ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 17
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - आर्षीगायत्री
स्वरः - षड्जः
न घे॑म॒न्यदा प॑पन॒ वज्रि॑न्न॒पसो॒ नवि॑ष्टौ । तवेदु॒ स्तोमं॑ चिकेत ॥
स्वर सहित पद पाठन । घ॒ । ई॒म् । अ॒न्यत् । आ । प॒प॒न॒ । वज्रि॑न् । अ॒पसः॑ । नवि॑ष्टौ । तव॑ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । स्तोम॑म् । चि॒के॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न घेमन्यदा पपन वज्रिन्नपसो नविष्टौ । तवेदु स्तोमं चिकेत ॥
स्वर रहित पद पाठन । घ । ईम् । अन्यत् । आ । पपन । वज्रिन् । अपसः । नविष्टौ । तव । इत् । ऊँ इति । स्तोमम् । चिकेत ॥ ८.२.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 17
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(वज्रिन्) हे वज्रशक्तिक ! (अपसः, नविष्टौ) कर्मसम्बन्धियज्ञे नवे (न, घ, ईं) नैव (अन्यत्) अन्यं (आपपन) स्तौमि (तव, इत्, उ) तवैव (स्तोमं) स्तोत्रं (चिकेत) जानामि ॥१७॥
विषयः
स एव स्तुत्यो नान्य इत्यनया दर्शयति ।
पदार्थः
हे वज्रिन्=सर्वज्ञानमय महादण्डधारिन् परमदेव ! नविष्टौ=नवे नवे उत्सवादौ शुभकर्मणि उपस्थिते सति । अपसः=सर्वव्यापिनस्तव । अन्यत्=त्वद्विषयाद् अन्यत् स्तोत्रम् । न+घ+ईं=न कदापि । आपपन=अभिष्टौमि । पनतेः स्तुतिकर्मण उत्तमे णलि लिटि रूपम् । अपितु । तवेदु=तवैव । स्तोमम्=स्तुतिम् । चिकेत=जानामि । तवैव गुणप्रकाशं करोमीत्यर्थः ॥१७ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(वज्रिन्) हे वज्रशक्तिशालिन् ! (अपसः, नविष्टौ) कर्मों के नूतन यज्ञ में (अन्यत्) अन्य की (आपपन, न घ, ईं) स्तुति नहीं ही करता हूँ (तव, इत्, उ) आप ही के (स्तोमं) स्तोत्र को (चिकेत) जानता हूँ ॥१७॥
भावार्थ
जिज्ञासु की ओर से यह स्तुति की गई है कि हे बड़ी शक्तिवाले कर्मयोगिन् ! नवीन रचनात्मक कर्मरूपी यज्ञ में मैं आप ही की स्तुति करता हूँ। कृपा करके मुझको आप अपने सदुपदेशों से कर्मण्य बनावें, ताकि मैं भी कर्मशील होकर ऐश्वर्य्य प्राप्त करूँ ॥१७॥
विषय
वही स्तवनीय है, अन्य नहीं, यह इससे दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(वज्रिन्) हे सर्वज्ञ महादण्डधारी परमदेव ! (नविष्टौ) हमारे नव-२ शुभकर्म उपस्थित होने पर (अपसः) सर्वव्यापी और कर्मपरायण आपके (अन्यत्) अतिरिक्त स्तोत्र का गान (न+घ+ईम्) मैं कदापि नहीं (आपपन) करता हूँ । किन्तु (तव+इद्+उ) तेरे ही (स्तोमम्) स्तुति का गान (चिकेत) जानता हूँ ॥१७ ॥
भावार्थ
इससे यह सिद्ध होता है कि प्रत्येक शुभकर्म में केवल भगवान् ही स्तवनीय है और अन्यान्य देवों की उपासना से हानि ही है ॥१७ ॥
विषय
प्रभु परमेश्वर से बल ऐश्वर्य की याचना
भावार्थ
हे ( वज्रिन्) शक्तिशालिन् ! ( अपसः ) कर्म करने वाले तेरी ( नविष्टौ ) उत्तम से उत्तम पूजा के अवसर पर मैं (अन्यत् न घ आ पपन ) और कुछ नहीं स्तुति करता, मैं ( तव इत् उ ) तेरी ही ( स्तोमं चिकेत ) स्तुति करना जानूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः । ४१, ४२ मेधातिथिर्ऋषिः ॥ देवता:—१—४० इन्द्रः। ४१, ४२ विभिन्दोर्दानस्तुतिः॥ छन्दः –१– ३, ५, ६, ९, ११, १२, १४, १६—१८, २२, २७, २९, ३१, ३३, ३५, ३७, ३८, ३९ आर्षीं गायत्री। ४, १३, १५, १९—२१, २३, २४, २५, २६, ३०, ३२, ३६, ४२ आर्षीं निचृद्गायत्री। ७, ८, १०, ३४, ४० आर्षीं विराड् गायत्री। ४१ पादनिचृद् गायत्री। २८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्॥ चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु का ही स्तवन
पदार्थ
[१] हे (वज्रिन्) = क्रियाशीलता रूप वज्र [ वज् गतौ] वाले प्रभो ! मैं (अपसः नविष्टौ) = कर्मों के अभिनव याग में, अर्थात् प्रत्येक कर्मयज्ञ के अवसर पर (वा ईम्) = निश्चय से अन्यत् (न आपपन) = किसी और का स्तवन न करूँ। [२] (तव इत् उ) = निश्चय से आपके ही (स्तोमं चिकेत) = स्तवन को जानूँ। अर्थात् आपका ही स्तवन करूँ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रत्येक कार्य के अवसर पर प्रभु का स्तवन करें। प्रभु का स्तवन ही हमें शक्ति देगा और हम कार्य को सफलता के साथ कर सकेंगे।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of thunder and justice, in the beginning of a new plan, action or programme of holiness, I adore none else but only you. I know only one song of adoration and that is for you alone.
मराठी (1)
भावार्थ
जिज्ञासू ही स्तुती करतो, की हे महाशक्तिवान कर्मयोगी! नवीन रचनात्मक कर्मरूपी यज्ञात मी तुझीच स्तुती करतो. कृपा करून मला तू तुझ्या सदुपदेशाने कर्मण्य बनव त्यामुळे मीही कर्मशील बनून ऐश्वर्य प्राप्त करावे. ॥१७॥
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