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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    व॒यं ते त॑ इन्द्र॒ ये च॑ देव॒ स्तव॑न्त शूर॒ दद॑तो म॒घानि॑। यच्छा॑ सू॒रिभ्य॑ उप॒मं वरू॑थं स्वा॒भुवो॑ जर॒णाम॑श्नवन्त ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒यम् । ते । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । ये । च॒ । दे॒व॒ । स्तव॑न्त । शू॒र॒ । दद॑तः । म॒घानि॑ । यच्छ॑ । सू॒रिऽभ्यः॑ । उ॒प॒ऽमम् । वरू॑थम् । सु॒ऽआ॒भुवः॑ । ज॒र॒णाम् । अ॒श्न॒व॒न्त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयं ते त इन्द्र ये च देव स्तवन्त शूर ददतो मघानि। यच्छा सूरिभ्य उपमं वरूथं स्वाभुवो जरणामश्नवन्त ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वयम्। ते। ते। इन्द्र। ये। च। देव। स्तवन्त। शूर। ददतः। मघानि। यच्छ। सूरिऽभ्यः। उपऽमम्। वरूथम्। सुऽआभुवः। जरणाम्। अश्नवन्त ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 30; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः कस्योत्तमे विजयप्रशंसे भवेतामित्याह ॥

    अन्वयः

    हे शूरेन्द्र देव ! ये सूरिभ्यो मघानि ददतस्त उपमं स्तवन्त ये च स्वाभुवो वरूथं जरणामश्नवन्त ते वयं त्वां प्रशंसेम त्वं नो मघानि यच्छा ॥४॥

    पदार्थः

    (वयम्) (ते) (ते) तव (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (ये) (च) (देव) विद्वन् (स्तवन्त) प्रशंसन्ति (शूर) शत्रूणां हिंसक (ददतः) दानं कुर्वतः (मघानि) धनानि (यच्छा) देहि। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (सूरिभ्यः) विद्वद्भ्यः (उपमम्) उपमिमीते येन तम् (वरूथम्) गृहम् (स्वाभुवः) ये सुष्ठु समन्तादुत्तमा भवन्ति ते (जरणाम्) जरावस्थाम् (अश्नवन्त) अश्नुवते ॥४॥

    भावार्थः

    यो राजा सुपरीक्ष्य विद्वद्भ्यो धनादिकं दत्वा सत्कृत्यैतान् विद्यावयोवृद्धान् धार्मिकान् सेनाद्यधिकारेषु नियोजयति तस्य सर्वदा विजयप्रशंसे जायेते ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर किसकी उत्तम जीत और प्रशंसा होती है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (शूर) शत्रुओं के मारने और (इन्द्र) परम ऐश्वर्य देनेवाले (देव) विद्वान् जन ! (ये) जो (सूरिभ्यः) विद्वानों के लिये (मघानि) धनों को (ददतः) देते हुए (ते) आपके (उपमम्) जिससे उपमा दी जाती है उस कर्म की (स्तवन्त) प्रशंसा करते हैं (च) और जो (स्वाभुवः) अच्छे प्रकार सब ओर से उत्तम होते हैं वे जन (वरूथम्) घर और (जरणाम्) जरावस्था को (अश्नवन्त) प्राप्त होते हैं (ते) वे (वयम्) हम लोग आपकी प्रशंसा करें आप हम लोगों के लिये धनों को (यच्छा) देओ ॥४॥

    भावार्थ

    जो राजा अच्छी परीक्षा कर विद्वानों के लिये धन आदि दे और सत्कार कर इन विद्या अवस्था वृद्ध धार्मिक जनों को सेना आदि के अधिकारों में नियुक्त करता है, उसकी सर्वदा जीत और प्रशंसा होती है ॥४॥

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    विषय

    उसको तदुचित आदेश

    भावार्थ

    है ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! प्रभो ! हे ( देव ) दानशील ! ( मघानि ) नाना ऐश्वर्य ( ददतः ) देते हुए (ते) तेरी ( ये च स्तवन्त ) जो लोग स्तुति करते हैं ( ते ) वे और ( वयम् ) हम ( स्वाभुवः ) उत्तम रीति से समृद्ध और सामर्थ्यवान् होकर (जरणाम् ) उत्तम स्तुति और दीर्घ आयु को ( अश्नवन्त ) प्राप्त हों । तू ( सूरिभ्यः ) विद्वान् पुरुषों को ( उपमं वरूथं ) उत्तम गृह और कष्टवारक सैन्य ( यच्छ) प्रदान कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १ विराट् त्रिष्टुप् । २ निचृत्त्रिष्टुप् । ३ निचृत्पंक्तिः । ४, ५ स्वराट् पंक्तिः ॥

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    विषय

    सेनापति ज्ञानवान् हो

    पदार्थ

    पदार्थ - हे (इन्द्र) = ऐश्वर्यवन् ! हे (देव) = दानशील ! (मघानि) = नाना ऐश्वर्य (ददतः) = देते हुए (ते) = तेरी (ये च स्तवन्त) = जो लोग स्तुति करते हैं (ते) = वे और (वयम्) = हम (स्वाभुवः) = उत्तम रीति से समृद्ध होकर (जरणाम्) = स्तुति और दीर्घायु को (अश्नवन्त) = प्राप्त हों। तू (सूरिभ्यः) = विद्वान् पुरुष को (उपम वरूथं) = उत्तम गृह यच्छ दे ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सेनापति युद्धनीति ज्ञाता और सामर्थ्यवान् होकर शत्रुओं की प्रबल सेना को भी ध्वस्त करने में समर्थ हो ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो राजा परीक्षा करून विद्वानांना धन इत्यादी देतो व सत्कार करून विद्या व आयूने संपन्न असलेल्या धार्मिक लोकांना सेनाधिकारी या नात्याने नियुक्त करतो त्याचा सदैव विजय होतो व प्रशंसाही होते. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, generous lord ruler of glory, brave and fearless leader of the nation, we are yours and we stand for you, and so are all those who praise and celebrate the giver and creator of wealth and excellence for all. Pray give to the learned and the wise a good home, sustenance and security worthy of them, noble seniors they are in their own right, moving on forward to a whole fulfilled life.

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