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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 70/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    अस॑श्चन्ती॒ भूरि॑धारे॒ पय॑स्वती घृ॒तं दु॑हाते सु॒कृते॒ शुचि॑व्रते। राज॑न्ती अ॒स्य भुव॑नस्य रोदसी अ॒स्मे रेतः॑ सिञ्चतं॒ यन्मनु॑र्हितम् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस॑श्चन्ती॒ इति॑ । भूरि॑धारे॒ इति॒ भूरि॑ऽधारे । पय॑स्वती॒ इति॑ । घृ॒तम् । दु॒हा॒ते॒ इति॑ । सु॒ऽकृते॑ । शुचि॑व्रते॒ इति॒ शुचि॑ऽव्रते । राज॑न्ती॒ इति॑ । अ॒स्य । भुव॑नस्य । रो॒द॒सी॒ इति॑ । अ॒स्मे इति॑ । रेतः॑ । सि॒ञ्च॒त॒म् । यत् । मनुः॑ऽहितम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असश्चन्ती भूरिधारे पयस्वती घृतं दुहाते सुकृते शुचिव्रते। राजन्ती अस्य भुवनस्य रोदसी अस्मे रेतः सिञ्चतं यन्मनुर्हितम् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असश्चन्ती इति। भूरिधारे इति भूरिऽधारे। पयस्वती इति। घृतम्। दुहाते इति। सुऽकृते। शुचिव्रते इति शुचिऽव्रते। राजन्ती इति। अस्य। भुवनस्य। रोदसी इति। अस्मे इति। रेतः। सिञ्चतम्। यत्। मनुःऽहितम् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 70; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते कथंभूते इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! येऽसश्चन्ती भूरिधारे पयस्वती सुकृते शुचिव्रतेऽस्य भुवनस्य राजन्ती रोदसी अस्मे यन्मनुर्हितं तद् घृतं दुहाते तद्रेतश्च सिञ्चतं ते यथावदुपकारायाऽनयन्तु ॥२॥

    पदार्थः

    (असश्चन्ती) पृथक् पृथग्वर्त्तमाने (भूरिधारे) भूरि बह्व्यो धारा ययोस्ते (पयस्वती) बहूदकयुक्ते (घृतम्) उदकम् (दुहाते) पिपृते (सुकृते) ईश्वरेण सुष्ठु निर्मिते सुकृतकर्मनिमित्ते वा (शुचिव्रते) पवित्रकर्मयुक्ते (राजन्ती) प्रकाशमाने (अस्य) (भुवनस्य) ब्रह्माण्डस्य (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अस्मे) अस्मासु (रेतः) उदकं वीर्यं वा (सिञ्चतम्) सिञ्चतः। अत्र पुरुषव्यत्ययः (यत्) (मनुर्हितम्) मनुष्येभ्यो हितम् ॥२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! सूर्यभूमी एव सर्वस्य पालननिमित्ते बहूदकादिपदार्थयुक्ते सर्वेषां कामं पूरयतस्ते यथावद्विज्ञाय कार्यसिद्धये सम्प्रयुङ्ध्वम् ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (असश्चन्ती) अलग-अलग वर्त्तमान (भूरिधारे) जिनकी बहुत धारायें विद्यमान (पयस्वती) जो बहुत जल से युक्त (सुकृते) जो ईश्वर ने सुन्दर बनाये वा अच्छे कर्म करानेवाले और (शुचिव्रते) पवित्र कर्मयुक्त हैं तथा (अस्य) इस (भुवनस्य) ब्रह्माण्ड के सम्बन्ध में (राजन्ती) प्रकाशमान हैं, वे (रोदसी) आकाश और पृथिवी (अस्मे) हम लोगों में (यत्) जो (मनुर्हितम्) मनुष्यों का हित करनेवाला है, उस (घृतम्) जल को (दुहाते) पूर्ण करते हैं, उस (रेतः) जल वा वीर्य्य को (सिञ्चतम्) सींचते हैं, उन्हें यथावत् उपकार के लिये प्राप्त होओ ॥२॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! सूर्य्य और भूमि ही सब जगत् की रक्षा के निमित्त, बहुत उदक आदि पदार्थयुक्त और सब के काम को पूर्ण करते हैं, उनको यथावत् जानकर कार्य्य की सिद्धि के लिये अच्छे प्रकार उनका प्रयोग करो ॥२॥

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    विषय

    वे सूर्य भूमि वा जल-अन्न सम्पन्न, शुद्धाचार, दानी उत्तम सन्तति के माता पिता हों ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( रोदसी ) सूर्य और भूमि ( असश्चन्ती ) पृथक् २ रह कर भी ( भूरि-धारे ) बहुत सी जलधाराओं से युक्त ( पयस्वती ) जल और अन्न से सम्पन्न, होकर ( घृतं दुहाते ) तेज और अन्न प्रदान करते हैं, वे ( मनुर्हितं रेतः सिञ्चतम् ) मनुष्यों के हितकारी तेज और जल प्रदान भी करते हैं उसी प्रकार माता पिता दोनों ( असश्चन्ती ) पृथक् गोत्रों के होते हुए, ( भूरि-धारे ) बहुत सी उत्तम वाणियों और स्तन्यधाराओं से युक्त वा बहुत से पदार्थों को धारण करने वाले, ( पयस्वती ) अन्न और दूध से युक्त, ( शुचि-व्रते ) शुद्ध पवित्र कर्म और व्रत का पालन करने वाले ( सु-कृते ) उत्तम पुण्य कर्म वाले, होकर ( घृतं दुहाते ) प्रस्त्रवणशील स्नेह, दुग्ध और अन्न को प्रदान करें । वे दोनों ( अस्य भुवनस्य) इस संसार के बीच ( राजन्ती, गुणों से प्रकाशित होकर ( रोदसी) सूर्य भूमिवत् एक दूसरे की मर्यादा का पालन करते हुए ( यत् मनुः हितम् ) जो मननशील मनुष्य के उत्पन्न करने के लिये पूर्व आश्रम में धारण किया (रेतः) वीर्य हो, उसकी वे दोनों (अस्मे ) हमारे प्रजावृद्धि के लिये ( सिञ्चतम् ) गृहाश्रमकाल में निषिक्त कर धारण करें और उत्तम सन्तान उत्पन्न करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। द्यावापृथिव्यौ देवते ॥ छन्दः–१, ५ निचृज्जगती । २, ३, ६ जगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    में माधुर्य का दोहन

    पदार्थ

    [१] (असश्चन्ती) = परस्पर सक्त न होते हुए [असज्यमाने], एक-दूसरे से दूर विद्यमान, (भूरिधारे) = खूब ही धारण शक्ति से युक्त (पयस्वती) = आप्यायन व वर्धन के तत्त्वोंवाले, (शुचिव्रते) = पवित्र व्रतोंवाले ये द्यावापृथिवी सुकृते शुभ कर्म करनेवाले के लिये (घृतं दुहाते) = मलों के क्षरण व दीप्ति को प्रपूरित करते हैं । [२] (अस्य) = इस (भुवनस्य) = भुवन का राजन्ती शासन करते हुए (रोदसी) = ये द्यावापृथिवी (अस्मे) = हमारे लिये रेत: उस शक्ति का सिञ्चतम् सेचन करें, (यत्) = जो शक्ति (मनुर्हितम्) = विचारशील पुरुष के लिये हितकर है।

    भावार्थ

    भावार्थ- द्यावापृथिवी हमारे जीवन में उस शक्ति का संचार करते हैं, जो हमारे लिये हितकर होती है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! सूर्य व भूमीच सर्व जगाचे पालन करण्याचे निमित्त आहेत. जल इत्यादी पदार्थांनी युक्त असून सर्वांचे काम पूर्ण करतात. त्यांना यथायोग्य जाणून कार्यसिद्धीसाठी त्यांचा चांगल्या प्रकारे उपयोग करून घ्या. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Both separate yet releasing together abundant streams of liquid vitality, they are holy in action and pure of purpose and discipline of the divine law, and they give us ceaseless showers of milk and water. Shining over and illuminating this world, O sun and earth, let streams of vitality, virility and fertility flow down to us for the good of humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are they (the earth and the heaven )-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! the earth and the heaven are separate, with many streams, full of much water, made by God for doing good and pure deeds, shining, pour out for us water or genial flow, that is beneficial to all men. Use them for the benefit of all beings.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! the sun and earth are nourishers of all, endowed with water and other useful things and fulfillers of the use them for the desires of all. Know their properties and accomplishment of many purposes.

    Foot Notes

    (असश्चम्ती) पृथक पृथग्वर्तमाने । - पच- समयाचे (भ्वा.) = Existing separately. (मनुर्हितम्) मनुष्येभ्यो हितम् । ये विद्वास्ते मनव: (S. Br. 8, 6, 3, 18 ) = Beneficial to men. (रेत:) उदकं वीर्यं वा । रेख इत्युदकनाम (NG 1, 12 ) = Water or semen.

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