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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 3/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒ता नो॑ अग्ने॒ सौभ॑गा दिदी॒ह्यपि॒ क्रतुं॑ सु॒चेत॑सं वतेम। विश्वा॑ स्तो॒तृभ्यो॑ गृण॒ते च॑ सन्तु यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ता । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । सौभ॑गा । दि॒दी॒हि॒ । अपि॑ । क्रतु॑म् । सु॒ऽचेत॑सम् । व॒ते॒म॒ । विश्वा॑ । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । गृ॒ण॒ते । च॒ । स॒न्तु॒ । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एता नो अग्ने सौभगा दिदीह्यपि क्रतुं सुचेतसं वतेम। विश्वा स्तोतृभ्यो गृणते च सन्तु यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एता। नः। अग्ने। सौभगा। दिदीहि। अपि। क्रतुम्। सुऽचेतसम्। वतेम। विश्वा। स्तोतृऽभ्यः। गृणते। च। सन्तु। यूयम्। पात। स्वस्तिऽभिः। सदा। नः ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 3; मन्त्र » 10
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    राजा च कीदृशो भवेदित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! त्वं न एता सौभगा दिदीहि येनाऽपि वयं सुचेतसं क्रतुं वतेम स्तोतृभ्यो विश्वा गृणते चैतानि सन्तु यूयं स्वस्तिभिर्नः सदा पात ॥१०॥

    पदार्थः

    (एता) एतानि (नः) अस्माकम् (अग्ने) पावकवद्विद्वन् राजन् (सौभगा) उत्तमैश्वर्याणां भावान् (दिदीहि) प्रकाशय (अपि) (क्रतुम्) प्रज्ञाम् (प्रचेतसम्) प्रकृष्टविद्यायुक्ताम् (वतेम) सम्भजेम। अत्र वर्णव्यत्ययेन नस्य स्थाने तः। (विश्वा) सर्वाणि (स्तोतृभ्यः) ऋत्विग्भ्यः (गृणते) स्तावकाय (च) (सन्तु) (यूयम्) (पात) रक्षत (स्वस्तिभिः) स्वास्थ्यकारिभिः सुखैः कर्मभिर्वा (सदा) (नः) अस्मान् ॥१०॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! भवान् सर्वेषां मनुष्याणां सौभाग्यानि वर्धयित्वा प्रज्ञां प्रापयतु, हे प्रजाजना ! भवन्तो राजानं राज्यं च सदैव रक्षन्त्विति ॥१०॥ अत्राऽग्निविद्वद्राजप्रजाकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति तृतीयं सूक्तं चतुर्थो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा भी कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वी विद्वन् राजन् ! आप (नः) हमारे (एता) इन (सौभगा) उत्तम ऐश्वर्य्यों के भावों को (दिदीहि) प्रकाशित कीजिये जिससे (अपि) भी हम लोग (सुचेतसम्) प्रबल विद्यायुक्त (क्रतुम्) बुद्धि का (वतेम) सेवन करें (स्तोतृभ्यः) ऋत्विजों और (विश्वा) सब की (गृणते) स्तुति करनेवाले के लिये ये (च) भी सब प्राप्त (सन्तु) हों (यूयम्) हम लोग (स्वस्तिभिः) स्वस्थता करनेवाले सुखों वा कर्मों से (नः) हमारी (सदा) सदा (पात) रक्षा करो ॥१०॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! आप सब मनुष्यों के सौभाग्यों को बढ़ा के बुद्धि को प्राप्त करो। हे प्रजापुरुषो ! आप लोग राजा और राज्य की सदैव रक्षा करो ॥१०॥ इस सूक्त में अग्नि, विद्वान्, राजा और प्रजा के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥१०॥ यह तृतीय सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    प्रजा के विनय।

    भावार्थ

    हे (अग्ने ) विद्वन् ! हे तेजस्विन् ! ( नः ) हमारे ( एता ) इन नाना ( सौभगानि ) सुखजनक, उत्तम ऐश्वर्यों को ( दिदीहि ) प्रकाशित कर । हम लोग ( अपि ) अवश्य ( सुचेतसं ) उत्तम चित्त वाली ( क्रतुम् ) बुद्धि को ( वतेम ) प्राप्त करें । ( स्तोतृभ्यः ) स्तुतिशील और ( गृणते ) उपदेश-कुशल पुरुष के लिये ( विश्वा च ) सब प्रकार के सौभाग्य (सन्तु) हों और हे विद्वान् पुरुषो ! ( यूयं ) आप लोग (स्वस्तिभिः) उत्तम कल्याणकारी कर्मों से ( नः ) हमारी (सदा पात ) सदा रक्षा करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषि: ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ९, १० विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७, ८ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्तिः । ३ भुरिक् पंक्तिः ।। । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    दीप्त सौभाग्य

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! आप (नः) = हमारे लिये (एता) = इन सौभगा उत्तम ऐश्वर्यों को (दिदीहि) = दीप्त करिये । हम (क्रतुम्) = यज्ञों का तथा (सुचेतसम्) = उत्तम प्रज्ञानवाले पुरुषों का (अपि वतेम) = सम्भजन करनेवाले हों उत्तम संग में रहते हुए हम सदा यज्ञशील हों। [२] हे प्रभो ! (गृणते) = ज्ञानोपदेष्टा के लिये (च) = तथा (स्तोतृभ्यः) = स्तोताओं के लिये ही (विश्वा) = हमारे सब धन (सन्तु) = हों। हम सदा धनों को इन गुरुओं व प्रभु भक्तों को अर्पित करनेवाले हों जिससे लोकहित के कार्यों में इनका विनियोग हो। हे देवो! (यूयम्) = आप (स्वस्तिभिः) = कल्याणों के द्वारा (नः पात) = हमारा रक्षण करिये।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे सौभाग्य दीप्त हों। हम यज्ञों व ज्ञानियों के सम्पर्क में रहें। धनों को ज्ञानियों व स्तोताओं के लिये देनेवाले हों। सब देव सदा हमारा कल्याण करें। अगले सूक्त के ऋषि देवता भी 'वसिष्ठ' व 'अग्नि' ही हैं-

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा ! तू सर्व माणसांचे सौभाग्य वाढवून बुद्धी प्राप्त कर. हे प्रजाजनांनो ! तुम्ही राजा व राज्याचे सदैव रक्षण करा. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    These are our good fortunes, O fire divine, O lord of light. Shine and illuminate these so that we may attain noble intelligence and will to do good works. O lord, let all these riches be for the celebrant and servant of Divinity too. O children of the earth, O divine powers, protect and promote us always all round with peace and joy of well being.

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