ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 24/ मन्त्र 2
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒भि गावो॑ अधन्विषु॒रापो॒ न प्र॒वता॑ य॒तीः । पु॒ना॒ना इन्द्र॑माशत ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । गावः॑ । अ॒ध॒न्वि॒षुः॒ । आपः॑ । न । प्र॒ऽवता॑ । य॒तीः । पु॒ना॒नाः । इन्द्र॑म् । आ॒श॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि गावो अधन्विषुरापो न प्रवता यतीः । पुनाना इन्द्रमाशत ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । गावः । अधन्विषुः । आपः । न । प्रऽवता । यतीः । पुनानाः । इन्द्रम् । आशत ॥ ९.२४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 24; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(गावः) इन्द्रियाणि कर्मयोगिषु (आपः न) जलमिव (प्रवता) वेगवन्ति (अभि अधन्विषुः) भवन्ति (यतीः) वशीभूतानि भवन्ति (पुनानाः) तानि च पवित्रीकुर्वाणानि (इन्द्रम् आशत) परमात्मानं विषयीकुर्वन्ति ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(गावः) इन्द्रियें (अभि अधन्विषुः) कर्मयोगियों में (आपः न) जल के समान (प्रवता) वेगवाली होती हैं और (यतीः) वशीभूत होती हैं (पुनानाः) वे वशीकृत इन्द्रियें मनुष्य को पवित्र करती हुई (इन्द्रम् आशत) परमात्मा को विषय करती हैं ॥२॥
भावार्थ
कर्मयोगी पुरुषों की इन्द्रियें परमात्मा का साक्षात्कार करती हैं। यहाँ साक्षात्कार से तात्पर्य यह है कि वे परमात्मा को विषय करती हैं। जैसा कि “दृश्यते त्वग्र्या बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः” कठ० ३।१२। इस वाक्य में निराकार परमात्मा बुद्धि का विषय माना गया है। इसी प्रकार कर्मयोगी पुरुष की इन्द्रियें परमात्मा के साक्षात्कार के सामर्थ्य का लाभ करती हैं ॥२॥
विषय
पुनाना
पदार्थ
[१] (गाव:) = [गच्छन्ति इति] गमनशील सोमकण (आपः न) = जलों के समान सर्वत्र शरीर में व्याप्त होनेवाले (प्रवता यती:) = [प्रवत् height elevation ] उत्कृष्ट स्थान की ओर जाते हुए (अभि) = उस प्रभु की ओर (अधन्विषुः) = गतिवाले होते हैं। जब इन सोमकणों की शरीर में ऊर्ध्वगति होती है, तो ये हमें शक्ति प्राप्त कराके गतिशील बनाते हैं, और उत्कर्ष की ओर ले जाते हुए हमें प्रभु को प्राप्त कराते हैं। [२] ये सोमकण (पुनाना:) = हमें पवित्र करते हुए (इन्द्रं आशत) = जितेन्द्रिय पुरुष में व्याप्त होते हैं । वस्तुतः जितेन्द्रियता के होने पर ये शरीर में व्याप्त होते हैं और हमें पवित्र बनाते करते हैं। शरीरस्थ रोगकृमियों का ही ये संहार नहीं करते, अपितु मानस वासनाओं को भी विनष्ट करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम [क] हमें उत्कृष्ट गतिवाला बनाते हैं, [ख] अन्त में प्रभु को प्राप्त कराते हैं, [ग] हमारे जीवन को पवित्र बनाते हैं।
विषय
जलधाराओं से उनकी उपमा।
भावार्थ
(प्रवता यतीः आपः न इन्द्रम् आशत) जिस प्रकार नीचे की ओर जाने वाले मार्ग से जाती जलधाराएं जलों के धारक समुद्र तक पहुंच जाती हैं उसी प्रकार (प्रवता यतीः) उत्तम पद से जाने वाले (आपः) सूक्ष्म शरीरी वा आप्त जन (गावः) सदा गति करते हुए (अभि अधन्विषुः) आगे ही बढ़ते जाते हैं और (पुनानाः) अपने आप को उत्तरोत्तर पवित्र करते हुए (इन्द्रम् आशत) उस परमेश्वर, तेजोमय, भय-संकट के विदारण करने वाले प्रभु को, गुरु को शिष्योंवत् प्राप्त होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:– १, २ गायत्री। ३, ५, ७ निचृद् गायत्री। ४, ६ विराड् गायत्री ॥ सप्तर्चं सूकम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The ecstasy and power of soma vibrations energise the mind and senses of the celebrant, purifying and perfecting them, and, thus purified, the senses and mind move to the presence of omnipotent all-joyous Indra like streams and rivers flowing, rushing and joining the sea.
मराठी (1)
भावार्थ
कर्मयोगी पुरुषांची इंद्रिये परमेश्वराचा साक्षात्कार करतात. येथे साक्षात्काराचा अर्थ हा आहे की ती परमेश्वराला विषय बनवितात. जसे ‘दृश्यते त्वग्रया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:’ क. ३।१२ या वाक्यात निराकार परमात्मा बुद्धीचा विषय मानलेला आहे. याचप्रकारे कर्मयोगी पुरुषाची इंद्रिये परमात्म्याच्या साक्षात्काराच्या सामर्थ्याचा लाभ घेतात. ॥२॥
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