ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 16
अ॒ग्निर्मू॒र्धा दि॒वः क॒कुत्पति॑: पृथि॒व्या अ॒यम् । अ॒पां रेतां॑सि जिन्वति ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निः । मू॒र्धा । दि॒वः । क॒कुत् । पतिः॑ । पृ॒थि॒व्याः । अ॒यम् । अ॒पाम् । रेतां॑सि । जि॒न्व॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्पति: पृथिव्या अयम् । अपां रेतांसि जिन्वति ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निः । मूर्धा । दिवः । ककुत् । पतिः । पृथिव्याः । अयम् । अपाम् । रेतांसि । जिन्वति ॥ ८.४४.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 16
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 39; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 39; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
This Agni is the highest lord and master of all on top of heaven and earth and gives energy and sustenance to the seeds of life in the waters of the universe.
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जो ईश्वर त्रिभुवनाचा अधिपती व स्थावर आणि जंगमाचा प्राणस्वरूप आहे, त्याच्या आज्ञा माना. त्याला जाणूनच त्याची पूजा करा. त्याची स्तुती करा. इतराची करू नका. ॥१६॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
अयमग्निः=सर्वत्र विद्यमान ईशः । मूर्धा=सर्वश्रेष्ठः । दिवः=सूर्य्याद्यधिष्ठितलोकस्य । मूर्धा शिरस्थानीयः । पुनः । ककुत्=तस्मादपि लोकादूर्ध्वोऽस्ति । अयमेव पृथिव्या पतिरस्ति । अयमेव अपां=जलानाम् । रेतांसि= स्थावरजङ्गमात्मकानि भूतानि । जिन्वति=प्रीणयति ॥१६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अयम्+अग्निः) यह सर्वत्र विद्यमान ईश (मूर्धा) सबका मूर्धा=शिर है और (दिवः+मूर्धा+ककुत्) द्युलोक का शिर और उससे भी ऊपर विद्यमान है और यह (पृथिव्याः+पतिः) पृथिवी का पति है । यह (अपाम्) जल के (रेतांसि) स्थावर जङ्गमरूप बीजों को (जिन्वति) पुष्ट और जिलाता है ॥१६ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यों ! जो ईश्वर त्रिभुवन का अधिपति और स्थावरों और जङ्गमों का प्राणस्वरूप है, उसकी आज्ञाएँ मानो और उसी को जान पहिचान कर पूजो । स्तुति करो । अन्य की पूजा छोड़ो ॥१६ ॥
विषय
ब्रह्मचारी विद्वान् अग्नि।
भावार्थ
( अयम् ) यह ( पृथिव्याः पतिः ) पृथिवी का स्वामी (दिवः ककुत् ) ज्ञान में श्रेष्ठ, आकाश में सूर्यवत् उन्नत, ( मूर्धा ) शिर के समान सर्वोपरि। विराजमान, ( अग्निः ) अग्रणी विद्वान् ( अपां ) आप्त पुरुषों के बीच रहकर (रेतांसि जिन्वति) वीर्यों का पालन करे, ब्रह्मचर्य का पालन करे। (२) वीर पुरुष प्रजाओं के बीच धनों और बलों की वृद्धि करे। (३) सूर्य अपने तेज से अन्तरिक्ष के बलों को पूर्ण करता, और आकाशस्थ वायु को वर्षणार्थ तैयार करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
अग्नि-प्रगतिशील जीव
पदार्थ
[१] गतमन्त्र के अनुसार जो अपने शरीरगृह में प्रभु का उपासन करता है वह (अग्निः) = अपने को आगे और आगे प्राप्त कराता है। आगे बढ़ता हुआ यह (मूर्धा) = शिखर पर पहुँचता है। (दिवः ककुत्) = यह ज्ञान के शिखर पर होता है-ज्ञानियों में श्रेष्ठ बनता है। (अयं) = यह (पृथिव्याः पति:) = इस शरीररूप पृथिवी का स्वामी होता है। [२] यह सब कुछ इसलिए कर पाता है क्योंकि यह (अपां) = जलों के साथ सम्बद्ध (रेतांसि) = शरीरस्थ रेतःकणों को [आपः रेतो भूत्वा] (जिन्वति) = शरीर में ही प्रेरित करता है। प्राणायाम आदि साधनों के द्वारा यह इन रेतःकणों की ऊर्ध्वगतिवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के उपासन से [क] आगे बढ़ते हुए शिखर पर पहुँचे [ख] 'ज्ञान के शिखर पर हों [ग] शरीर के रक्षक हों [घ] रेतःकणों को शरीर में ही ऊपर प्रेरित करनेवाले बनें।
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