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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1033
    ऋषिः - त्रय ऋषयः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
    2

    अ꣢ग्रे꣣ सि꣡न्धू꣢नां꣣ प꣡व꣢मानो अर्ष꣣त्य꣡ग्रे꣢ वा꣣चो꣡ अ꣢ग्रि꣣यो꣡ गोषु꣢꣯ गच्छसि । अ꣢ग्रे꣣ वा꣡ज꣢स्य भजसे म꣣ह꣡द्धन꣢꣯ꣳ स्वायु꣣धः꣢ सो꣣तृ꣡भिः꣢ सोम सूयसे ॥१०३३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡ग्रे꣢꣯ । सि꣡न्धू꣢꣯नाम् । प꣡व꣢꣯मानः । अ꣡र्षसि । अ꣡ग्रे꣢꣯ । वा꣣चः꣢ । अ꣡ग्रियः꣢ । गो꣡षु꣢꣯ । ग꣣च्छसि । अ꣡ग्रे꣢꣯ । वा꣡ज꣢꣯स्य । भ꣣जसे । मह꣢त् । ध꣡न꣢꣯म् । स्वा꣣यु꣢धः । सु꣡ । आयुधः꣢ । सो꣣तृ꣡भिः꣢ । सो꣣म । सूयसे ॥१०३३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्रे सिन्धूनां पवमानो अर्षत्यग्रे वाचो अग्रियो गोषु गच्छसि । अग्रे वाजस्य भजसे महद्धनꣳ स्वायुधः सोतृभिः सोम सूयसे ॥१०३३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्रे । सिन्धूनाम् । पवमानः । अर्षसि । अग्रे । वाचः । अग्रियः । गोषु । गच्छसि । अग्रे । वाजस्य । भजसे । महत् । धनम् । स्वायुधः । सु । आयुधः । सोतृभिः । सोम । सूयसे ॥१०३३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1033
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमेश्वर का कर्तृत्व वर्णित है।

    पदार्थ

    हे सोम अर्थात् जगत्स्रष्टा परमात्मन् ! (पवमानः) पवित्रकर्ता आप (सिन्धूनाम्) नदियों के (अग्रे) आगे-आगे (अर्षसि) चलते हो, अर्थात् उन्हें आप ही प्रवाहित करते हो। (वाचः) मनुष्यों से उच्चारण की जाती हुई वाणी के (अग्रे) आगे (गच्छसि) चलते हो, अर्थात् आपकी दी हुई वाक्शक्ति से ही मनुष्य व्यक्त वाणी का उच्चारण करते हैं। (अग्रियः) आगे स्थित आप (गोषु) सूर्य-किरणों में (गच्छसि) पहुँचते हो, अर्थात् सूर्य-किरणों को भी आप ही प्रकाशित एवं प्रेरित करते हो और (वाजस्य) अन्न तथा संग्राम के भी (अग्रे) आगे, आप ही जाते हो, अर्थात् अन्न आदि की उत्पत्ति और संग्राम में विजय भी आप ही कराते हो। आप (महत् धनम्) महान् ऐश्वर्य को (भजसे) प्राप्त किये हुए हो। हे (सोम) परमात्मन् ! (स्वायुधाः) उत्तम शस्त्रास्त्र जिसके पास हैं, ऐसे सेनापति के समान रक्षा करने में समर्थ आप (सोतृभिः) ध्यानयज्ञ करनेवाले उपासकों के द्वारा (सूयसे) अभिषुत किये जाते हो, अर्थात् वे आपसे अपने लिए आनन्द-रस को क्षरित करते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    बाहरी जगत् में और शरीर के अन्दर होनेवाली सारी व्यवस्था को सर्वान्तर्यामी परमेश्वर ही कराता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू (पवमानः) आनन्दधारा में प्राप्त होने वाला (सिन्धूनाम्-अग्रे-अर्षसि) मेरे शरीर में स्यन्दमान होती हुई या शरीर को बाँधने सम्भालने वाली प्राणनाडियों के*4 पूर्व आत्मा में प्राप्त है (वाचः-अग्रे-अग्रियः-गोषु गच्छसि) तू वाणी के प्रथम ही अग्रिय—अगुवा स्तोताओं*5 के निमित्त प्राप्त होता है जो मैं तुझे कहना चाहता हूँ तू प्रथम ही समझ लेता है (वाजस्य अग्रे महद् धनं भजसे) अमृत अन्न भोग के प्रथम ही मुझे उस उत्कृष्ट धन का भागी बनाता है (स्वायुधः सोतृभिः सूयसे) अच्छी आयु—मोक्ष के जीवन को धारण करानेवाला तू उपासना द्वारा निष्पादन करने वाले उपासकों के द्वारा साक्षात् होता है॥३॥

    टिप्पणी

    [*4. “प्राणो वै सिन्धुः” [श॰ ८.५.२.४] “तद् यदेतैरिदं सर्वं सितं तस्मात् सिन्धवः” [जै॰ उ॰ १.९.२.९]।] [*5. “गोः स्तोतृनाम” [निघं ३.१६]।]

    विशेष

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    विषय

    सर्वप्रथम स्थान में

    पदार्थ

    १. (सिन्धूनाम्) = शरीर में प्रवाहित होनेवाले सोमकणों से अपने को (पवमानः) =पवित्र करनेवाले 'अकृष्टमाष'! तू (अग्रे असि) = आगे बढ़ता है, अर्थात् जीवन-यात्रा में तू उन्नति-ही-उन्नति करता चलता है। २. (वाचः अग्रे) = इस वेदवाणी के दृष्टिकोण से तू अग्रभाग में स्थित होता है, अर्थात् उत्कृष्ट वेदज्ञानी बनता है। ३. (गोषु) - सब ज्ञानेन्द्रियों में अथवा इन्द्रियमात्र में (अग्रियः गच्छसि) = तू आगे होनेवाला होता है । तेरी प्रत्येक इन्द्रिय की शक्ति का पूर्ण विकास होता है । ४. (वाजस्य अग्रे) = शक्ति के भी तू अग्रभाग में होता है, अर्थात् शक्तिशालियों का भी मुखिया बनता है ।५. (महत् धनं भजसे) = महनीय धन का तू सेवन करनेवाला होता है— उत्तममार्ग से धन कमाकर तू धनियों में भी श्रेष्ठ होता है ।

    सोम के महत्त्व को अनुभव करता हुआ यह ‘अकृष्टमाष' सोम को सम्बोधित करते हुए कहता है कि हे (सोम) = सोम! तू (स्वायुधः) = उत्तम आयुध है, तेरे द्वारा ही सब अध्यात्मसंग्रामों में मुझे विजय प्राप्त होती है। हे सोम! तू (सोतृभिः) = [सु गतौ] गतिशील व्यक्तियों के द्वारा सूयसे जन्म दिया जाता है, गतिशील व्यक्ति ही सोम की रक्षा कर पाते हैं। 

    भावार्थ

    हम सोम के महत्त्व को समझें। उसकी पवित्रता के द्वारा जीवन में हमारा स्थान सर्वोच्च हो ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे आत्मन् ! तू (सिन्धूनां) उन सूक्ष्म इन्द्रिय शक्तियों प्राणों के (अग्ने) आगे ही (पवमानः) ज्योतिःस्वरूप होकर प्रकट होने वाला (वाचः अग्रे) वाणी के भी आगे और (गोषु) प्राणेन्द्रियों के भी (अग्रियः) नेता के समान (अग्रे) आगे होकर (गच्छसि) जाता है अर्थात् वह उनसे भी परे रहकर उनका ग्राह्य विषय नहीं होता। (वाजस्य) ज्ञान और बल का स्वामी प्राण के भी (अग्रे) आगे (महद् धनं) बड़े भारी आनन्दरूप कोष को (भजसे) धारण करता है और (सु आयुधः) उत्तम सत्संग साधनों से युक्त या उत्तम शक्तियों से सम्पन्न होकर हे (सोम) सबके प्रेरक, आत्मन् ! (सोतृभिः) योगियों द्वारा तू (सूयसे) साक्षात् किया जाता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ (१) आकृष्टामाषाः (२, ३) सिकतानिवावरी च। २, ११ कश्यपः। ३ मेधातिथिः। ४ हिरण्यस्तूपः। ५ अवत्सारः। ६ जमदग्निः। ७ कुत्सआंगिरसः। ८ वसिष्ठः। ९ त्रिशोकः काण्वः। १० श्यावाश्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ अमहीयुः। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १६ मान्धाता यौवनाश्वः। १५ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १७ असितः काश्यपो देवलो वा। १८ ऋणचयः शाक्तयः। १९ पर्वतनारदौ। २० मनुः सांवरणः। २१ कुत्सः। २२ बन्धुः सुबन्धुः श्रुतवन्धुविंप्रबन्धुश्च गौपायना लौपायना वा। २३ भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः। २४ ऋषि रज्ञातः, प्रतीकत्रयं वा॥ देवता—१—६, ११–१३, १७–२१ पवमानः सोमः। ७, २२ अग्निः। १० इन्द्राग्नी। ९, १४, १६, इन्द्रः। १५ सोमः। ८ आदित्यः। २३ विश्वेदेवाः॥ छन्दः—१, ८ जगती। २-६, ८-११, १३, १४,१७ गायत्री। १२, १५, बृहती। १६ महापङ्क्तिः। १८ गायत्री सतोबृहती च। १९ उष्णिक्। २० अनुष्टुप्, २१, २३ त्रिष्टुप्। २२ भुरिग्बृहती। स्वरः—१, ७ निषादः। २-६, ८-११, १३, १४, १७ षड्जः। १-१५, २२ मध्यमः १६ पञ्चमः। १८ षड्जः मध्यमश्च। १९ ऋषभः। २० गान्धारः। २१, २३ धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरस्य कर्तृत्वमाह।

    पदार्थः

    हे सोम जगत्स्रष्टः परमात्मन् ! (पवमानः) पवित्रकर्ता त्वम् (सिन्धूनाम्) नदीनाम् (अग्रे) अग्रतः (अर्षसि) गच्छसि, त्वमेव ताः प्रवाहयसीत्यर्थः। (वाचः) मनुष्यैः प्रोच्यमानायाः वाण्याः (अग्रे) अग्रतः (गच्छसि) यासि, त्वत्प्रदत्तया शक्त्यैव जनाः व्यक्तां वाचमुच्चारयन्तीत्यर्थः। (अग्रियः) अग्रे भवः सन्। [‘अग्राद्यत्’ अ० ४।४।११६ इत्यनुवृत्तौ ‘घच्छौ च’। अ० ४।४।११७ इत्यनेन अग्रशब्दाद् भावार्थे घप्रत्ययः।] (गोषु) सूर्यकिरणेषु (गच्छसि) यासि, सूर्यकिरणान् त्वमेव प्रकाशयसि प्रेरयसि चेत्यर्थः। अपि च (वाजस्य) अन्नस्य संग्रामस्य वा (अग्रे) अग्रतः गच्छसि, अन्नाद्युत्पत्तिं संग्रामे विजयं चापि त्वमेव कारयसीत्यर्थः। त्वम् (महद्) धनम् विपुलम् ऐश्वर्यम् (भजसे) प्राप्नोषि। हे (सोम) परमात्मन् ! (स्वायुधः) सुशस्त्रास्त्रः सेनापतिरिव रक्षासमर्थः त्वम् (सोतृभिः) ध्यानयज्ञं कुर्वद्भिः उपासकैः (सूयसे) अभिषूय आनन्दं क्षार्यसे ॥३॥

    भावार्थः

    बाह्ये जगति शरीराभ्यन्तरे च संजायमानां सर्वां व्यवस्थां सर्वान्तर्यामी परमेश्वर एव कारयति ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।८६।१२ ऋषिः सिकता निवावरी। ‘अर्ष॒त्यग्रे॑’ ‘गच्छति’ ‘अग्रे॒ वाज॑स्य भजते महाध॒नं स्वा॑यु॒धः सो॒तृभिः॑ पूयते॒ वृषा॑’ इति पाठः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O pure soul, thou goest before the organs, before speech, and before breaths. As master of knowledge and power, thou acquirest the vast treasure of delight, even before. Prana. Equipped with manifold powers, thou art realised by the Yogis !

    Translator Comment

    The true nature of the soul cannot be perceived by our physical organs, words and Pranas. Soul is higher than these and beyond their grasp. Yogis alone can realise it.

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    Meaning

    Soma, prime spirit of the world in existence, pure and purifying, moves as the first cause of flowing waters, first cause of the flow of thought and speech, and it moves as the prime cause of the motions of stars and planets. First, before the start of evolution, it takes on the great war like dynamics of the creative evolutionary flow of existence. The same omnipotent generous power, mighty of arms, is adorned and exalted in yajna by celebrants on the vedi designed by the lord and structured by his Shakti, Prakrti. (Rg. 9-86-12)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सोम) qqહે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (पवमानः) આનંદધારામાં પ્રાપ્ત થનાર (सिन्धूनाम् अग्रे अर्षसि) મારા શરીરમાં સ્યંદમાન થઈને અથવા શરીરને બાંધીને સંભાળનારી પ્રાણ નાડીઓના પૂર્વ આત્મામાં પ્રાપ્ત છે. (वाचः अग्रे अग्रियः गोषु गच्छसि) તું વાણીની પહેલાં જ અગ્રીય-પ્રથમથી જ સ્તોતાને માટે પ્રાપ્ત થાય છે. જે હું તને કહેવા ઇચ્છું છું તે તું પ્રથમથી જ સમજી જાય છે. (वाजस्य अग्रे महद् धनं भजसे) અમૃત અન્ન ભોગનો પ્રથમ જ મને ઉત્કૃષ્ટ ધનનો ભાગી બનાવે છે. (स्वायुधः सोतृभिः सूयसे) શ્રેષ્ઠ આયુ-મોક્ષના જીવનને ધારણ કરાવનાર તું ઉપાસના દ્વારા નિષ્પાદન કરનારા ઉપાસકો દ્વારા સાક્ષાત્ થાય છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    बाह्य जगत् व शरीरातील संपूर्ण व्यवस्था सर्वान्तर्यामी परमेश्वरच करवितो. ॥३॥

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