ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 87/ मन्त्र 3
प्र ये दि॒वो बृ॑ह॒तः शृ॑ण्वि॒रे गि॒रा सु॒शुक्वा॑नः सु॒भ्व॑ एव॒याम॑रुत्। न येषा॒मिरी॑ स॒धस्थ॒ ईष्ट॒ आ अ॒ग्नयो॒ न स्ववि॑द्युतः॒ प्र स्प॒न्द्रासो॒ धुनी॑नाम् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ये । दि॒वः । बृ॒ह॒तः । शृ॒ण्वि॒रे । गि॒रा । सु॒ऽशुक्वा॑नः । सु॒ऽभ्वः॑ । ए॒व॒याम॑रुत् । न । येषा॑म् । इरी॑ । स॒धऽस्थे॑ । ईष्टे॑ । आ । अ॒ग्नयः॑ । न । स्वऽवि॑द्युतः । प्र । स्प॒न्द्रासः॑ । धुनी॑नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ये दिवो बृहतः शृण्विरे गिरा सुशुक्वानः सुभ्व एवयामरुत्। न येषामिरी सधस्थ ईष्ट आ अग्नयो न स्वविद्युतः प्र स्पन्द्रासो धुनीनाम् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठप्र। ये। दिवः। बृहतः। शृण्विरे। गिरा। सुऽशुक्वानः। सुऽभ्वः। एवयामरुत्। न। येषाम्। इरी। सधऽस्थे। ईष्टे। आ। अग्नयः। न। स्वऽविद्युतः। प्र। स्यन्द्रासः। धुनीनाम् ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 87; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! ये सुशुक्वानः सुभ्वो दिवः स्वविद्युतो धुनीनां स्यन्द्रासोऽग्नयो न गिरा बृहतः प्र शृण्विरे येषामेवयामरुदिरी सधस्थे न प्रेष्टे तान् यूयमा विजानीत ॥३॥
पदार्थः
(प्र) (ये) (दिवः) कामयमानान् विद्युदादीन् वा (बृहतः) महतः (शृण्विरे) शृण्वन्ति (गिरा) वाण्या (सुशुक्वानः) सुष्ठु शुद्धाः (सुभ्वः) ये शोभने धर्म्ये व्यवहारे भवन्ति (एवयामरुत्) (न) निषेधे (येषाम्) (इरी) प्रेरकः (सधस्थे) समानस्थे (ईष्टे) ईशनं करोति (आ) समन्तात् (अग्नयः) पावकाः (न) इव (स्वविद्युतः) स्वेन रूपेण व्याप्तः (प्र) (स्यन्द्रासः) प्रस्रवन्तः प्रस्रावयन्तो वा (धुनीनाम्) कम्पनक्रियावतीनाम् भूम्यादीनाम् ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! ये विद्याकामा महतीर्विद्याः प्राप्य विद्युदादिपदार्थान् स्वाधीनान् कुर्वन्ति ते एव सिद्धेच्छा जायन्ते ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (ये) जो (सुशुक्वानः) उत्तम प्रकार शुद्ध (सुभ्वः) और सुन्दर धर्मयुक्त व्यवहार में होनेवाले (दिवः) कामना करते हुओं वा बिजुली आदिकों को जैसे (स्वविद्युतः) अपने स्वरूप से व्याप्त और (धुनीनाम्) कम्पन क्रिया से युक्त भूमि आदिकों के (स्यन्द्रासः) पिघलते हुए वा पिघलाते हुए (अग्नयः) अग्नियाँ (न) वैसे (गिरा) वाणी से (बृहतः) बड़े (प्र, शृण्विरे) सुनते हैं और (येषाम्) जिनका (एवयामरुत्) विज्ञानवाला मनुष्य (इरी) प्रेरणा करनेवाला (सधस्थे) समान स्थान में (न) जैसे वैसे (प्र, ईष्टे) स्वामी होता है, उनको आप लोग (आ) अच्छे प्रकार जानिये ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जो विद्या की कामना करनेवाले जन बड़ी विद्याओं को प्राप्त होकर बिजुली आदि पदार्थों को स्वाधीन करते हैं, वे ही सिद्ध इच्छावाले होते हैं ॥३॥
विषय
विद्वानों का कर्त्तव्य ज्ञानप्रसार ।
भावार्थ
भा० - जो विद्वान् पुरुष, ( बृहतः दिवः ) बड़े तेजस्वी सूर्यवत् ज्ञान प्रकाशक गुरु से ( शृण्विरे ) ज्ञान श्रवण करते हैं और ( एव-यामरुत् ) शिष्य जनों को ज्ञान मार्ग से ले जाने हारे गुरु की ( गिरा ) वाणी से ही ( सु-शुक्कान: ) उत्तम रीति से शुद्ध कान्तियुक्त होकर ( सु-भ्वः) उत्तम सामर्थ्यवान्, ज्ञान बीजों के लिये उत्तम भूमिवत् हैं और ( येषां सधस्थे ) जिनके साथ रहने में ( इरी ) उनका सञ्चालक गुरु भी ( न ईष्टे ) कभी इनको भय या त्रास उत्पन्न नहीं करता, वे आप लोग ( अग्नयः न ) अंग में विनयी, एवं अग्निवत् तेजस्वी, ( स्व-विद्युतः ) स्वयं विशेष दीप्तियुक्त और ( धुनीनाम् ) उत्तम वाणियों के, वा ( स्पन्द्रासः अथवा स्यन्द्रासः प्र ) प्रेरित करने वाले ज्ञान रस को बहाने वाले होवो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
एवयामरुद्रात्रेय ऋषिः । मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १ अति जगती । २, ८ स्वराड् जगती। ३, ६, ७ भुरिग् जगती । ४ निचृज्जगती । ५, ९ विराड् जगती॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
सुशुक्वानः, सुभ्वः [ज्ञानदीप्त-स्वस्थ]
पदार्थ
[१] (ये) = जो मरुत (बृहतः दिवः) = वृद्धि के कारणभूत महान् ज्ञान को (गिरा धुनीनाम्) = उत्तम वाणियों के द्वारा (प्रशृणिवरे) = खूब विश्रुत [प्रसिद्ध ] हैं। प्राणसाधना ही मनुष्य को सूक्ष्म बुद्धि बनाकर इन ज्ञान की वाणियों को समझने के योग्य बनाती है। ये व्यक्ति ही (सुशुक्वानः) = ज्ञान की उत्तम दीप्तिवाले होते हैं और (सुभ्वः) = [सुष्ठु भवन्तः] स्वस्थ होते हैं । (एवयामरुत्) = ये ही मार्ग पर चलनेवाले प्राणसाधक पुरुष हैं । [२] (येषाम्) = जिन प्राणों का (सधस्थे) = जीव व प्रभु के (सह) = स्थान हृदय में (इरी) = प्रेरिता (न ईष्टे) = हिंसित नहीं होता। वे प्राण (अग्नयः न) = अग्नियों के समान (स्वविद्युतः) = अपनी विशिष्ट दीप्तिवाले हैं और (धुनीनाम्) = [sounds] वाणियों के प्रस्पन्द्रासः प्रकर्षेण प्रेरित करनेवाले हैं। प्राणसाधना के होने पर ज्ञान की वाणियों का खूब ही प्रकाश होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना हमें 'ज्ञानदीप्त व स्वस्थ' बनाती है। इससे दीप्ति प्राप्त होती है और ज्ञान की वाणियों का रहस्य प्रकट हो जाता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जे विद्येची कामना करतात ते लोक महान विद्या प्राप्त करून विद्युत इत्यादी पदार्थांवर आपले नियंत्रण ठेवतात तेच सिद्धकाम असतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Evayamarut, O celebrant of the Maruts, they hear the voice of Divinity from the light of heaven, they are heard by their voice from the heights of heaven. Pure and brilliant, they live in holiness and felicity. No tyrant, impeller or compeller, can bend them in their right and abode. Self-refulgent like the flames of fire, they radiate, they make the winds blow and set the rivers aflow.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The enlightened persons duties are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should know those persons well who are perfectly pure, who are always engaged in righteous dealings, who are pervading in their forms (truthful manifestations) or well-versed in the knowledge of energy and other subjects, who are like fires melting or ripening earthen articles (pots, pitchers. Ed.) and who listen to the words (advice or sermon. Ed.) of the great men. There impeller is the master of those who approaches them that leads to happiness living on the same soil.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! the noble desires of those persons are fulfilled who desire to acquire knowledge, and having attained the knowledge related to many sciences have control over energy and other articles.
Foot Notes
(सुशुक्वानः) सुष्ठु शुद्धाः । सु + ईशुचिर्-पूतीभावे ( दिवा.) । = Perfectly pure. (इरी ) प्रेरक: । = Impeller. ( धुनीनाम् ) कम्पनक्रिया-वतीनाम् भूम्यादीनाम् (दिवा० ) ईर् गतौ कम्पने च । धूञ-कम्पने(स्वा.)। = Of the earth and other things which have shaking.
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