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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 28/ मन्त्र 3
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    ए॒ष दे॒वः शु॑भाय॒तेऽधि॒ योना॒वम॑र्त्यः । वृ॒त्र॒हा दे॑व॒वीत॑मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षः । दे॒वः । शु॒भा॒य॒ते॒ । अधि॑ । योनौ॑ । अम॑र्त्यः । वृ॒त्र॒ऽहा । दे॒व॒ऽवीत॑मः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष देवः शुभायतेऽधि योनावमर्त्यः । वृत्रहा देववीतमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एषः । देवः । शुभायते । अधि । योनौ । अमर्त्यः । वृत्रऽहा । देवऽवीतमः ॥ ९.२८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 28; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (एषः देवः) अयं परमात्मा (अधि योनौ) प्रकृतौ (अमर्त्यः) अविनाशी सन् (शुभायते) प्रकाशते (वृत्रहा) अज्ञाननाशकः   (देववीतमः) सत्कर्मिभ्यो भृशं स्पृहयति च ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (एषः देवः) यह परमात्मा (अधि योनौ) प्रकृति में (अमर्त्यः) अविनाशी हो कर (शुभायते) प्रकाशित हो रहा है (वृत्रहा) और वह अज्ञान का नाशक है तथा (देववीतमः) सत्कर्मियों को अत्यन्त चाहनेवाला है ॥३॥

    भावार्थ

    तात्पर्य यह है कि योनि नाम यहाँ कारण का है, वह कारण प्रकृतिरूपी कारण है अर्थात् प्रकृति परिणामिनी नित्य है और ब्रह्म कूटस्थ नित्य है। परिणामी नित्य उसको कहते हैं कि जो वस्तु अपने स्वरूप को बदले और नाश को न प्राप्त हो और कूटस्थ नित्य उसको कहते हैं कि जो स्वरूप से नित्य हो अर्थात् जिसके स्वरूप में किसी प्रकार का विकार न आये। उक्त प्रकार से यहाँ परमात्मा को कूटस्थरूप से वर्णन किया है ॥३॥

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    विषय

    वृत्रहा देववीतमः

    पदार्थ

    [१] (एषः) = यह (देवः) = दिव्य गुणों के विकास का कारणभूत, (अमर्त्यः) = हमें रोगों के कारण असमय में न मरने देनेवाला सोम (अधियोनौ) = अपने उत्पत्ति - स्थान में, अर्थात् शरीर में ही (शुभायते) = शोभावाला होता है। शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ यह सब प्रकार की उन्नतियों का साधक होता है। शरीर को पृथक् हुआ - हुआ यह मल मात्र रह जाता है। [२] शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ यह (वृत्रहा) = सब ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को विनष्ट करता है तथा (देववीतमः) = अधिक से अधिक दिव्य गुणों को प्राप्त कराता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम शोभा की वृद्धि का कारण बनता है ।

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    विषय

    उसका अभिषेक।

    भावार्थ

    (एषः देवः) वह दानशील, (अमर्त्यः) अविनाशी, दीर्घजीवी, असाधारण मनुष्य (वृत्रहा) शत्रुओं का नाश करने वाला (देववीतमः) विद्वानों में अति तेजस्वी पुरुष (योनौ अधि शुभायते) उत्तम पद पर शोभा देता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रियमेध ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:–१, ४, ५ गायत्री। २, ३, ६ विराड् गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This self-refulgent, immortal divine presence, highest lover of noble and generous souls, pervades and shines all over in the universe through its mode of Prakrti, dispelling darkness and eliminating evil.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    योनी येथे कारणाचे नाव आहे. ते कारण प्रकृतिरूप कारण आहे अर्थात प्रकृती परिणामी नित्य आहे व ब्रह्म कूटस्थ नित्य आहे परिणामी नित्य आहे व ब्रह्म कूटस्थ नित्य आहे परिणामी नित्य त्याला म्हणतात की जी वस्तू आपले स्वरूप बदलते व नाश होत नाही व कूटस्थनित्य त्याला म्हणतात की जी स्वरूपाने नित्य असेल अर्थात् ज्याच्या स्वरूपात कोणत्याही प्रकारचा विकार येत नाही. वरील प्रकारे येथे परमात्म्याला कूटस्थस्वरूपात वर्णिलेले आहे. ॥३॥

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