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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 58/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - पूषा छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यास्ते॑ पूष॒न्नावो॑ अ॒न्तः स॑मु॒द्रे हि॑र॒ण्ययी॑र॒न्तरि॑क्षे॒ चर॑न्ति। ताभि॑र्यासि दू॒त्यां सूर्य॑स्य॒ कामे॑न कृत॒ श्रव॑ इ॒च्छमा॑नः ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याः । ते॒ । पू॒ष॒न् । नावः॑ । अ॒न्तरिति॑ । स॒मु॒द्रे । हि॒र॒ण्ययीः॑ । अ॒न्तरि॑क्षे । चर॑न्ति । ताभिः॑ । या॒सि॒ । दू॒त्याम् । सूर्य॑स्य । कामे॑न । कृ॒त॒ । श्रवः॑ । इ॒च्छमा॑नः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यास्ते पूषन्नावो अन्तः समुद्रे हिरण्ययीरन्तरिक्षे चरन्ति। ताभिर्यासि दूत्यां सूर्यस्य कामेन कृत श्रव इच्छमानः ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याः। ते। पूषन्। नावः। अन्तरिति। समुद्रे। हिरण्ययीः। अन्तरिक्षे। चरन्ति। ताभिः। यासि। दूत्याम्। सूर्यस्य। कामेन। कृत। श्रवः। इच्छमानः ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 58; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वान् किं निर्माय क्व गत्वा किं प्राप्नुयादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे कृत पूषन् ! यास्ते हिरण्ययीर्नावः समुद्रेऽन्तरिक्षेऽन्तश्चरन्ति ताभिः कामेन श्रव इच्छमानस्सूर्यस्य दूत्यामिव कामनां यासि तस्माद्धन्योऽसि ॥३॥

    पदार्थः

    (याः) (ते) तव (पूषन्) भूमिरिव पुष्टियुक्त (नावः) प्रशंसनीया नौकाः (अन्तः) मध्ये (समुद्रे) सागरे (हिरण्ययीः) तेजोमय्यः सुवर्णादिसुभूषिताः (अन्तरिक्षे) आकाशे (चरन्ति) गच्छन्ति (ताभिः) (यासि) (दूत्याम्) दूतस्य क्रियामिव (सूर्यस्य) (कामेन) (कृत) यो विद्वान् कृतस्तत्सम्बुद्धौ (श्रवः) अन्नादिकम् (इच्छमानः) ॥३॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या सुदृढा नावो भूविमानानि भुव्यन्तरिक्षविमानान्यन्तरिक्षे च गमनाय रचयन्ति तैश्च देशदेशान्तरं गत्वाऽऽगत्य कामनामलं कुर्वन्ति त एव सूर्य्यवत् प्रकाशितकीर्त्तयो भवन्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् किसको बना कहाँ जाकर क्या पावे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (कृत) किये हुए विद्वन् ! (पूषन्) भूमि के समान पुष्टियुक्त ! (याः) जो (ते) आपकी (हिरण्यययीः) तेजोमयी सुवर्णादिकों से सुभूषित (नावः) प्रशंसनीय नौकायें (समुद्रे) समुद्र वा (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (अन्तः) भीतर (चरन्ति) जाती हैं (ताभिः) उनसे (कामेन) कामना करके (श्रवः) अन्नादिक की (इच्छमानः) इच्छा करते हुए (सूर्यस्य) सूर्य्य के (दूत्याम्) दूत की क्रिया के समान कामना को (यासि) प्राप्त होते हो, इससे धन्य हो ॥३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य सुदृढ़ नावें और भूविमानों को भूमि और अन्तरिक्ष में चलनेवाले यानों को अन्तरिक्ष में चलने को रचते और उनसे देश-देशान्तरों को जाय आकर अपनी इच्छा को पूरी करते हैं, वे ही सूर्य्य के समान प्रकाशित कीर्तिवाले होते हैं ॥३॥

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (पूषन् ) पोषक ! पालक गृहपते ! ( नावः हिरण्ययीः अन्तः समुद्रे अन्तरिक्षे चरन्ति ) जिस प्रकार नौकाएं और स्वर्णादि से भूषित, वा लोह आदि से बनी, समुद्र और आकाश दोनों स्थानों पर चलती हैं उसी प्रकार (याः ) जो ( ते ) तेरी ( हिरण्ययीः ) हितकारी और रमणयोग्य, सुखप्रद (नावः ) हृदय को प्रेरणा करने वाली वाणियां ( समुद्र ) अति हर्षयुक्त (अन्तरिक्षे अन्तः ) अन्तःकरण के बीच ( चरन्ति ) प्रवेश करती हैं (ताभिः ) उन वाणियों से ही हे ( कृत ) कर्त्तः ! तू ( श्रवः इच्छमानः ) अन्न और यश की कामना करता हुआ ( सूर्यस्य ) सूर्य की ( दूत्यां ) दूतवत् प्रतिनिधि होने की क्रिया को ( यासि ) प्राप्त होता है अर्थात् सूर्य की कान्ति को प्राप्त करता है। अपनी प्रेरिका आज्ञा से ही पालक स्वामी, यशस्वी और सूर्यवत् तेजस्वी हो जाता है ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः-१ त्रिष्टुप् । ३-४ विराट् त्रिष्टुप् । २ विराड् जगती ।। चतुर्ऋचं सूक्तम् ।।

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    विषय

    पूषा की नौकाएँ

    पदार्थ

    [१] हे (कामेन कृत) = कामना के द्वारा सारे संसार को उत्पन्न करनेवाले [सोऽकामयत बहुस्यां प्रजायेय] (पूषन्) = पोषक प्रभो ! (याः) = जो (ते) = आपकी (हिरण्ययीः नावः) = ज्योतिर्मयी नाव तुल्य वेदवाणियाँ हैं, जो (समुद्रे) = [समुद्] आनन्दमय (अन्तरिक्षे अन्तः) = हृदयान्तरिक्ष में (चरन्ति) = गति करती हैं, प्रसन्न मन में जिनका प्रकाश होता है, (ताभिः) = उनके द्वारा दूत्याम् ज्ञान सन्देश प्रापण के कार्य को (यासि) = आप प्राप्त होते हैं। इन वेदवाणियों के द्वारा आप हमें ज्ञान का सन्देश सुनाते हैं। हमारे लिये (सूर्यस्य श्रवः) = सूर्य के यश को, प्रकाश को (इच्छमानः) = चाहते हैं। जैसे सूर्य प्रकाश से देदीप्यमान है, इसी प्रकार आप हमारे हृदयों को भी ज्ञान के प्रकाश से दीप्त करते हैं । [२] प्रभु ने यह सारा संसार कामना से ही उत्पन्न किया है, हमारे लिये जब प्रभु चाहते हैं तो इस ज्ञान के प्रकाश को प्रकट कर देते हैं। हम प्रभु के इस अनुग्रह के पात्र तभी बनते हैं जब कि अपने इस हृदय को निर्मल व प्रसन्न बना पाते हैं। प्रभु से दिया गया यह ज्ञान हमारे लिये नाव का कार्य करता है, इसके द्वारा हम भवसागर को तैरनेवाले बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु से दिया गया ज्ञान हमारे लिये भवसागर को तरानेवाली नाव के समान होता हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे समुद्रात दृढ नावा व अंतरिक्षात जाण्यासाठी विमाने तयार करतात, त्याद्वारे देशदेशांतरी जातात-येतात व आपली इच्छा पूर्ण करतात तीच सूर्याप्रमाणे प्रकाशित होऊन कीर्तिमान बनतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O sagely scholar and realised soul, Pusha, giver of nourishment for body, mind and soul, golden are your vessels moving over the sea and in the sky. By these vessels you go round the world with love and desire for further food for knowledge and acting as messenger of the sun for the world.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should an enlightened person (or an artist) construct or, where should he go and what should he gain-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O strong or robust (like the earth) made a scholar by enlightened men! you are blessed, whose golden ships (aircrafts) move about in the firmament and by the help of which desiring food, wealth and glory, you go to fulfil your noble desire like the messenger of the sun.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men only become glorious in the world who construct very strong aero planes on earth, travel by them in the firmament and with splendid golden ships in the oceans, go from one country to another and thus fulfil their noble desires.

    Translator's Notes

    The faulty translation of the mantra even as done by Prof. Wilson and Griffith shows the science of navigation and aero planes mentioned in the Vedas. Prof. Wilson's translation of the first two lines is as follows:- "With those thy golden vessels, which navigate within the ocean, firmament etc. Griffith's translation of the above two lines is. Pushan, with the golden ships that travel across the ocean-in the airs' mid region. (Griffith's Hymns of the Rigveda Vol. I P. 627)

    Foot Notes

    (हिरण्ययी:) तेजोमय्यः सुर्वणादिसुभूषिताः । तेजो वे हिरण्यम् (तैत्तिरीय, 1, 7, 3, 6 ) हिरण्यं स्मात् ह्रियते आयम्पमानम् इति वाषिते जनाज्जनमिति वा हितरमणं भवतीति वा हृदयरस्मणं भवतीगि वा हर्यतेर्वा स्यात् प्र ेप्साकर्मण: - स्वर्णमं (NKT 2, 3, 10) । = Splendid and decked with gold. (श्रवः) अन्नादिकम् । श्रव इति अन्ननाम (NG 2, 77 ) = श्रव इति धननाम (NG 2, 10 ) । = Food and glory etc.

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