ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 11/ मन्त्र 1
म॒हाँ अ॑स्यध्व॒रस्य॑ प्रके॒तो न ऋ॒ते त्वद॒मृता॑ मादयन्ते। आ विश्वे॑भिः स॒रथं॑ याहि दे॒वैर्न्य॑ग्ने॒ होता॑ प्रथ॒मः स॑दे॒ह ॥१॥
स्वर सहित पद पाठम॒हान् । अ॒सि॒ । अ॒ध्व॒रस्य॑ । प्र॒ऽके॒तः । न । ऋ॒ते । त्वत् । अ॒मृताः॑ । मा॒द॒य॒न्ते॒ । आ । विश्वे॑भिः । स॒रथ॑म् । या॒हि॒ । दे॒वैः । नि । अ॒ग्ने॒ । होता॑ । प्र॒थ॒मः । स॒द॒ । इ॒ह ॥
स्वर रहित मन्त्र
महाँ अस्यध्वरस्य प्रकेतो न ऋते त्वदमृता मादयन्ते। आ विश्वेभिः सरथं याहि देवैर्न्यग्ने होता प्रथमः सदेह ॥१॥
स्वर रहित पद पाठमहान्। असि। अध्वरस्य। प्रऽकेतः। न। ऋते। त्वत्। अमृताः। मादयन्ते। आ। विश्वेभिः। सरथम्। याहि। देवैः। नि। अग्ने। होता। प्रथमः। सद। इह ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! त्वमिह विश्वेभिर्देवैः सह प्रथमो होताऽस्मान् सरथं न्यायाहि यतस्त्वदृतेऽमृता न मादयन्ते तस्मात्त्वं सद त्वमध्वरस्य महान् प्रकेतोऽसि ॥१॥
पदार्थः
(महान्) (असि) (अध्वरस्य) सर्वव्यवहारस्य (प्रकेतः) प्रकृष्टप्रज्ञावान् प्रज्ञापकः (न) निषेधे (ऋते) (त्वत्) (अमृताः) नाशरहिता जीवाः (मादयन्ते) आनन्दयन्ति (आ) (विश्वेभिः) सर्वैः (सरथम्) रमणीयेन स्वरूपेण सह वर्त्तमानम् (याहि) समन्तात्प्राप्नुहि (देवैः) विद्वद्भिः सह (नि) (अग्ने) स्वप्रकाशस्वरूप जगदीश्वर (होता) विद्यादिशुभगुणदाता (प्रथमः) आदिमः (सद) सीद (इह) ॥१॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! येन विना न विद्या न सुखं लभ्यते यो विद्वत्सङ्गयोगाभ्यासधर्माचरणैः प्राप्योऽस्ति तमेव जगदीश्वरं सदोपाध्वम् ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्या क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) स्वप्रकाशस्वरूप जगदीश्वर ! आप (इह) इस जगत् में (विश्वेभिः) सब (देवैः) विद्वानों के साथ (प्रथमः) पहिले (होता) विद्यादि शुभगुणों के दाता हमको (सरथम्) रथ सहित (नि, आ, याहि) निरन्तर प्राप्त हूजिये जिस कारण (त्वत्) आप से (ऋते) भिन्न (अमृताः) नाशरहित जीव (न) नहीं (मादयन्ते) आनन्द करते हैं इससे आप (सद) स्थिर हूजिये आप (अध्वरस्य) सब व्यवहार के (महान्) बड़े (प्रकेतः) उत्तमबुद्धि के प्रकाशक (असि) हैं ॥१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिसके विना न विद्या, न सुख प्राप्त होता है, जो विद्वानों का सङ्ग, योगाभ्यास और धर्माचरण से प्राप्त होने योग्य है, उसी जगदीश्वर की सदा उपासना करो ॥१॥
विषय
जीवों का सुखप्रद स्वामी राजा ।
भावार्थ
हे (अग्ने ) विद्वन् ! प्रभो ! तू (अध्वरस्य) सब प्रकार के व्यवहार का ( प्र-केतः ) बतलाने वाला और ( महान् असि ) गुणों में महान् है । ( त्वद् ऋते ) तेरे विना ( अमृताः ) जीवित जीव ( न मादयन्ते ) प्रसन्न नहीं हो सकते, तेरे विना सुख का जीवन व्यतीत नहीं कर सकते । तू ( विश्वेभिः देवैः ) समस्त उत्तम मनुष्यों सहित (सरथं आयाहि) अपने रथों, सुखों, सहित आ, ( होता ) तू सब के सुखों का दाता ( प्रथमः ) सबसे मुख्य होकर (इह सद) यहां विराज ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः । अग्निर्देवता ।। छन्दः - १ स्वराद् पंक्ति: । २, ४ भुरिक् पंक्तिः । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत्त्रिष्टुप् ।। पञ्चर्चं सूक्तम्
विषय
'महान् यज्ञों के प्रज्ञापक' प्रभु
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (महान् असि) = आप महान् हैं। अध्वरस्य हिंसारहित यज्ञों के (प्रकेत:) = प्रज्ञापक हैं। (त्वद् ऋते) = आपके बिना (अमृता:) = ये नीरोग जीवनोंवाले देव न (मादयन्ते) = आनन्द का अनुभव नहीं करते, आपकी उपासना में ही आनन्द लेते हैं। [२] आप (विश्वेभिः देवै:) = सब दिव्यगुणों के साथ (सरथं आयाहि) = इस समान शरीररूप रथ पर प्राप्त होइये। हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो! आप (प्रथमः होता) = मुख्य होता होते हुए इह यहाँ हमारे वासनाशून्य हृदयों में निसद-विराजमान होइये।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु महान् हैं, यज्ञों के प्रज्ञापक हैं। देव प्रभु उपासन में ही आनन्द का अनुभव करते हैं। प्रभु हमें सब दिव्यगुणों के साथ प्राप्त हों।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे माणसांनो ! ज्याच्याशिवाय विद्या, सुख प्राप्त होत नाही, जो विद्वानांची संगती, योगाभ्यास व धर्माचरण याद्वारे प्राप्त होण्यायोग्य आहे त्याच जगदीश्वराची सदैव उपासना करा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, prime high priest of the cosmic yajna of creation, come by the chariot of nature itself with all the divine powers of existence and grace our vedi here. Great you are, the very soul and spirit of yajna. Not without you do the immortals rejoice.
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