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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 44/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - लिङ्गोक्ताः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    द॒धि॒क्रां वः॑ प्रथ॒मम॒श्विनो॒षस॑म॒ग्निं समि॑द्धं॒ भग॑मू॒तये॑ हुवे। इन्द्रं॒ विष्णुं॑ पू॒षणं॒ ब्रह्म॑ण॒स्पति॑मादि॒त्यान्द्यावा॑पृथि॒वी अ॒पः स्वः॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द॒धि॒ऽक्राम् । वः॒ । प्र॒थ॒मम् । अ॒श्विना॑ । उ॒षस॑म् । अ॒ग्निम् । सम्ऽइ॑द्धम् । भग॑म् । ऊ॒तये॑ । हु॒वे॒ । इन्द्र॑म् । विष्णु॑म् । पू॒षण॑म् । ब्रह्म॑णः । पति॑म् । आ॒दि॒त्यान् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अ॒पः । स्वः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दधिक्रां वः प्रथममश्विनोषसमग्निं समिद्धं भगमूतये हुवे। इन्द्रं विष्णुं पूषणं ब्रह्मणस्पतिमादित्यान्द्यावापृथिवी अपः स्वः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दधिऽक्राम्। वः। प्रथमम्। अश्विना। उषसम्। अग्निम्। सम्ऽइद्धम्। भगम्। ऊतये। हुवे। इन्द्रम्। विष्णुम्। पूषणम्। ब्रह्मणः। पतिम्। आदित्यान्। द्यावापृथिवी इति। अपः। स्वः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 44; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैः सृष्टिविद्यया सुखं वर्धनीयमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! यथोतयेऽहं वः प्रथमं दधिक्रामश्विनोषसं समिद्धमग्निं भगमिन्द्रं विष्णुं पूषणं ब्रह्मणस्पतिमादित्यान् द्यावापृथिवी अपः स्वश्च हुवे तथा मदर्थं यूयमप्येतद्विद्यामादत्त ॥१॥

    पदार्थः

    (दधिक्राम्) यो धारकान् क्रामति (वः) युष्मान् (प्रथमम्) आदिमम् (अश्विना) सूर्याचन्द्रमसौ (उषसम्) प्रभातवेलाम् (अग्निम्) पावकम् (समिद्धम्) प्रदीप्तम् (भगम्) ऐश्वर्यम् (ऊतये) धनाढ्याय (हुवे) आददे (इन्द्रम्) विद्युतम् (विष्णुम्) व्यापकं वायुम् (पूषणम्) पुष्टिकरमोषधिगणम् (ब्रह्मणस्पतिम्) ब्रह्माण्डस्य स्वामिनं परमात्मानम् (आदित्यान्) सर्वान् मासान् (द्यावापृथिवी) सूर्यभूमी (अपः) जलम् (स्वः) सुखम् ॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यथा विद्वांस आदितः भूम्यादिविद्यां संगृह्य कार्यसिद्धिं कुर्वन्ति तथा यूयमपि कुरुत ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब चवालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को सृष्टिविद्या से सुख बढ़ाना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! जैसे (ऊतये) धनादि के लिए मैं (वः) तुम लोगों को और (प्रथमम्) पहिले (दधिक्राम्) जो धारण करनेवालों को क्रम से प्राप्त होता उसे (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा (उषसम्) प्रभातवेला (समिद्धम्) प्रदीप्त (अग्निम्) अग्नि (भगम्) ऐश्वर्य्य (इन्द्रम्) बिजुली (विष्णुम्) व्यापक वायु (पूषणम्) पुष्टि करनेवाले ओषधिगण (ब्रह्मणस्पतिम्) ब्रह्माण्ड के स्वामी (आदित्यान्) सब महीने (द्यावापृथिवी) सूर्य और भूमि (अपः) जल और (स्वः) सुख को (हुवे) ग्रहण करता हूँ, वैसे ही मेरे लिये इस विद्या को आप भी ग्रहण करें ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् जन प्रथम से भूमि आदि की विद्या का संग्रह करके कार्यसिद्धि करते हैं, वैसे तुम भी करो ॥१॥

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    विषय

    विद्वानों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! मैं (वः) आप लोगों में से ( दधिक्राम् ) शिष्यों को धारण कर उनको उपदेश देने वाले ( प्रथमम् ) सबसे प्रथम, ( अश्विना ) सूर्य चन्द्रवत् प्रकाश कर ( उषसम्) प्रभात वेला के समान कान्तियुक्त (समिद्धं अग्निम् ) प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी, (भगम् ) ऐश्वर्यवान् पुरुष को ( ऊतये ) रक्षा, ज्ञान और सुख प्राप्त करने के लिये ( हुवे ) आदरपूर्वक स्वीकार करूं। मैं ( इन्द्रम् ) विद्युत्, ( विष्णुं ) व्यापक शक्ति वाले, ( पूषणं ) पोषक ओषधिवर्ग, (ब्रह्मणः पतिम् ) अन्न धनादि के पालक और ( आदित्यान् ) १२ मासों ( द्यावा पृथिवी ) सूर्य पृथिवी और ( अपः ) जलों और ( स्वः ) सूर्य प्रकाश और सुख को भी ( हुवे ) प्राप्त करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ।। लिङ्गोक्ता देवताः । छन्दः - १ निचृज्जगती । २, ३ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ पंक्तिः ॥

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    विषय

    विद्वानों के कर्त्तव्य

    पदार्थ

    पदार्थ- हे विद्वानो! मैं (वः) = आप में से (दधिक्राम्) = शिष्यों को धारण कर उपदेश देनेवाले (प्रथमम्) = सर्व-प्रथम, (अश्विना) = सूर्य-चन्द्रवत् प्रकाशक (उषसम्) = प्रभात के समान दीप्त (समिद्धं अग्निम्) = प्रज्वलित अग्नि- तुल्य तेजस्वी, (भगम्) = ऐश्वर्यवान् पुरुष को (ऊतये) = रक्षा के लिये (हवे) = स्वीकार करूँ। मैं (इन्द्रम्) = विद्युत्, (विष्णुं) = व्यापक, (पृषणं) = पोषक, (ब्रह्मणः पतिम् =) धनादि के पालक और (आदित्यान्) = १२ मासों (द्यावा-पृथिवी) = सूर्य, पृथिवी, (अपः) = जलों, (स्वः) = सूर्य प्रकाश और सुख को भी (हुवे) = प्राप्त करूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- उत्तम आचार्यों के उपदेशों से ज्ञान प्राप्त करनेवाले कान्तियुक्त तेजस्वी तथा ऐश्वर्यवान् शिष्यों में से प्रजाजनों के साथ मिलकर विद्वान् लोग रक्षा, ज्ञान एवं सुख प्राप्ति के लिए राजा का चयन करें। वह चुना हुआ राजा अन्न, धन, औषधि व जल आदि की व्यवस्था द्वारा बारहों मास प्रजा को सुख पहुँचावे ।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्निरूपी घोड्यांचे गुण व काम यांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे विद्वान लोक सुरुवातीपासूनच भूमिविद्या प्राप्त करून कार्यसिद्धी करतात तसे तुम्हीही करा. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    For your protection and progress, I invoke and adore Dadhikra, original divine energy which moves, sustains and energises all movers and sustainers of existential forms, Ashvins, the sun and moon, the dawn, the burning fire, and Bhaga, honour and glory of life, Indra, electrical energy, Vishnu, cosmic wind energy, Pushan, cosmic vitality and nourishment, Brahmana- spati, cosmic Soul, Adityas, Zodiacs of the sun, heaven and earth, the cosmic waters, and eternal happiness and well being.

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