ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 67/ मन्त्र 7
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ता वि॒ग्रं धै॑थे ज॒ठरं॑ पृ॒णध्या॒ आ यत्सद्म॒ सभृ॑तयः पृ॒णन्ति॑। न मृ॑ष्यन्ते युव॒तयोऽवा॑ता॒ वि यत्पयो॑ विश्वजिन्वा॒ भर॑न्ते ॥७॥
स्वर सहित पद पाठता । वि॒ग्रम् । धै॒थे॒ इति॑ । ज॒ठर॑म् । पृ॒णध्यै॑ । आ । यत् । सद्म॑ । सऽभृ॑तयः । पृ॒ट्णन्ति॑ । न । मृ॒ष्य॒न्ते॒ । यु॒व॒तयः॑ । अवा॑ताः । वि । यत् । पयः॑ । वि॒श्व॒ऽजि॒न्वा॒ । भर॑न्ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
ता विग्रं धैथे जठरं पृणध्या आ यत्सद्म सभृतयः पृणन्ति। न मृष्यन्ते युवतयोऽवाता वि यत्पयो विश्वजिन्वा भरन्ते ॥७॥
स्वर रहित पद पाठता। विग्रम्। धैथे इति। जठरम्। पृणध्यै। आ। यत्। सद्म। सऽभृतयः। पृणन्ति। न। मृष्यन्ते। युवतयः। अवाताः। वि। यत्। पयः। विश्वऽजिन्वा। भरन्ते ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 67; मन्त्र » 7
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः के का इव मेधाविनौ विद्यार्थिनो धरन्तीत्याह ॥
अन्वयः
हे अध्यापकोपदेशकौ ! यथाऽवाताः सभृतयो युवतयः समानान् पतीन् भरन्ते ता नापृणन्त्यन्याः सपत्नीर्न मृष्यन्ते यद्याः सद्म पृणन्ति यद्याः पय इव वि पृणन्ति तथा यौ युवां जठरं पृणध्यै विग्रं धैथे। हे विश्वजिन्वा ! त्वं ता तौ च सततं सेवस्व ॥७॥
पदार्थः
(ता) तौ (विग्रम्) मेधाविनम्। विग्र इति मेधाविनाम। (निघं०१३.१५) (धैथे) धारयथः (जठरम्) उदरस्थमग्निम् (पृणध्यै) सुखयितुम् (आ) (यत्) याः (सद्म) (सभृतयः) समाना भर्त्तारो यासां ताः (पृणन्ति) (न) निषेधे (मृष्यन्ते) सहन्ते (युवतयः) प्राप्तयुवावस्थाः स्त्रियः (अवाताः) पतीनप्राप्ताः (वि) (यत्) याः (पयः) उदकम् (विश्वजिन्वा) विश्वपोषक। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (भरन्ते) ॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा समानगुणकर्मस्वभावरूपाः स्त्री-पुरुषा अत्यन्तप्रीत्या विवाहं कृत्वा कदाचिन्न विरुध्यन्ति तथैव विद्वांसो विद्यार्थिनश्च न विद्विषन्त्येवं प्रेम्णा सह वर्त्तमानास्सर्वे सदाऽऽनन्दिता जायन्ते ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कौन किसके समान मेधावी विद्यार्थियों को धारण करते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे अध्यापक और उपदेशको ! जैसे (अवाताः) पतियों को न प्राप्त हुई (सभृतयः) समान पतियोंवाली (युवतयः) युवति स्त्रियाँ समान पतियों को (भरन्ते) धारण करतीं अर्थात् प्राप्त होतीं वे (न) नहीं (आ, पृणन्ति) पूरे सुख को प्राप्त होतीं क्योंकि और सौतें नहीं (मृष्यन्ते) सहती हैं (यत्) जो (सदम्) घर को सुखयुक्त करती हैं और (यत्) जो (पयः) जल के समान (वि) विविध प्रकार से सुख देती हैं तथा जो तुम दोनों (जठरम्) उदर में ठहरे हुए अग्नि को (पृणध्यै) सुखी करने के लिये (विग्रम्) बुद्धिमान् पुरुष को (धैथे) धारण करते हो। हे (विश्वजिन्वा) संसार की पुष्टि करनेवाले ! आप उन स्त्रियों तथा (ता) उन दोनों को निरन्तर सेवो ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे समान गुण, कर्म, स्वभाव रूप स्त्री-पुरुष अत्यन्त प्रीति से विवाह कर कभी विरोध नहीं करते हैं, वैसे ही विद्वान् जन और विद्यार्थीजन विद्वेष नहीं करते हैं, ऐसे प्रेम के साथ वर्त्तमान सब सदैव आनन्दित होते हैं ॥७॥
विषय
उनको गृहस्थ जीवन सम्बन्धी अनेक उपदेश ।
भावार्थ
हे मित्रवत् स्नेही और एक दूसरे से प्रेमपूर्वक वरण करने वाले स्त्री पुरुषो ! (ता) वे आप दोनों जिस प्रकार (जठरं पृणध्यै ) पेट को तृप्त करने के लिये (विग्रं) विशेष रूप से गले से नीचे उतारने योग्य खूब चबाया खाद्य अन्न प्राप्त करते हो, उसी प्रकार ( जठरं पृणध्यै ) पेट भर खिलाने के लिये ( विग्रम् ) विद्वान् पुरुष को ( धैथे ) आदर पूर्वक भरण पोषण करो, विद्वान् को अन्नादि दो । (यत्) क्योंकि (स-भृतयः) एक समान भरण पोषण या वेतन प्राप्त करने वाले भृत्यादि लोग ( सद्म ) एक ही आश्रय गृह को (आपृणन्ति) सब प्रकार से पूर्ण कर उसे भरते हैं और एक गृह की सेवा करते हैं, परन्तु ( अवाताः युवतयः ) अविवाहित, पति को न प्राप्त हुई युवति स्त्रियें ( न मृष्यन्ते ) एक दूसरे को सहन नहीं करतीं, इसलिये हे ( विश्व-जिन्वा ) समस्त विश्व को अन्नादि से तृप्त करने वालो ! ( यत् ) जो ( पयः सद्म विभरन्ते ) नदियों के समान अन्न जलादि पुष्टिकारक पदार्थों से गृह को भरपूर करें उनको ही तुम दोनों ( धैथे ) पालन पोषण करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः–१, ९ स्वराट् पंक्तिः। २, १० भुरिक पंक्तिः । ३, ७, ८, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् ।। एकादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
न मृष्यन्ते युवतयो अवाता:
पदार्थ
[१] (ता) = वे मित्र और वरुण (विग्रम्) = प्राज्ञ को (धैथे) = धारण करते हैं। (जठरं पृणध्य) = ये उदर को सोम से पूरित करने के लिये होते हैं । अर्थात् सोम का उदर में ही रक्षण करते हैं, उसे नष्ट नहीं होने देते। (सभृतयः) = समानरूप से मित्रावरुणा का धारण करनेवाले परिवार के व्यक्ति (यत् सद्म) = जो उनका घर है, उसे (आपृणन्ति) = सब प्रकार से पूरित करते हैं। स्नेह व निर्देषता के (भाव) = के होने पर घर में कमी नहीं आती। [२] इस स्नेह व निर्देषता के धारण करने पर युवतयः = ये सदा अजरामर रहनेवाली वेदवाणियों [देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति] (न मृष्यन्ते) = रजोगुण से अभिभूत नहीं होती, अर्थात् सात्त्विक भाव के कारण इनका उत्तरोत्तर प्रकाश बढ़ता जाता है। (अवाता:) = ये वेदवाणियाँ शुष्क भी नहीं हो जाती [न शोषयति मारुतः], (यत्) = क्योंकि (विश्वजिन्वा) = सब उत्तम ज्ञानों को प्रेरित करनेवाले ये मित्र और वरुण (पयः विभरन्ते) = आप्यायित करनेवाले ज्ञान को विशेषरूप से हमारे में धारण करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- स्नेह व निर्देषता के भाव से सोम का रक्षण होता है, ज्ञान बढ़ता है। इस मित्र और वरुण के आराधक को अधिकाधिक ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे समान गुण, कर्म, स्वभावरूपी स्त्री-पुरुष अत्यंत प्रीतीने विवाह करून कधी विरोध करीत नाहीत तसेच विद्वान लोक व विद्यार्थी द्वेष करीत नाहीत. ते सर्व प्रेमाने आनंदात राहतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
They bring the heave of passion and they bring the food too to quench the fire of that passion, and thus they sustain the wise with the food they aspire for, they who also lead the bearers of holy materials to fill the house of yajna and to feed the fire. And just as the sparkling sacred streams bear the waters of life, and unmarried maidens bear life-giving vitality, but they are never neglected and never injured in any way, so the wise and the sustainers of the wise must never be neglected, never injured.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who uphold or support intelligent students-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers ! as those who are yet unmarried and those, who have their (engaged) husbands, get their husbands through marriage but cannot be happy in married life because their co-wives do not tolerate it. Those who make their homes happy like the water that makes them delighted, in the same manner, you, in order to delight your digestive fire, feed a wiseman. O nourisher of all! serve all good and enlightened persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As those husbands and wives who have suitable or agreeable merits, actions and temperament, marry with love and are never antagonistic to one another, in the same manner, the scholars and their pupils never hate one another. In this manner, all living with love are always happy and blissful.
Foot Notes
(विग्रम्) मेधाविनम् । विग्र इति । मेधाविनाम् (NG 3, 15) A genius, very wise man. (विश्वजिन्वा) विश्वपोषक । अत्र संहितायामिति दीर्घः । जिवि-प्रीणनार्थाः (भ्वा.) प्रीणानं सन्तोषणं पोशणं च । = Nourisher of all the world.
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