Loading...

सामवेद के मन्त्र

  • सामवेद का मुख्य पृष्ठ
  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1020
    ऋषिः - मन्युर्वासिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    2

    अ꣢ध꣣ धा꣡र꣢या꣣ म꣡ध्वा꣢ पृचा꣣न꣢स्ति꣣रो꣡ रोम꣢꣯ पवते꣣ अ꣡द्रि꣢दुग्धः । इ꣢न्दु꣣रि꣡न्द्र꣢स्य स꣣ख्यं꣡ जु꣢षा꣣णो꣢ दे꣣वो꣢ दे꣣व꣡स्य꣢ मत्स꣣रो꣡ मदा꣢꣯य ॥१०२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡ध꣢꣯ । धा꣡र꣢꣯या । म꣡ध्वा꣢꣯ । पृ꣣चानः꣢ । ति꣣रः꣢ । रो꣣म꣢꣯ । प꣣वते । अ꣡द्रि꣢꣯दुग्धः । अ꣡द्रि꣢꣯ । दु꣣ग्धः । इ꣡न्दुः꣢꣯ । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । स꣣ख्य꣢म् । स꣣ । ख्य꣢म् । जु꣣षाणः꣢ । दे꣢वः꣢ । दे꣣व꣡स्य꣢ । म꣣त्सरः꣢ । म꣡दाय꣢꣯ ॥१०२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध धारया मध्वा पृचानस्तिरो रोम पवते अद्रिदुग्धः । इन्दुरिन्द्रस्य सख्यं जुषाणो देवो देवस्य मत्सरो मदाय ॥१०२०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अध । धारया । मध्वा । पृचानः । तिरः । रोम । पवते । अद्रिदुग्धः । अद्रि । दुग्धः । इन्दुः । इन्द्रस्य । सख्यम् । स । ख्यम् । जुषाणः । देवः । देवस्य । मत्सरः । मदाय ॥१०२०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1020
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 6; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में फिर ब्रह्मानन्दरस का वर्णन है।

    पदार्थ

    (अध) और, (अद्रिदुग्धः) मन-बुद्धि रूप सिलबट्टों से अभिषुत वह ब्रह्मानन्द-रूप सोम (मध्वा धारया) मधुर धारा से (पृचानः) संपृक्त करता हुआ (तिरः रोम) रोमाञ्च उत्पन्न करता हुआ (पवते) प्रवाहित होता है। (देवः) प्रकाश का दाता, (मत्सरः) मद-जनक (इन्दुः) सराबोर करनेवाला वह ब्रह्मानन्दरस (देवस्य) दिव्यगुणयुक्त (इन्द्रस्य) जीवात्मा की (सख्यम्) मैत्री को (जुषाणः) सेवन करता हुआ, उसके (मदाय) उत्साह के लिए होता है ॥२॥ यहाँ ध-र-द-म आदियों की अनेक बार आवृत्ति होने से वृत्त्यनुप्रास है। ‘देवो, देव’ में छेकानुप्रास है ॥२॥

    भावार्थ

    ब्रह्म के पास से बही हुई आनन्दधाराएँ जब जीवात्मा को नहला देती हैं, तब अत्यन्त निर्मल अन्तःकरणवाला जीवन्मुक्त वह बड़े से बड़े दुःख को भी तिनके के बराबर भी नहीं समझता ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    पदार्थ

    (इन्दुः) आनन्दरसपूर्ण परमात्मा (अध) अनन्तर (मध्वा धारया) मधुर ध्यान धारणा से (पृचानः) सम्पर्क करता हुआ (अद्रिदुग्धः) स्तुतिकर्ता उपासक*101 के हृदय में निष्पादित (तिरः-रोम पवते) हृदय के सूक्ष्म तन्तुओं को*102 लांघ कर हृदय-आकाश में प्राप्त होता है (इन्द्रस्य देवस्य सख्यं जुषाणः-देवः) दिव्य गुण वाले आत्मा से मित्रभाव को प्रिय करता हुआ—चाहता हुआ परमात्मदेव (मत्सरः-मदाय) हर्षप्रद हर्ष आनन्द देने के लिए प्राप्त होता है॥२॥

    टिप्पणी

    [*101. “अद्रिरसि श्लोककृत्” [काठ॰ १.५]।] [*102. “लोमानि हृदये श्रितानि” [तै॰ ३.१०.८.८]।]

    विशेष

    <br>

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वासिष्ठ मन्यु का जीवन

    पदार्थ

    (अध) = अब ज्ञीनी व वशी बना हुआ यह १. (धारया) = वेदवाणी से तथा २. (मध्वा) = (पृचान:) = संपृक्त हुआ, ३. (अद्रिदुग्ध:) = [ अद्रय: आदरणीयाः – नि० ९.८, दुह प्रपूरणे] आदरणीय आचार्यों द्वारा ज्ञान से प्रपूरित किया हुआ, ४. (तिरः रोम) = तिरः = प्राप्त – [नि० ३.२०] प्राप्त शब्द [रु शब्दे] को, अर्थात् वेदज्ञान को (पवते) = लोकहित के लिए लोगों को प्राप्त कराता है, अर्थात् जैसे ज्ञानी आचार्यों ने इसमें ज्ञान का पूरण किया था, उसी प्रकार यह भी औरों के प्रति उस ज्ञान को प्राप्त कराता है। ५. इस लोकहित के कार्य से यह (इन्दुः) = सोमरक्षा द्वारा शक्तिशाली बनता हुआ उस सर्वशक्तिमान् प्रभु के (सख्यम्) = मित्रभाव का (जुषाण:) = सेवन करनेवाला होता है। लोकहित-कार्यों में लगे रहने से यह संयमी जीवनवाला बनता है और संयम के कारण शक्ति-सञ्चय करके 'इन्दु' होता है । यह इन्दु ही इन्द्र की मित्रता का अधिकारी होता है । ६. (देवः) = प्रभु की मित्रता से यह दिव्य गुणोंवाला होता है और देव बनकर (देवस्य) = यह उस महान् देव परमात्मा का ही हो जाता है। ७. यह (मत्सर:) = आनन्दपूर्वक कर्मों में सरण करनेवाला होता है और परिणामत: ८. (मदाय) = अलौकिक आनन्द - लाभ के लिए होता है, अर्थात् अनुपम सुख का अनुभव करता है ।

    भावार्थ

    हम वशी व ज्ञानी बनकर प्राप्त ज्ञान का प्रचार करने में आनन्द लें ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि ब्रह्मानन्दरसं वर्णयति।

    पदार्थः

    (अध) अपि च (अद्रिदुग्धः) अद्रिभ्यां मनोबुद्धिरूपाभ्यां पाषाणाभ्यां दुग्धः अभिषुतः स ब्रह्मानन्दसोमः (मध्वा धारया) मधुरया प्रवाहसन्तत्या (पृचानः) सम्पर्चयन्। [पृची सम्पर्चने, अदादिः।] (तिरः रोम) रोमाञ्चं कुर्वन् (पवते) प्रवहति। (देवः) प्रकाशप्रदः, (मत्सरः) मदजनकः (इन्दुः) क्लेदकः स ब्रह्मानन्दरसः (देवस्य) दिव्यगुणयुक्तस्य (इन्द्रस्य) जीवात्मनः (सख्यम्) सखित्वम् (जुषाणः) सेवमानः। [जुषी प्रीतिसेवनयोः, तुदादिः।] तस्य (मदाय) उत्साहाय जायते ॥२॥ अत्र धकार-रेफ-दकार-मकारादीनामसकृदावृत्तेर्वृत्त्यनुप्रासोऽलङ्कारः। ‘देवो-देव’ इत्यत्र छेकः ॥२॥

    भावार्थः

    ब्रह्मणः सकाशात् प्रस्रुता आनन्दधारा यदा जीवात्मानं स्नपयन्ति तदा नितान्तनिर्मलस्वान्तो जीवन्मुक्तः स महान्तमपि दुःखं न तृणाय मन्यते ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।९७।११।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Spiritual joy, achieved through stem austerity, united with the steady Abstraction of the mind, overcoming all intervening obstacles, manifests, itself. Winning the love of soul, the lustrous joy becomes the source of happiness for the soul.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    And by streams of honey shower, joining spiritual awareness, overflowing the heart cave, Soma, distilled from the adamantine practice of meditative self-control, flows pure, purifying, wholly fulfilling. The brilliant divine spirit of joy cherishing friendly communion with Indra, the Soul, is the ecstasy meant for the joyous fulfilment of the soul. (Rg. 9-97-11)

    इस भाष्य को एडिट करें

    गुजराती (1)

    पदार्थ

    (इन्दुः) આનંદરસપૂર્ણ પરમાત્મન્ ! (अध) અનન્તર (मध्वा धारया) મધુર ધ્યાન , ધારણાથી (पृचानः) સંપર્ક કરીને (अद्रिदुग्धः) સ્તુતિ કરતા ઉપાસકના હૃદયમાં નિષ્પાદિત (तिरः रोम पवते) હૃદયના સુક્ષ્મ તંતુઓને પાર કરીને હૃદય આકાશમાં પ્રાપ્ત થાય છે. (इन्द्रस्य देवस्य सख्यं जुषाणः देवः) દિવ્યગુણવાળા આત્માથી મિત્રભાવને પ્રિય કરીને - ચાહીને પરમાત્મદેવ (मत्सरः मदाय) હર્ષપ્રદ હર્ષ - આનંદ પ્રદાન કરવા માટે પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)

     

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    ब्रह्माद्वारे वाहणाऱ्या आनंदधारा जेव्हा जीवात्म्याला स्नान घालतात तेव्हा अत्यंत निर्मळ अंत:करणयुक्त जीवनमुक्त मोठ्यात मोठे दु:ख ही कस्पटाप्रमाणेही समजत नाही. ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top