ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 71/ मन्त्र 1
ऋषिः - सुदीतिपुरुमीळहौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वं नो॑ अग्ने॒ महो॑भिः पा॒हि विश्व॑स्या॒ अरा॑तेः । उ॒त द्वि॒षो मर्त्य॑स्य ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । महः॑ऽभिः । पा॒हि । विश्व॑स्याः । अरा॑तेः । उ॒त । द्वि॒षः । मर्त्य॑स्य ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं नो अग्ने महोभिः पाहि विश्वस्या अरातेः । उत द्विषो मर्त्यस्य ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । नः । अग्ने । महःऽभिः । पाहि । विश्वस्याः । अरातेः । उत । द्विषः । मर्त्यस्य ॥ ८.७१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 71; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, leading light of life, with your mighty powers and grandeur, protect us against all material, moral and social adversity and all mortal jealousy and enmity.
मराठी (1)
भावार्थ
यावरून ही शिकवण मिळते की (परमेश्वर म्हणतो) तुम्ही प्रथम निष्कारण शत्रुत्व करू नका. मानवता काय आहे याच्यावर पूर्ण विचार करत त्यांचा प्रचार करा. आपल्या अंत:करणातून सर्वस्वी हिंसाभाव काढून टाका. ॥१॥
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन् सूक्तेऽग्निनाम्ना परमात्मा स्तूयते ।
पदार्थः
हे अग्ने=सर्वाधार ! सर्वशक्ते ! त्वं+महोभिः=महतीभिः शक्तिभिः । नोऽस्मान् । विश्वस्याः=सर्वस्याः । अरातेः=शत्रुताया दीनताया मानसिकमलीनताप्रभृतिभ्यः । पाहि । उत+मर्त्यस्य । द्विषः=द्वेषाद् इर्ष्याया द्रोहादिभ्यश्चास्मान् पाहि ॥१ ॥
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में अग्नि नाम से परमात्मा की स्तुति की जाती है ।
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वाधार हे सर्वशक्ते जगन्नियन्ता ईश ! (त्वम्) तू (महोभिः) स्वकीया महती शक्तियों के द्वारा (विश्वस्याः) समस्त (अरातेः) शत्रुता दीनता और मानसिक मलीनता आदि से (नः) हमको (पाहि) बचा (उत) और (मर्त्यस्य) मनुष्य के द्वेष, ईर्ष्या और द्रोह आदिकों से भी हमको बचा ॥१ ॥
भावार्थ
इससे यह शिक्षा देते हैं कि तुम प्रथम निष्कारण शत्रुता न करो । केवल मनुष्यता क्या है, इस पर पूर्ण विचार कर इसका प्रचार करो । अपने अन्तःकरण से सर्वथा हिंसाभाव निकाल दो ॥१ ॥
विषय
तेजस्वी अग्रणी नायक के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! अग्निवत् अग्रणीनायक ! ( त्वं ) तू ( नः ) हमारी ( विश्वस्याः अरातेः ) सब प्रकार की शत्रु सेना (उत) और ( द्विषः मर्त्यस्य ) शत्रु मनुष्य से भी ( महोभिः ) बड़े धनों द्वारा ( पाहि ) रक्षा कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ७ विराड् गायत्री। २, ६, ८, ९ निचृद् गायत्री। ३, ५ गायत्री। १०, १०, १३ निचृद् बृहती। १४ विराड् बृहती। १२ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ बृहती॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'अरातेः, द्विषः' पाहि
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (त्वम्) = आप (नः) = हमें (महोभिः) = तेजस्विताओं के द्वारा हमारे में तेजस्विता का स्थापन करके (विश्वस्याः) = सबके अन्दर प्रवेश कर जानेवाली [विशति] (अराते:) = अदानवृत्ति से (पाहि) = बचाइए। तेजस्वी बनकर हम कृपणता से ऊपर उठें। तेजस्वी सदा दानशूर होता है। । [२] (उत) = और हे प्रभो ! (मर्त्यस्य) = मनुष्यमात्र के प्रति (द्विषः) = द्वेष की भावनाओं से भी हमें [पाहि] बचाइए। हम किसी के प्रति द्वेषवाले न हों।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का स्मरण हमें तेजस्वी बनाए। तेजस्विता हमें अदानवृत्ति व द्वेष की भावनाओं से दूर करे।
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