ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 89/ मन्त्र 7
आ॒मासु॑ प॒क्वमैर॑य॒ आ सूर्यं॑ रोहयो दि॒वि । घ॒र्मं न साम॑न्तपता सुवृ॒क्तिभि॒र्जुष्टं॒ गिर्व॑णसे बृ॒हत् ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒मासु॑ । प॒क्वम् । ऐर॑यः । आ । सूर्य॑म् । रो॒ह॒यः॒ । दि॒वि । घ॒र्मम् । न । साम॑न् । त॒प॒त॒ । सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑ । जुष्ट॑म् । गिर्व॑णसे । बृ॒हत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आमासु पक्वमैरय आ सूर्यं रोहयो दिवि । घर्मं न सामन्तपता सुवृक्तिभिर्जुष्टं गिर्वणसे बृहत् ॥
स्वर रहित पद पाठआमासु । पक्वम् । ऐरयः । आ । सूर्यम् । रोहयः । दिवि । घर्मम् । न । सामन् । तपत । सुवृक्तिऽभिः । जुष्टम् । गिर्वणसे । बृहत् ॥ ८.८९.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 89; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 7
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
You move the ripening flow of sap in the veins of maturing forms of life. You raise and place the sun in the high heaven. O celebrants, as in the heat of fire, temper and shine your sama songs of adoration and, with noble hymns of praise, sing resounding Brhat samans of worship with love in honour of adorable Indra.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वरच सृष्टीत होणाऱ्या सर्व क्रियांचा अधिष्ठाता आहे. अपरिपक्व औषधींमध्ये रसही त्या शक्तीद्वारेच येतो. द्यूलोकात जे प्रकाशलोक इतक्या उंचीवर दिसून येतात तेही त्याच्या सामर्थ्याचे प्रतीक आहेत. वाणीद्वारे त्याची स्तुती करणे सर्वस्वी योग्य आहे. बृहत्साम त्याचे अभीष्ट स्तुतिगान आहे. विद्वानांनी त्याद्वारेच त्याचे गुणगान करावे. ॥७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(आमासु) अपरिपक्व [ओषधियों आदि] में (पक्वम्) परिपक्व [रस] आदि अथवा परिपक्वता को तूने (ऐरयः) प्रेरणा प्रदान की; सूर्य-सूर्य को (दिवि) प्रकाशमान द्युलोक में (आरोहयः) चढ़ाया। उस (गिर्वणसे) वाणी से सेवन योग्य परमैश्वर्यवान् हेतु (जुष्टम्) प्रीति के कारणभूत अथवा प्रिय (बृहत् सामन्) बृहत्साम को (घर्मम् न) शोधक एवं उष्ण सूर्यताप के तुल्य (तपत) तपो॥७॥
भावार्थ
परमात्मा सृष्टि में हो रही सारी क्रियाओं का अधिष्ठाता है। अपरिपक्व ओषधियों में रस भी उस शक्ति से ही आता है--द्युलोक में जो प्रकाश लोक इतनी ऊँचाई पर दिखाई देते हैं--वह भी उसके सामर्थ्य के प्रतीक हैं। वीणा के द्वारा उसकी स्तुति करना सर्वथा उचित हैः बृहत्साम उसका अभीष्ट स्तुतिगान है; विद्वान् उससे ही उसका गुणगान करें। ७॥ अष्टम मण्डल में नवासीवाँ सूक्त व बारहवाँ वर्ग समाप्त।
विषय
इन्द्र प्रभु की स्तुति।
भावार्थ
हे प्रभो ! तू ( आमासु ) कच्ची, मृदु भूमियों में ( पक्कं ) परिपाक योग्य, तेज, वीर्य को ( ऐरयः ) प्रदान करता है, और ( दिवि ) आकाश में ( सूर्यं आरोहयः ) सूर्य को स्थापित करता है। ( गिर्वणसे ) वाणी से सेवने योग्य उस प्रभु के ( जुष्टं ) प्रिय ( बृहत् ) बड़े भारी ( धर्मं ) तेज को ( सामन्) सामस्तुति द्वारा ( सु-वृक्तिभिः ) और उत्तम स्तुतियों द्वारा ( घर्मं न ) सूर्य प्रकाशवत् ( तपत ) तपो, उसका सेवन कर तपश्चर्या करो। तपश्चर्या से उसके तेज को धारण करो। इति द्वादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नृमेधपुरुमेधावृषी॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७ बृहती। ३ निचृद् बृहती। २ पादनिचृत् पंक्तिः। ४ विराट् पंक्तिः। ५ विरानुष्टुप्। ६ निचृदनुष्टुप्॥ पडृचं सूक्तम्॥
विषय
प्रभुस्तवन द्वारा ज्ञानवृद्धि
पदार्थ
[१] हे प्रभो! आप ही (आमासु) = हमारी अपरिपक्व बुद्धियों में (पक्वम्) = परिपक्व ज्ञान को (ऐरय:) = प्रेरित करते हैं और आप ही (दिवि) = हमारे मस्तिष्करूप द्युलोक में (सूर्यम्) = ज्ञान - सूर्य को (आरोहयः) = आरूढ़ करते हैं। [२] (घर्मं न) = [Sunshine ] वे प्रभु सूर्यप्रकाश के समान दीप्त हैं [आदित्यवर्णम्] । (सामन्) = शान्ति के निमित्त उस प्रभु को (सुवृक्तिभिः) = सम्यक् दोषवर्जन हेतुभूत स्तुतियों से (तपता) = दीप्त करो। (गिर्वणसे) = स्तुतिवाणियों के द्वारा सेवनीय उस प्रभु के लिये (बृहत्) = यह बृहत् साम [स्तुति] जुष्टम् प्रीतिकर होती है। स्तुति हमें प्रभु का प्रिय बनाती है।
भावार्थ
भावार्थ- हम जितना प्रभु का स्तवन करते हैं, उतना ही प्रभु को प्रिय होते हैं। प्रभु हमारे मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञानसूर्य का आरोहण करते हैं। = अगला सूक्त भी 'नृमेध पुरुमेधौ' ऋषियों का ही है-
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