ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 101/ मन्त्र 5
ऋषिः - वसिष्ठः कुमारो वाग्नेयः
देवता - पर्जन्यः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒दं वच॑: प॒र्जन्या॑य स्व॒राजे॑ हृ॒दो अ॒स्त्वन्त॑रं॒ तज्जु॑जोषत् । म॒यो॒भुवो॑ वृ॒ष्टय॑: सन्त्व॒स्मे सु॑पिप्प॒ला ओष॑धीर्दे॒वगो॑पाः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । वचः॑ । प॒र्जन्या॑य । स्व॒ऽराजे॑ । हृ॒दः । अ॒स्तु॒ । अन्त॑रम् । तत् । जु॒जो॒ष॒त् । म॒यः॒ऽभुवः॑ । वृ॒ष्टयः॑ । स॒न्तु॒ । अ॒स्मे इति॑ । सु॒ऽपि॒प्प॒लाः । ओष॑धीः । दे॒वऽगो॑पाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं वच: पर्जन्याय स्वराजे हृदो अस्त्वन्तरं तज्जुजोषत् । मयोभुवो वृष्टय: सन्त्वस्मे सुपिप्पला ओषधीर्देवगोपाः ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । वचः । पर्जन्याय । स्वऽराजे । हृदः । अस्तु । अन्तरम् । तत् । जुजोषत् । मयःऽभुवः । वृष्टयः । सन्तु । अस्मे इति । सुऽपिप्पलाः । ओषधीः । देवऽगोपाः ॥ ७.१०१.५
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 101; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे परमात्मन् ! (अस्मे) अस्मभ्यं (मयः, भुवः, वृष्टयः, सन्तु) वृष्टय आनन्दवर्षणशीला भवन्तु (सुपिप्पलाः, ओषधीः) मनोज्ञफलशालिन्य ओषधयश्च सन्तु (देवगोपाः) तासां प्रयोक्तारश्च तज्ज्ञविद्वांसो भवेयुः (इदम्, वचः) इयं मदुक्ता वाग् (पर्जन्याय, स्वराजे) यः प्रजासु मेघ इव तृप्तिमभिजनयति तस्मै राज्ञे निवेदनीया ततस्तस्य पुरो वक्ष्यमाणं प्रार्थनीयं (हृदः अस्तु अन्तरम्) इयं मत्प्रार्थनाविषयकवाग् भवद्हृद्गता भवत्विति (तत्, जुजोषत्) तां वाणीं सेवेत भवानिति च ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (अस्मे) हमारे लिये (मयः, भुवः, वृष्टयः, सन्तु) वृष्टियें आनन्द के बरसानेवाली हों (सुपिप्पलाः) और सुन्दर फलोंवाली ओषधियें हों (देवगोपाः) और उनके विद्वान् लोग प्रयोग करनेवाले हों, (इदं, वच) यह वाणी (पर्जन्याय, स्वराजे) स्वतन्त्र राजा जो प्रजा के ऊपर पर्जन्य की तरह वृष्टि करनेवाला हो, उसके प्रति कथन करनी चाहिये, (हृदः, अस्तु, अन्तरम्) तुम्हारे हृदयगत यह वाणी हो (तत् जुजोषत्) और इस को सेवन करो ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे उद्गातादि लोगो ! तुम लोग अपने सम्राट् के हृदय में इस बात को बलपूर्वक भर दो कि जिस प्रकार वृष्टिकर्त्ता मेघ हम पर वृष्टि करके नाना प्रकार की ओषधियें उत्पन्न करते हैं और जिस प्रकार परमात्मा इस संसार में आनन्द की वृष्टि करता है, इसी प्रकार हे राजन् ! आप अपनी प्रजा के लिये न्यायनियम से सुख के वृष्टिकर्त्ता हों ॥५॥
विषय
तीन कोशों का वर्णन, अध्यात्म तत्त्व ।
भावार्थ
( इदं वचः ) यह वचन ( स्वराजे ) स्वप्रकाशस्वरूप, ( पर्जन्याय ) सब रसों के देने वाले, सब के उत्पादक प्रभु परमेश्वर के लिये ( हृदः अन्तरं अस्तु ) हृदय के भीतर हो। ( तत् ) उस स्तुति-वचन को वह प्रभु ( जुजोषत् ) स्वीकार करे ( अस्मे ) हमारे सुख के लिये ( मय:-भुवः वृष्टयः सन्तु ) सुख के देने वाली वृष्टियां सदा हों। और ( सुपिप्पला: ) उत्तम फलयुक्त ( देव-गोपाः) मेघद्वारा रक्षित ( ओषधीः ) ओषधियें भी ( मयः-भुवः सन्तु ) सुखकारी हों।
टिप्पणी
पर्जन्यः—पर्जन्यस्तृपेः। आद्यन्त विपरीतस्य। तर्पयिता जन्यः। परो जेता वा। जनयिता वा। प्रार्जयिता बा रसानाम्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठः कुमारो वाग्नेय ऋषिः॥ पर्जन्यो देवता॥ छन्दः—१, ६ त्रिष्टुप्। २, ४, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप्॥
विषय
प्रभु की स्तुति हृदय से करें
पदार्थ
पदार्थ - (इदं वचः) = यह वचन (स्वराजे) = स्वप्रकाशस्वरूप, (पर्जन्याय) = सब रसों के दाता प्रभु के लिये (हृदः अन्तरं अस्तु) = हृदय के भीतर हो । (तत्) = उस स्तुति वचन को प्रभु (जुजोषत्) = स्वीकार करे (अस्मे) = हमारे सुख के लिये (मयः भुवः वृष्टयः शन्तु) = सुखदात्री वृष्टियाँ सदा हों और (सुपिप्पला:) = उत्तम फलयुक्त (देव-गोपाः) = मेघ द्वारा रक्षित (ओषधी:) = ओषधियें भी (मयः-भुव सन्तु) = सुखकारी हों।
भावार्थ
भावार्थ- जिस परमेश्वर की कृपा से ये बादल बरसकर हमें सुखी करते हैं। औषधियों से रोग निवारण तथा फलों से स्वास्थ्यवर्द्धन होकर हमें सुख मिलता है ऐसे सुखदाता प्रभु के लिए हृदय से स्तुति किया करें। हृदय के श्रेष्ठ भावों से की गई स्तुति को ही प्रभु स्वीकार करते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
This song of adoration, spontaneous flow of love from the heart, in honour of the self - refulgent sovereign cloud, lord infinite, supreme source of life, may the lord accept and cherish to the very core of divine being, and may the imprint abide in our heart too. May the showers of rain be full of peace and abundance for us. May the herbs and trees be profuse in fruit, give life and protective health to noble humanity and be protected and promoted by noble humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो की, हे उद्गाता इत्यादी लोकांनो! तुम्ही आपल्या सम्राटाच्या हृदयात ही गोष्ट बलपूर्वक भरा, की ज्या प्रकारे वृष्टिकर्ता मेघ आमच्यावर वृष्टी करून नाना प्रकारच्या औषधी उत्पन्न करतात व ज्या प्रकारे परमात्मा या जगात आनंदाची वृष्टी करतो त्याच प्रकारे हे राजा! तू तुझ्या प्रजेसाठी न्यायनियमाने सुखाचा वृष्टिकर्ता हो. ॥५॥
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