ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 74/ मन्त्र 15
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः
देवता - श्रुतर्वण आर्क्षस्य दानस्तुतिः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
स॒त्यमित्त्वा॑ महेनदि॒ परु॒ष्ण्यव॑ देदिशम् । नेमा॑पो अश्व॒दात॑र॒: शवि॑ष्ठादस्ति॒ मर्त्य॑: ॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्यम् । इत् । त्वा॒ । म॒हे॒ऽन॒दि॒ । परु॑ष्णि । अव॑ । दे॒दि॒श॒म् । न । ई॒म् । आ॒पः॒ । अ॒श्व॒ऽदात॑रः । शवि॑ष्ठात् । अ॒स्ति॒ । मर्त्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्यमित्त्वा महेनदि परुष्ण्यव देदिशम् । नेमापो अश्वदातर: शविष्ठादस्ति मर्त्य: ॥
स्वर रहित पद पाठसत्यम् । इत् । त्वा । महेऽनदि । परुष्णि । अव । देदिशम् । न । ईम् । आपः । अश्वऽदातरः । शविष्ठात् । अस्ति । मर्त्यः ॥ ८.७४.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 74; मन्त्र » 15
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O divine powers of light and vitality of perception and imagination, generous and overflowing with spirit and enthusiasm, I say this true of you and to you and of and to the dynamics of cosmic intelligence, there is no mortal power which is a greater giver of bliss and joy than the most potent and most brilliant Agni.
मराठी (1)
भावार्थ
परमदेव आम्हाला सर्व प्रकारे सुख देतो व धन इत्यादीचे उपार्जन करण्यासाठी बुद्धी, विवेक, पुरुषार्थ देतो. त्यासाठी आम्ही त्याच्या आज्ञेनुसार वागून कल्याणाभिलाषी बनावे. ॥१५॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे महेनदि=विविधशाखायुक्ते ! हे परुष्णि=पूरयित्रि बुद्धिदेव ! सत्यमित्=सत्यमेव । त्वा=त्वाम् । अव+देदिशम्= कथयामि । हे आपः=आपनशीलानि इन्द्रियाणि ! शविष्ठात् परमबलवत ईश्वरात् । अश्वदातरः=अश्वादिपशुप्रदातृतरः । मर्त्यः । नेम्=नास्ति ॥१५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(महेनदे) हे विविध शाखायुक्ते (परुष्णि) हे सुखों को पहुँचानेवाली बुद्धि देवि ! (आपः) हे गमनशील इन्द्रियगण ! (सत्यम्+इत्) सत्य ही (त्वा) तुमको (अवदेदिशम्) कहता हूँ कि (शविष्ठात्) परम बलवान् परमात्मा की अपेक्षा अधिक (अश्वदातरः) अश्वादि पशुओं और हिरण्यादि धनों को देनेवाला (मर्त्यः) मनुष्य (नेम्) नहीं है, अतः आप सब मिलकर उसी की प्रार्थना उपासना करें ॥१५ ॥
भावार्थ
जिस कारण परमदेव सब प्रकार से हम लोगों को सुख पहुँचा रहा है और धनादि उपार्जन के लिये बुद्धि विवेक पुरुषार्थ देता है, अतः उसकी आज्ञा पर चलकर कल्याणाभिलाषी होवें ॥१५ ॥
विषय
राजा की बलवती सेना 'परुष्णी' का वर्णन।
भावार्थ
हे ( महेनदि ) महानदी के समान बड़ा भारी शब्द करने के वाली ! हे (परुष्णि) पोरु पोरु अर्थात् छोटी २ टुकड़ियों से बनी, वा पर्व २ पर उष्ण अर्थात् शत्रु को दग्ध करने वाली, तेजस्विनी वा कुटिलगामिनी सेने ! ( त्वा ) तुझ को मैं (सत्यम् इत् ) सत्य ही ( अव देदिशम् ) कहता हूँ। हे ( आपः ) आप्त जनो, प्राप्त प्रजाओ ! सुनो (शविष्ठात् ) अति बलशाली से दूसरा कोई ( मर्त्यः ) मनुष्य ( अश्वदातरः न ईम् अस्ति ) अश्व सैन्य को अन्न वस्त्र भृति आदि देने वा पालन करने वाला नहीं है। बलिष्ठ राजा ही सब से बड़ा अश्वादि सैन्य का पालक होता है। इति त्रयोविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोपवन आत्रेय ऋषि:॥ देवताः—१—१२ अग्निः। १३—१५ श्रुतर्वण आर्क्ष्यस्य दानस्तुतिः। छन्द्रः—१, १० निचुदनुष्टुप्। ४, १३—१५ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचुदनुष्टुप्। २, ११ गायत्री। ५, ६, ८, ९, १२ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
महेनदी, परुष्णी
पदार्थ
[१] हे (महेनदि) = अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करनेवाली और इसप्रकार (परुष्ण) = हमारा पालन व पूरण करने वाली बुद्धि ! (सत्यम् इत्) = सचमुच ही (त्वा) = तुझे (अवदेदिशम्) = मैं इस विषयवासनामय संसार से परे प्रेरित करता हूँ [Direct, order, command] । [२] हे (आपः) = प्रजाओ ! (न ईम्) = नहीं ही निश्चय से (शविष्ठात्) = उस शक्तिशाली प्रभु को छोड़कर कोई अन्य (मर्त्यः) = मनुष्य (अश्व-दा-तरः अस्ति) = उत्कृष्ट इन्द्रियाश्वों को देनेवाला है। प्रभु ही इन इन्द्रियाश्वों को प्राप्त कराते हैं-हमारी बुद्धि इन्हें प्रभु की ओर ही ले चलनेवाली हो । बुद्धि ही तो सारथि है। मैं रथी इसे इस रथ को प्रभु की ओर ले चलने के लिए निर्देश करता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ- हमारी बुद्धि इन्द्रियाश्वों को प्रभु की ओर ले चलनेवाली हो। यह बुद्धि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करनेवाली है तथा हमारा पालन व पुरण करनेवाली है। गतमन्त्र के अनुसार प्रभु की ओर चलनेवाला यह व्यक्ति 'विरूप' = विशिष्ट रूपवाला बनता है। यह 'अग्नि' नाम से प्रभु का स्मरण करता है-
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