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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 29/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः कश्यपो वा मारीचः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - आर्चीभुरिग्गायत्री स्वरः - षड्जः

    प॒थ एक॑: पीपाय॒ तस्क॑रो यथाँ ए॒ष वे॑द निधी॒नाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒थः । एकः॑ । पी॒पा॒य॒ । तस्क॑रः । य॒था॒ । ए॒षः । वे॒द॒ । नि॒ऽधी॒नाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पथ एक: पीपाय तस्करो यथाँ एष वेद निधीनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पथः । एकः । पीपाय । तस्करः । यथा । एषः । वेद । निऽधीनाम् ॥ ८.२९.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 29; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 36; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Another watches and guards the paths of life like a sensitive watchman as it knows the secrets of the sources of life’s wealth. (This is Pushan, health energy, or the protective arm of the individual and society.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रत्येक कर्मेन्द्रियाचा गुण शिकण्यासारखा आहे. हातानी आम्ही उपासक काय काय काम करू शकतो, त्यात किती शक्ती आहे व त्यापासून कसा उपकार घ्यावा इत्यादी विचार करावा. ॥६॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    हस्तदेवं दर्शयति ।

    पदार्थः

    एको हस्तदेवः । पथः=सर्वेषामिन्द्रियाणां मार्गान् । पीपाय=रक्षति । प्यायतिर्वर्धनार्थः । अत्र रक्षार्थः । एष देवः । निधीनाम्=तत्र तत्र निहितानां धनानाम् । वेद=निधीन् जानाति । हस्तस्तु सर्वाणि इन्द्रियाणि रक्षतीति प्रत्यक्षमेव । यदा किञ्चिदपि कस्मिंश्चिदङ्गे शुभमशुभं वा जायते तदा शीघ्रमेव हस्तो जानाति । ज्ञात्वा तत्र शीघ्रं प्रयाति । अत्र दृष्टान्तः । तस्करो यथा । यथा कश्चिच्चोरो धनहरणाय पथिकानां मार्गं पालयति । गृहे निहितानि धनानि ज्ञात्वा तदाहृत्य स्वबान्धवेभ्यो ददाति । तद्वदित्यर्थः ॥६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    हस्तदेव का गुण दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (एकः) एक हस्तरूप देव (पथः) इन्द्रियों के मार्गों की (पीपाय) रक्षा करते हैं । (एषः) यह देव (निधीनाम्) निहित धनों को (वेद) जानता है । हस्त सर्व इन्द्रियों की रक्षा करता है, यह तो प्रत्यक्ष ही है और जब किसी अङ्ग में कुछ भी शुभ वा अशुभ होता है, तब शीघ्र ही हस्त जान लेता है, जानकर शीघ्र वहाँ दौड़ जाता है । यहाँ दृष्टान्त कहते हैं (तस्करः+यथा) जैसे चोर धनहरणार्थ पथिकों के मार्ग की रक्षा करता है और गृह में निहित धनों को जान वहाँ से चोरी कर अपने बान्धवों को देता है । तद्वत् ॥६ ॥

    भावार्थ

    प्रत्येक कर्मेन्द्रिय का गुण अध्येतव्य है । हाथ से हम उपासक क्या-२ काम ले सकते हैं, इसमें कितनी शक्ति है और इसको कैसे उपकार में लगावें, इत्यादि विचार करे ॥६ ॥

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    विषय

    उसके महान् अद्भुत कर्म ।

    भावार्थ

    ( यथा तस्करः निधीनां वेद ) जिस प्रकार चोर ख़जानों का पता लगा लेता है वह ( पथः पीपाय ) मार्ग रोक रखता है उसी प्रकार ( एषः ) वह ( एकः ) अद्वितीय प्रभु ( पथः ) सब जीवों से प्राप्त करने योग्य मार्गों की, ( पीपाय ) रखवारी करता, वा ( पथः पीपाय ) सब नाना मार्गों से जाने वाले जीवों को पुष्ट करता है। वह ( यथा ) यथावत् ( तस्करः = तत्-करः ) उन नाना सृष्टि रचन, पालन, संहारादि अद्भुत कर्मों के करने हारा, प्रभु ( निधीनाम् ) समस्त ऐश्वर्यों को ( वेद ) स्वयं जानने, प्राप्त और अन्यों को प्राप्त कराने हारा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मनुर्वैवस्वतः कश्यपो वा मारीच ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः— १, २ आर्ची गायत्री। ३, ४, १० आर्ची स्वराड् गायत्री। ५ विराड् गायत्री। ६—९ आर्ची भुरिग्गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    मार्गरक्षक प्रभु [पूषा]

    पदार्थ

    [१] (एकः) = वह अद्वितीय प्रभु (पथः) = मार्गों का (पीपाय) = रक्षण करते हैं। यज्ञशीलों के स्वर्ग मार्ग का तथा पापशीलों के यातना [पीड़ा ] मार्ग को रक्षित करनेवाले वे प्रभु ही हैं । [२] (यथा) = क्योंकि वे प्रभु (तस्करः) = [तद करोति] उन सबका निर्माण करनेवाले हैं, सो (एषः) = ये प्रभु (निधीनां वेद) = सब कोशों को जानते हैं, सब धनों को वे प्रभु ही प्राप्त कराते हैं (विद् लाभे)

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ही सब मार्गों के रक्षक हैं, प्रभु ही सब निधियों के वेत्ता हैं।

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