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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1032
    ऋषिः - त्रय ऋषयः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
    2

    अ꣣भि꣡क्रन्द꣢न्क꣣ल꣡शं꣢ वा꣣꣬ज्य꣢꣯र्षति꣣ प꣡ति꣢र्दि꣣वः꣢ श꣣त꣡धा꣢रो विचक्ष꣣णः꣢ । ह꣡रि꣢र्मि꣣त्र꣢स्य꣣ स꣡द꣢नेषु सीदति मर्मृजा꣣नो꣡ऽवि꣢भिः꣣ सि꣡न्धु꣢भि꣣र्वृ꣡षा꣢ ॥१०३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣भिक्र꣡न्द꣢न् । अ꣣भि । क्र꣡न्द꣢꣯न् । क꣣ल꣡श꣢म् । वा꣡जी꣢ । अ꣣र्षति । प꣡तिः꣢꣯ । दि꣣वः꣢ । श꣡त꣢धा꣢रः । श꣣त꣢ । धा꣣रः । विचक्षणः꣣ । वि꣢ । चक्षणः꣢ । ह꣡रिः꣢꣯ । मि꣣त्र꣡स्य꣢ । मि꣢ । त्र꣡स्य꣢꣯ । स꣡द꣢꣯नेषु । सी꣣दति । मर्मृजानः꣢ । अ꣡वि꣢꣯भिः । सि꣡न्धु꣢꣯भिः । वृ꣡षा꣢꣯ ॥१०३२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभिक्रन्दन्कलशं वाज्यर्षति पतिर्दिवः शतधारो विचक्षणः । हरिर्मित्रस्य सदनेषु सीदति मर्मृजानोऽविभिः सिन्धुभिर्वृषा ॥१०३२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अभिक्रन्दन् । अभि । क्रन्दन् । कलशम् । वाजी । अर्षति । पतिः । दिवः । शतधारः । शत । धारः । विचक्षणः । वि । चक्षणः । हरिः । मित्रस्य । मि । त्रस्य । सदनेषु । सीदति । मर्मृजानः । अविभिः । सिन्धुभिः । वृषा ॥१०३२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1032
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में वर्षक बादल और परमात्मा का वर्णन है।

    पदार्थ

    प्रथम—बादल के पक्ष में। (वाजी) बलवान् सोम अर्थात् वर्षा करनेवाला बादल (अभिक्रन्दन्) गर्जता हुआ, वर्षाजल द्वारा (कलशम्) भूमण्डलरूप कलश में (अर्षति) जाता है। वह (दिवः पतिः) अन्तरिक्ष का अधिपति, (शतधारः) बहुत धारोंवाला और (विचक्षणः) कार्यकुशल है। (हरिः) जलों को जहाँ-तहाँ ले जानेवाला वह (मित्रस्य) सूर्य के (सदनेषु) स्थिति-स्थान पर्वत आदियों में (सीदति) जाता है। साथ ही (वृषा) वर्षा करनेवाला वह (अविभिः) वेगगामिनी (सिन्धुभिः) नदियों के द्वारा (मर्मृजानः) भूमि के भागों को अतिशय शुद्ध करता है ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। (वाजी) बलवान् सोम अर्थात् आनन्दवर्षक परमात्मा (अभिक्रन्दन्) उपदेश देता हुआ, (कलशम्) आत्मा रूप कलश में (अर्षति) जाता है। वह (दिवः पतिः) जीवात्मा का पालनकर्ता, (शतधारः) आनन्द की सैकड़ों धाराओं को बहानेवाला और (विचक्षणः) विशेष द्रष्टा है। (हरिः) पापों का हर्ता वह (मित्रस्य) अपने सखा जीवात्मा के (सदनेषु) अन्नमय-प्राणमय-मनोमय आदि कोशों में (सीदति) स्थित होता है। साथ ही, (वृषा) सुख बरसानेवाला वह (अविभिः) रक्षा करनेवाली (सिन्धुभिः) आनन्दरस की नदियों से (मर्मृजानः) उपासक के अन्तःकरण को शुद्ध करता है ॥२॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    बादल की जल-वर्षा से पृथिवी के समान परमात्मा की आनन्दवर्षा से योगसाधक की मनोभूमि सरस और निर्मल हो जाती है ॥२॥

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    पदार्थ

    (वाजी) अमृत अन्न भोगवाला (दिवः पतिः) अमृतधाममोक्ष का स्वामी (शतधारः) असंख्य आनन्दधारावाला (विचक्षणः) विशेष द्रष्टा—सर्वद्रष्टा सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा (अभिक्रन्दन् कलशम्-अर्षति) साक्षात् उपदेश देता मधुर संवाद करता हुआ पात्र*3 उपासक को प्राप्त होता है, पुनः (हरिः) वह दुःखापहर्ता सुखाहर्ता (मित्रस्य सदनेषु) मित्रभूत उपासक आत्मा के शक्तिस्थानों में—मन आदि में (सीदति) बैठ जाता है ऐसा वह (वृषा) कामनावर्षक (सिन्धुभिः-अविभिः) स्यन्दनशील—आगे बढ़ती हुई योगभूमियों के साथ निरन्तर गति करता हुआ प्राप्त होता है॥२॥

    टिप्पणी

    [*3. ‘कलशः’ इति सामान्यपात्रार्थवाची।]

    विशेष

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    विषय

    'अकृष्टमाष' का जीवन

    पदार्थ

    संसार की वस्तुओं के जुटाने में न उलझा हुआ 'अकृष्टमाष' अपना जीवन निम्न प्रकार से बिताता है—१. (अभिक्रन्दन् कलशम्) = [कला:शेरते अस्मिन्] उस षोडशकला निधान 'षोडशी' प्रभु का आह्वान करता हुआ [क्रदि=आह्वाने], २. (वाजी) = प्रभु के आह्वान से शक्तिशाली बना हुआ यह ३. (अर्षति) = उन्नति-पथ पर तीव्रता से बढ़ता है । ४. (दिवः पति) = यह ज्ञान का पति होता है। प्रभु के मार्ग पर चलने व प्रभु के साथ सतत सम्पर्क रखने से यह प्रकाश का स्वामी बनता है । ५. (शतधारः) = सैकड़ों प्रकार से धारण के कर्मों में लगा रहता है अथवा सैकड़ों का धारण करनेवाला होता है । ६. (विचक्षणः) = विशेषरूप से वस्तुओं के तत्त्व को देखनेवाला बनता है। वस्तुओं की आपातरमणीयता से उनमें उलझ नहीं जाता । ७. (हरिः) = यह सदा औरों के दुःखों का हरण करनेवाला होता है अथवा प्रत्याहार द्वारा इन्द्रियों का विषयों से अपहरण कर उन्हें मन में अवस्थित करता है । ८. इस प्रत्याहार के द्वारा यह (मित्रस्य सदनेषु सीदति) = उस सबके मित्र प्रभु के घरों में निवास करता है, अर्थात् प्रभु के साथ सदा सम्पर्कवाला होता है । ९. (अविभिः) = प्रभु-सम्पर्क से अपनी इन्द्रियों व मन को वासनाओं के आक्रमण से बचाता है और इस प्रकार [अव रक्षणे] रक्षणों के द्वारा (मर्मृजान:) = [मृज् शुद्धौ] यह अपना खूब शोधन करता है, ११. इस शोधन के परिणामस्वरूप (सिन्धुभिः) = शरीर में ही प्रवाहित होनेवाले [स्यन्दू प्रस्रवणे] सोमकणों के द्वारा यह (वृषा) = शक्तिशाली बनता है।

    भावार्थ

    प्रभु-स्मरण से हमारे जीवन का प्रारम्भ हो, जिससे शरीर में प्रवाहित होनेवाले सोमकणों द्वारा यह शक्तिशाली बने ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (वाजी) सर्वशक्तिमान्, ऐश्वर्यवान् (दिवः पतिः) द्यौलोक का या सूर्यादि दिव्य पिण्डों का भी परिपालक, उनको नाश होने से बचाने वाला स्वामी, (शतधारः) सैकड़ों धारण-शक्तियों से युक्त, (विचक्षणः) समस्त संसार को देखने वाला, (अभिक्रन्दन्) नाद करता हुआ, गर्जता हुआ (कलशेषु) कलशों में, जीवधारियों के देहों में आत्मा के समान (अर्षति) व्याप्त रहता है। और वही (हरिः) सबके कष्टों और तापों को हरने वाला, सबको गति देने हारा (मित्रस्य) अपने स्नेहपात्र आत्मा के (सदनेषु) निवासगृह, देहों में भी (सीदति) व्यापक होकर विराजता है। वही (वृषा) सब सुखों का वर्षक (सिन्धुभिः) विषयों के प्रति द्रुत गति से जाने वाली (अविभिः) तन्मात्राओं या इन्द्रियों या प्राण शक्तियों द्वारा, धारणाओं द्वारा (मर्मृजानः) बार बार शोधा, या बार बार खोजा, या साक्षात् परिष्कृत किया जाता है।

    टिप्पणी

    ‘अर्षत्यग्रे’, ‘गच्छति’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ (१) आकृष्टामाषाः (२, ३) सिकतानिवावरी च। २, ११ कश्यपः। ३ मेधातिथिः। ४ हिरण्यस्तूपः। ५ अवत्सारः। ६ जमदग्निः। ७ कुत्सआंगिरसः। ८ वसिष्ठः। ९ त्रिशोकः काण्वः। १० श्यावाश्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ अमहीयुः। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १६ मान्धाता यौवनाश्वः। १५ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १७ असितः काश्यपो देवलो वा। १८ ऋणचयः शाक्तयः। १९ पर्वतनारदौ। २० मनुः सांवरणः। २१ कुत्सः। २२ बन्धुः सुबन्धुः श्रुतवन्धुविंप्रबन्धुश्च गौपायना लौपायना वा। २३ भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः। २४ ऋषि रज्ञातः, प्रतीकत्रयं वा॥ देवता—१—६, ११–१३, १७–२१ पवमानः सोमः। ७, २२ अग्निः। १० इन्द्राग्नी। ९, १४, १६, इन्द्रः। १५ सोमः। ८ आदित्यः। २३ विश्वेदेवाः॥ छन्दः—१, ८ जगती। २-६, ८-११, १३, १४,१७ गायत्री। १२, १५, बृहती। १६ महापङ्क्तिः। १८ गायत्री सतोबृहती च। १९ उष्णिक्। २० अनुष्टुप्, २१, २३ त्रिष्टुप्। २२ भुरिग्बृहती। स्वरः—१, ७ निषादः। २-६, ८-११, १३, १४, १७ षड्जः। १-१५, २२ मध्यमः १६ पञ्चमः। १८ षड्जः मध्यमश्च। १९ ऋषभः। २० गान्धारः। २१, २३ धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ वर्षकं पर्जन्यं परमात्मानं च वर्णयति।

    पदार्थः

    प्रथमः—पर्जन्यपरः। (वाजी) बलवान् सोमः वर्षकः पर्जन्यः (अभिक्रन्दन्) स्तनयन्, वृष्टिजलेन (कलशम्) भूमण्डलरूपं घटम् (अर्षति) गच्छति। सः (दिवः पतिः) अन्तरिक्षस्य अधिपतिः, (शतधारः) बहुधारः (विचक्षणः) कार्यकुशलश्च वर्तते। (हरिः) उदकानां यत्र तत्र हर्ता सः (मित्रस्य) सूर्यस्य (सदनेषु) स्थितिस्थानेषु पर्वतादिषु (सीदति) गच्छति। किञ्च (वृषा) वर्षकः सः (अविभिः) गन्त्रीभिः, वेगगामिनीभिः। [अवतिर्गत्यर्थः।] (सिन्धुभिः) नदीभिः (मर्मृजानः) अतिशयेन भूभागान् शोधयन् भवति ॥ द्वितीयः—परमात्मपरः (वाजी) बलवान् (सोमः) आनन्दवर्षकः परमात्मा (अभिक्रन्दन्) उपदिशन् (कलशम्) आत्मरूपं घटम् (अर्षति) गच्छति। सः (दिवः पतिः) जीवात्मनः पालयिता, (शतधारः) आनन्दस्य बह्वीनां धाराणां प्रवाहकः, (विचक्षणः) विशेषेण द्रष्टा च वर्तते। (हरिः) पापहर्ता सः (मित्रस्य) सख्युः जीवात्मनः (सदनेषु) अन्नमयप्राणमयमनोमयादिकोशेषु (सीदति) आस्ते। किञ्च (वृषा) सुखवर्षकः सः (अविभिः) रक्षिकाभिः (सिन्धुभिः) आनन्दरसतरङ्गिणीभिः (मर्मृजानः) उपासकस्यान्तःकरणं शोधयन् भवति ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    पर्जन्यस्य जलवृष्ट्या पृथिवीव परमात्मन आनन्दरसवृष्ट्या योगसाधकस्य मनोभूमिः सरसा निर्मला च जायते ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।८६।११, ऋषिः सिकता निवावरी।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The Omnipotent God, the Lord of Heaven, the Master of myriad powers, Far-Seeing, resides with full force in the hearts of living beings. The Remover of all afflictions, lords supreme in the dwelling places of His companion, the soul. God, the Bestower of all joys, is sought for again and again, by the soul through Pranayama, the breath force ever moving like an ocean.

    Translator Comment

    Dwelling places' means hearts.

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    Meaning

    Roaring, the omnipotent pervades in the universe and flows with a thousand streams, all watching sustainer of the light of existence. Beatific, glorious, dispeller of darkness and sufferance, it abides in the homes of love and friendship, cleansing, purifying and consecrating with its protective favours and showers of grace, infinitely potent and generous since it is. (Rg. 9-86-11)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वाजी) અમૃત અન્નભોગવાળા (दिवः पतिः) અમૃતધામ મોક્ષના સ્વામી (शतधारः) અસંખ્ય આનંદધારાવાળા (विचक्षणः) વિશેષ દ્રષ્ટા-સર્વ દ્રષ્ટા સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (अभिक्रन्दन् कलशम् अर्षति) સાક્ષાત્ ઉપદેશ દેતાં મધુર સંવાદ કરીને પાત્ર ઉપાસકને પ્રાપ્ત થાય છે, પુનઃ (हरिः) તે દુઃખહર્તા સુખદાતા (मित्रस्य सदनेषु) મિત્રભૂત ઉપાસક આદિ આત્માના શક્તિ સ્થાનોમાં-મન આદિમાં (सीदति) બેસી જાય છે એવા તે (वृषा) કામનાવર્ષક (सिन्धुभिः अविभिः) સ્યંદનશીલ-આગળ વધતી યોગ ભૂમિઓની સાથે નિરંતર ગતિ કરીને પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मेघातून जलवर्षा झाल्यावर पृथ्वी तृप्त होते तशी परमेश्वराची आनंदवर्षा झाल्यामुळे योगसाधकाची मनोभूमी सरस व निर्मळ होते. ॥२॥

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