ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 47/ मन्त्र 1
महि॑ वो मह॒तामवो॒ वरु॑ण॒ मित्र॑ दा॒शुषे॑ । यमा॑दित्या अ॒भि द्रु॒हो रक्ष॑था॒ नेम॒घं न॑शदने॒हसो॑ व ऊ॒तय॑: सु॒तयो॑ व ऊ॒तय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठमहि॑ । वः॒ । म॒ह॒ताम् । अवः॑ । वरु॑ण । मित्र॑ । दा॒शुषे॑ । यम् । आ॒दि॒त्याः॒ । अ॒भि । द्रु॒हः । रक्ष॑थ । न । ई॒म् । अ॒घम् । न॒श॒त् । अ॒ने॒हसः॑ । वः॒ । ऊ॒तयः॑ । सु॒ऽऊ॒तयः॑ । वः॒ । ऊ॒तयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
महि वो महतामवो वरुण मित्र दाशुषे । यमादित्या अभि द्रुहो रक्षथा नेमघं नशदनेहसो व ऊतय: सुतयो व ऊतय: ॥
स्वर रहित पद पाठमहि । वः । महताम् । अवः । वरुण । मित्र । दाशुषे । यम् । आदित्याः । अभि । द्रुहः । रक्षथ । न । ईम् । अघम् । नशत् । अनेहसः । वः । ऊतयः । सुऽऊतयः । वः । ऊतयः ॥ ८.४७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 47; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O Varuna, Mitra, powers wise, just and loving, choice and love of all, great is your protection, noble ones, for the generous man of charity. O Adityas, brilliant powers of light and enlightenment, children of indestructible mother life, whoever you protect from the jealous and the malignant, no sin ever touches. Sinless are your protections, noble and holy are your protections (free from jealousy, anger and violence).
मराठी (1)
भावार्थ
अधिलोकात वरुण, मित्र, अर्य्यमा, आदित्य इत्यादी शब्द लोकवाचक असतात. जरी संपूर्ण वेद देवतास्तुतिपरक वाटतात, तरीही त्यांची योजना अनेक प्रकारे होते. देवता शब्द ही वेदात सर्ववाचक आहे, कारण इषु देवता, धनुष देवता, ज्या देवता, अश्व देवता, मण्डूक देवता, वनस्पती यूप देवता इत्यादी शेकडो प्रयोग तो भाव प्रकट करत आहेत. संपूर्ण ऋचेचा आशय हा आहे की, माणसाच्या प्रत्येक वर्गाचे मुख्य मुख्य पुरुष राष्ट्र सभासद असावेत व निरपेक्ष आणि नि:स्वार्थ भावाने मानवजातीच्या हिताची काळजी घेणारे असावेत. जे सर्वोत्तम कार्य करून आपले शेजारी, ग्रामीण व देशवासी यांना विशेष लाभ करून देतात त्यांना सदैव पारितोषिक दिले पाहिजे. देशात पाप वाढता कामा नये. सदैव उद्योगात राहावे. ॥१॥
संस्कृत (1)
विषयः
श्रेष्ठनरा अत्र स्तूयन्ते ।
पदार्थः
हे वरुण=वरणीय राजप्रतिनिधे ! हे मित्र=ब्राह्मणप्रतिनिधे । हे अन्य श्रेष्ठमानवाः ! महताम् । वो युष्माकम् । दाशुषे=दाश्वांसं जनं प्रति । अवः=रक्षणम् । महि=महत् । तथा च हे आदित्याः=सभाध्यक्षाः ! अदितेः सभायाः । अध्यक्षा इत्यादित्याः । यं पुरुषम् । यूयम् । द्रुहः=द्रोहकारिणः सकाशात् । अभिरक्ष च । ईम्=एनम् । अघम् । पापम् । न नशत्=न प्राप्नोति यतो यो युष्माकम् ऊतयो रक्षणानि । अनेहसः=अपापानि अनुपद्रवाणि । ऊतयो रक्षणानि । सु ऊतयः=शोभनरक्षणानि । वो युष्माकमूतयोऽनेहसः । द्विरुक्तिरादरार्था ॥१ ॥
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में श्रेष्ठ नरों की स्तुति की जाती है ।
पदार्थ
(वरुण) हे वरणीय राजप्रतिनिधे (मित्र) हे ब्राह्मणप्रतिनिधे हे अन्यान्य श्रेष्ठ मानवगण ! (महताम्+वः) आप लोग बहुत बड़े हैं और (दाशुषे) सज्जन, न्यायी परोपकारी जनों के लिये आप लोगों का (अवः) रक्षण भी (महि) महान् है (आदित्याः) हे सभाध्यक्ष पुरुषो ! (यम्) जिस सज्जन को (द्रुहः) द्रोहकारी दुष्ट से बचाकर (अभि+रक्षथ) आप सब प्रकार रक्षा करते हैं (ईम्) निश्चय उसको पाप क्लेश और उपद्रव आदि (न+नशत्) प्राप्त नहीं होता, क्योंकि (वः+ऊतयः) आप लोगों की सहायता, रक्षा और निरीक्षण (अनेहसः) निष्पाप, निष्कारण और हिंसारहित है (वः+ऊतयः+सु+ऊतयः) आपकी सहायता अच्छी सहायता है । (वः+ऊतयः) आपकी रक्षा प्रशंसनीय है ॥१ ॥
भावार्थ
अधिलोकार्थ में वरुण, मित्र, अर्य्यमा, आदित्य आदि शब्द लोकवाचक होते हैं । यद्यपि सम्पूर्ण वेद देवता स्तुतिपरक ही प्रतीत होते हैं, तथापि इनकी योजना अनेक प्रकार से होती है । देवता शब्द भी वेद में सर्ववाचक है, क्योंकि इषु देवता, धनुष देवता, ज्या देवता, अश्व देवता, मण्डूक देवता, वनस्पति यूप देवता आदि शतशः प्रयोग उस भाव को दिखला रहे हैं । सम्पूर्ण ऋचा का आशय यह है कि मनुष्य के प्रत्येक वर्ग के मुख्य-२ पुरुष जो राष्ट्र-सभासद् हों और निरपेक्ष और निःस्वार्थ भाव से मनुष्य जाति की हित-चिन्ता में सदा लगे रहें और सर्वोत्तम कार्य करके अपने प्रतिवासियों ग्रामीणों और देशवासियों को विशेष लाभ पहुँचाते हों, उन्हें सदा पारितोषिक दान देना चाहिये और देश में पापों का उदय न हो, उसका सदा उद्योग करते रहना चाहिये ॥१ ॥
विषय
आदित्यों, मासों के तुल्य विद्वान्, तेजस्वी पुरुषों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( वरुण ) सर्वश्रेष्ठ राजन् ! प्रभो ! हे ( मित्र ) स्नेहवन् ! हे मृत्यु से बचाने हारे, वायुवत् प्राणवत् प्रिय ! हे ( आदित्याः ) सूर्यकिरण वा १२ मासों के समान अदिति अर्थात् भूमि या अखण्ड शासन के हितकारी जनो ! ( वः महतां दाशुषे महि अवः ) तुम महापुरुषों का दानशील, आत्मसमर्पक के लिये बड़ी भारी रक्षा वा कृपा रहती है। आप लोग ( यं ) जिसको ( द्रुहः अभि रक्षथ ) द्रोहकारी जन से बचा लेते हो ( ईम् अघं न नशत् ) उसको पाप, हत्यादि प्राप्त नहीं होता। ( वः ऊतयः अनेहसः ) आप लोगों की रक्षाएं निष्पाप और ( वः ऊतयः सुऊतयः) आप लोगों की रक्षाएं व रक्षा साधन उत्तम रक्षासाधन होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित आप्त्य ऋषिः॥ १-१३ आदित्यः। १४-१८ आदित्या उषाश्च देवताः॥ छन्द:—१ जगती। ४, ६—८, १२ निचृज्जगती। २, ३, ५, ९, १३, १६, १८ भुरिक् त्रिष्टुप्। १०, ११, १७ स्वराट् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। अष्टादशर्चं सूक्तम्।
विषय
'मित्र और वरुण' का महान् रक्षण
पदार्थ
[१] हे (वरुण) = निर्देषता के दिव्यभाव, (मित्र) = स्नेह के दिव्यभाव ! (महतो) = महान् (वः) = आपका (अवः) = रक्षण (महि) = महान् है। यह रक्षण (दाशुषे) = दाश्वान् पुरुष के लिए होता है उस व्यक्ति के लिए जो आपके प्रति अपने को दे डालता है-जिसकी साधना यही होती है कि निर्दोष बनना है और प्रेमवाला बनना है। [२] हे (आदित्याः) = उत्तमताओं का आदान करनेवाले दिव्यभावो ! (यं) = जिसको (द्रुहाः) = द्रोह की भावना से (अभिरक्षथ) = आप बचाते हो, इस व्यक्ति को (ईम्) = निश्चय से (अघं) = पाप (न नशत्) = नहीं व्यापता । हे आदित्यो ! (वः) = आपके (ऊतयः) = रक्षण (अनेहसः) = हमें निष्पाप बनानेवाले हैं। (वः) = आपके (ऊतयः) = रक्षण (सु ऊतयः) = उत्तम रक्षण हैं।
भावार्थ
भावार्थ-मित्र और वरुण व आदित्यों का रक्षण महान् है। ये हमें द्रोह की भावना से बचाकर निष्पाप बनाते हैं। इनके रक्षण उत्तम हैं व पवित्र बनानेवाले हैं।
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