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ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 55/ मन्त्र 3
उ॒त नो॑ गो॒विद॑श्व॒वित्पव॑स्व सो॒मान्ध॑सा । म॒क्षूत॑मेभि॒रह॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । नः॒ । गो॒ऽवित् । अ॒श्व॒ऽवित् । पव॑स्व । सो॒म॒ । अन्ध॑सा । म॒क्षुऽत॑मेभिः । अह॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत नो गोविदश्ववित्पवस्व सोमान्धसा । मक्षूतमेभिरहभिः ॥
स्वर रहित पद पाठउत । नः । गोऽवित् । अश्वऽवित् । पवस्व । सोम । अन्धसा । मक्षुऽतमेभिः । अहऽभिः ॥ ९.५५.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 55; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(उत नः) यो ह्यस्मभ्यं (गोवित् अश्ववित्) गवाद्यैश्वर्यप्रापको भवानेव, अतः (सोम) हे जगदाधार ! (मक्षूतमेभिः अहभिः) अचिरेणैव कालेन (अन्धसा पवस्व) समस्तान्नादिसमृद्ध्या पवित्रय ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(उत नः) जो कि हमारे लिये (गोवित् अश्ववित्) गवाश्वादि ऐश्वर्य के प्रापक आप ही हैं, इसलिये (सोम) हे परमात्मन् ! (मक्षूतमेभिः अहभिः) अति अल्पकाल ही में (अन्धसा पवस्व) सम्पूर्ण अन्नादि समृद्धि से पवित्र करिये ॥३॥
भावार्थ
सम्पूर्ण ऐश्वर्यों का अधिपति एकमात्र परमात्मा ही है, इसलिए उसी की उपासना और प्रार्थना करनी चाहिये ॥३॥
विषय
गोवित्- अश्ववित्
पदार्थ
[१] (उत) = और हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! तू (नः) = हमारे लिये (गोवित्) = उत्कृष्ट ज्ञानेन्द्रियों को प्राप्त करानेवाला हो। (अश्ववित्) = उत्कृष्ट कर्मेन्द्रियों को प्राप्त करानेवाला हों। सुरक्षित सोम सब इन्द्रियों को सशक्त बनाता है, कर्मेन्द्रियाँ शक्ति सम्पन्न होकर यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त होती हैं और ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्ति में रुचिवाली होती हैं। [२] हे सोम ! तू (मक्षूतमेभिः) = [ मक्ष् To accumalating heap, collect] अधिक से अधिक संचय की कारणभूत (अहभिः) = [अह व्याप्तौ ] व्याप्तियों के द्वारा (अन्धसा) = इस सोम्य अन्न के भक्षण से तू (पवस्व) = हमें पवित्र करनेवाला हो। जिस समय हम सोम्य अन्नों का सेवन करते हैं, उस समय यह सोम शरीर में सुरक्षित होता है । रुधिर में व्याप्त होता हुआ यह सोम शरीर में संचित होता हुआ हमारे जीवनों को सब प्रकार से पवित्र करता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोम्य अन्न के सेवन से सोम शरीर में ही संचित व व्याप्त होता है। यह ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों को प्रशस्त बनाता है ।
विषय
राजा के कर्त्तव्य, उत्तम आसन पर स्थिति, प्रजा को नाना सम्पदा का देना और शत्रु-नाश।
भावार्थ
हे (सोम) ऐश्वर्यवन् ! (मक्षूतमेभिः अहभिः) अति शीघ्र दिनों में ही तू (नः गोवित् अश्ववित्) गौओं और अश्वों का देने हारा हो, तू (अन्धसा पवस्व) अन्न से हम पर कृपा कर। अर्थात् अन्न दे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अवत्सार ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २ गायत्री। ३, ४ निचृद गायत्री॥ चतुऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
And O Soma, lord of energy, wealth and advancement, master of knowledge and progress, by the shortest time of the days ahead, bless and beatify us with food for body, mind and soul, rich in lands, cows and culture, horses, advancement and progressive power and achievement.
मराठी (1)
भावार्थ
संपूर्ण ऐश्वर्यांचा अधिपती एकमात्र परमात्माच आहे. त्यासाठी त्याचीच उपासना व प्रार्थना केली पाहिजे. ॥३॥
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