्वलन नहीं होता, उन वृत्तियों को (सदं इत्) = सदा ही (तुतुर्यात्) = विनष्ट करता है, अर्थात् यह तेजस्वी व यज्ञशील बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणायाम करने व सात्त्विक यज्ञशिष्ट अन्न के सेवन से यह शरीर वृद्धि को प्राप्त करता है। हम तेजस्वी व यज्ञशील बनते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
जे अग्नी व जलाने पुष्कळ कार्य करतात. ते जगाचे रक्षण करून संपूर्ण दुःखाचा नाश करू शकतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
One who serves and works with the Ashvins, leading lights of divinity and humanity, all free from untruth and falsehood, achieves by his creative works abundant cherished food. He shares the food and success with others in yajnic living, advances his rising generation by the same works, surpasses those who do not raise the sacred-fire, and always destroys the evils.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The men's duties are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! one who by the help or guidance of the men of absolutely truthful conduct obtains abundant food materials by his actions and distributes that food among the needy, furthers with (promotes. Ed.) such holy works and his offspring, he surpasses those whose flames ascend not, i. e., who do not perform Yajnas. He is able to destroy the obstructions or sufferings (hardships. Ed.) that come on the way.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who are able to accomplish many works with fire and water, they protect the world and can alleviate much sufferings.
Foot Notes
(चनिष्ठम् ) अतिज्ञयेनान्नम् । चनः - अन्नम्: = Abundant food. (पित्व:) अन्नस्य । पितुः इत्यन्ननाम (NG 2, 7) = Of the food. (सदम् ) प्राप्तं दुःखम् । षद्लु-विशरणगत्यवसादनेषु । अत्र: गते प्राप्त्यर्थमादाय व्याख्यानं-प्राप्त दुःखमिति । = The misery that falls or comes on the way. (पीपरत) पालयेत् । पु-पालनपूरणयो: (जुहो० ) । अत्रपालनार्थंक: = May nourish, feed or maintain.
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