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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 86/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अत्रिः देवता - वरुणः छन्दः - ब्राह्म्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    इन्द्रा॑ग्नी॒ यमव॑थ उ॒भा वाजे॑षु॒ मर्त्य॑म्। दृ॒ळ्हा चि॒त्स प्र भे॑दति द्यु॒म्ना वाणी॑रिव त्रि॒तः ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑ । यम् । अव॑थः । उ॒भा । वाजे॑षु । मर्त्य॑म् । दृ॒ळ्हा । चि॒त् । सः । प्र । भे॒द॒ति॒ । द्यु॒म्ना । वाणीः॑ऽइव । त्रि॒तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्राग्नी यमवथ उभा वाजेषु मर्त्यम्। दृळ्हा चित्स प्र भेदति द्युम्ना वाणीरिव त्रितः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्राग्नी इति। यम्। अवथः। उभा। वाजेषु। मर्त्यम्। दृळ्हा। चित्। सः। प्र। भेदति। द्युम्ना। वाणीःऽइव। त्रितः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 86; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वांसः किं कुर्वन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्राग्नी इवाऽध्यापकोपदेशकौ ! युवामुभा वाजेषु यं मर्त्यमवथः स चित्त्रितो वाणीरिव दृळ्हा द्युम्ना प्र भेदति ॥१॥

    पदार्थः

    (इन्द्राग्नी) वायुविद्युताविवाध्यापकोपदेशकौ (यम्) (अवथः) रक्षथः (उभा) (वाजेषु) सङ्ग्रामेषु (मर्त्यम्) मनुष्यम् (दृळ्हा) स्थिराणि (चित्) अपि (सः) (प्र) (भेदति) भिनत्ति (द्युम्ना) धनानि यशांसि वा (वाणीरिव) (त्रितः) त्रिभ्योऽध्यापनोपदेशनरक्षणेभ्यः ॥१॥

    भावार्थः

    यत्र धार्मिका विद्वांसः शूरा बलिष्ठाः शिक्षकाश्च सन्ति तत्र कोऽपि न दुःखं प्राप्नोतीति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब छः ऋचावाले छियासीवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् जन क्या करते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्राग्नी) वायु और बिजुली के सदृश अध्यापक और उपदेशको ! तुम (उभा) दोनों (वाजेषु) संग्रामों में (यम्) जिस (मर्त्यम्) मनुष्य की (अवथः) रक्षा करते हो (सः) वह (चित्) भी (त्रितः) तीन अर्थात् अध्यापन, उपदेशन और रक्षण से (वाणीरिव) जैसे वाणियों का वैसे (दृळ्हा) स्थिर (द्युम्ना) धनों वा यशों का (प्र, भेदति) अत्यन्त भेद करता है ॥१॥

    भावार्थ

    जहाँ धार्मिक, विद्वान्, शूरवीर, बलिष्ठ और शिक्षक हैं, वहाँ पर कोई भी नहीं दुःख को प्राप्त होता है ॥१॥

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    विषय

    इन्द्र, अग्नि। विद्युत् अग्निवत् नायक, अध्यक्षों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०-हे ( इन्द्राग्नी) इन्द्र, ऐश्वर्यवन्! हे अग्नि, अग्रणी नायक ! और हे इन्द्र, ज्ञान को साक्षात् दिखाने, अज्ञान को भेदने वा दूर भगा देने वाले ! हे अग्ने, पाप को दग्ध करने वाले ! आप दोनों ( वाजेषु ) संग्रामों में विद्युत् और अग्नि वा सेनापति और नायक के तुल्य ज्ञानों और ऐश्वर्यों को प्राप्त करने के अवसरों में ( यम् मर्त्यम् अवथ ) जिस मनुष्य को रक्षा करते और तृप्त करते हो और अन्नों पर जिसको पालते हो ( सः ) वह (दृढ़ा चित्) बड़े २ दृढ़ शत्रु सैन्यों को वीर पुरुष के समान, दृढ़, जटिल अवसरों को ( प्र भेदति ) ऐसे भेदकर पार हो जाता है, जैसे (त्रितः ) तीनों वेद विद्याओं में पारंगत पुरुष (द्युम्नाः वाणीः प्र भेदति ) यशोजनक, उत्तम ज्ञानप्रकाशक व वेदवाणियों के मर्मों को भेदकर, भली प्रकार जानकर, इस अज्ञान-सागर से पार उतर जाता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः । इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्द:–१, ४, ५ स्वराडुष्णिक् । २, ३ विराडनुष्टुप् । ६ विराट् पूर्वानुष्टुप् ॥

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    विषय

    दृढदुर्ग भेदन

    पदार्थ

    [१] 'इन्द्र' बल का प्रतीक है तथा 'अग्नि' प्रकाश का । हे (इन्द्राग्नी) = बल व प्रकाश की देवताओ ! आप (उभा) = दोनों (वाजेषु) = इन जीवन-संग्रामों में (यं मर्त्यम्) = जिस मनुष्य को (अवथः) = रक्षित करते हो । (सः) = वह (दृढा चित्) = काम-क्रोध-लोभ रूप शत्रुओं के दृढ़ दुर्गों को भी (प्रभेदति) = विदीर्ण कर डालता है। शरीर में शक्ति व मस्तिष्क में ज्ञान के होने पर इस प्रकार बल व ज्ञान के समन्वय के होने पर काम-क्रोध-लोभ नष्ट हो जाते हैं । [२] इन शत्रुदुर्गों का प्रभेदन यह इस प्रकार करता है (इव) = जैसे कि (त्रितः) = काम-क्रोध-लोभ से तैर जानेवाला व्यक्ति अथवा 'शरीर, मन, बुद्धि' तीनों का विस्तार करनेवाला यह व्यक्ति (द्युम्नाः वाणी) = ज्योतिर्मयी ज्ञानवाणियों को प्रभेदति खुले हुए मर्मवाला करता है। इन ज्ञान-वाणियों के रहस्य को यह समझनेवाला बनाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञान व बल का समन्वय हमें काम-क्रोध-लोभ को जीतनेवाला तथा ज्ञानवाणियों के मर्म को समझनेवाला बनाता है।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात इंद्र, अग्नी व विद्युतच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जेथे धार्मिक, विद्वान, शूर, बलवान व शिक्षक असतात तेथे कुणालाही दुःख प्राप्त होत नाही. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra and Agni, divine power and knowledge, celestial and terrestrial energy of electricity and fire, both ruler and enlightened leaders, whosoever the mortal you protect, guide and promote, he breaks through massive obstructions in the battle business of life, and wins his way to wealth, honour and splendour, just like the sagely scholar of threefold freedom of body, mind and soul who penetrates through three layers of language, vaikhari, madhyama and pashyanti, i.e., word, thought and deep memory, and reaches the vision of the para, the supreme Word and silence of Divinity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the scholars do is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers! you are like the air and electricity. The man whom you protect in the battles breaks through even the strongly-guarded wealth or good reputation, like a highly learned person breaks through even the difficult portions of the shastras with his teaching, preaching and protection.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Where there are good teachers who are righteous, highly learned, brave and mighty, none can remain miserable.

    Foot Notes

    (इन्द्राग्नी) वायुविद्य ता विवाध्यापकोपदेशकौ यो वै वायुः स इन्द्र । य इन्द्रः स वायु: ( Stph 4, 1, 3, 19)। = Teachers and preachers who are useful like the air and electricity. (दयुम्ना) धनानि यशासि वा दयुम्नं द्योततेर्यशोवा अन्नम् वेति (NKT 5, 1, 5) दयुम्नामिति धननाम (NG 2, 10)। = Wealth of various kinds, or good reputation.(त्रितः ) त्रिभ्योऽध्यापनोपदेशरक्षणेभ्य: । = By the things, ie teaching, preaching and protection.

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