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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1105
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
2
उ꣣त꣡ न꣢ ए꣣ना꣡ प꣢व꣣या꣡ प꣢व꣣स्वा꣡धि꣢ श्रु꣣ते꣢ श्र꣣वा꣡य्य꣢स्य ती꣣र्थे꣢ । ष꣣ष्टि꣢ꣳ स꣣ह꣡स्रा꣢ नैगु꣣तो꣡ वसू꣢꣯नि वृ꣣क्षं꣢꣫ न प꣣क्वं꣡ धू꣢नव꣣द्र꣡णा꣢य ॥११०५॥
स्वर सहित पद पाठउ꣣त꣢ । नः꣣ । एना꣢ । प꣣वया꣢ । प꣢वस्व । अ꣡धि꣢꣯ । श्रु꣣ते꣢ । श्र꣣वा꣡य्य꣢स्य । ती꣣र्थे꣢ । ष꣣ष्टि꣢म् । स꣣ह꣡स्रा꣢ । नै꣣गुतः꣢ । नै꣣ । गुतः꣢ । व꣡सू꣢꣯नि । वृ꣣क्ष꣢म् । न । प꣣क्व꣡म् । धू꣣नवत् । र꣡णा꣢꣯य ॥११०५॥
स्वर रहित मन्त्र
उत न एना पवया पवस्वाधि श्रुते श्रवाय्यस्य तीर्थे । षष्टिꣳ सहस्रा नैगुतो वसूनि वृक्षं न पक्वं धूनवद्रणाय ॥११०५॥
स्वर रहित पद पाठ
उत । नः । एना । पवया । पवस्व । अधि । श्रुते । श्रवाय्यस्य । तीर्थे । षष्टिम् । सहस्रा । नैगुतः । नै । गुतः । वसूनि । वृक्षम् । न । पक्वम् । धूनवत् । रणाय ॥११०५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1105
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 6; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 6; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में फिर गुरुजन और राजपुरुषों का वर्णन है।
पदार्थ
(पूतासः) पवित्र, (विपश्चितः) विद्वान्, (दध्याशिरः) ज्ञान के धारणकर्त्ता और परिपक्व, (सूरासः न) सूर्यों के समान (दर्शतासः) दर्शनीय तथा दृष्टि देनेवाले, (जिगत्नवः) गतिमान् एवं कर्मण्य और (घृते) विवेक के प्रकाश में (ध्रुवाः) स्थिर रहनेवाले जो हों, (ते) वे ही (सोमासः) विद्या, धर्म, आदि की प्रेरणा करनेवाले गुरु और राजपुरुष होवें ॥२॥
भावार्थ
जो पवित्र आचरणवाले, विविध विद्याओं को पढ़े हुए, दूसरों की सहायता करनेवाले, परिपक्वमति, सूर्य के समान प्रकाशक, कर्मशूर स्थिर प्रकाशवाले, विघ्नों से बार-बार प्रहार किये जाते हुए भी ग्रहण किये कार्य को न छोड़नेवाले गुरु और राजपुरुष होते हैं, वे ही सफल होते हैं ॥२॥
पदार्थ
(श्रवाय्यस्य श्रुते-अधि तीर्थे) हे सोम—धारारूप में प्राप्त होने वाले परमात्मन्! तुझ श्रवणीय के प्रसिद्ध तराने के साधनस्थान में—अध्यात्मस्थल हृदय में (उत) अपि—अवश्य (नः) हमारे लिए (एना पवया) इस पावनधारा से (पवस्व) प्राप्त हो (नैगुतः) निगुत—अपने अन्दर आमन्त्रण शब्द करने वाले का इष्टदेव*101 तू सोम—परमात्मा (षष्टिं सहस्रा वसूनि) साठ हजार असंख्य प्रकार वाले*102 बसानेवाले अध्यात्म सुखैश्वर्यों को (रणाय) रमण के लिए प्रदान कर (वृक्षं न पक्वं धूनवत्) वृक्ष जैसे पके फल को नीचे झाड़ देता गिरा देता है॥२॥
टिप्पणी
[*101. नि—निहितो भूत्वा शब्दयति-आमन्त्रयति यस्त्वां स ‘निगुतः’ “गुङ् शब्दे” [भ्वादि॰] तस्य इष्टदेवो नैगुतः।] [*102. जैसे लोक में कहा जाता है ‘सौ वर्ष तक जीवे एक एक वर्ष के दिन हों साठ हजार’।]
विशेष
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विषय
तीर्थ में स्नान
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्रों का ऋषि कुत्स है, जो [कुथ हिंसायाम् ] सब अशुभों की हिंसा करके शुभों को प्राप्त करता है। दुरितों से दूर और शुभों के समीप होने के कारण ही यह 'आङ्गिरस' भी है—अङ्गप्रत्यङ्ग में शक्तिवाला है । यह प्रभु से प्रार्थना करता है कि आप १. (न:) = हमें (एना पवया) = इस पावन क्रिया से (पवस्व) = पवित्र कीजिए । २. (उत) = और हम सदा (अधिश्रुते) = शास्त्रश्रवण में स्थित हों। ३. (श्रवाय्यस्य) = वेदवाणियों से श्रोतव्य प्रभु के (तीर्थे) = तारक स्थान में हम सदा निवास करनेवाले हों, अर्थात् प्रभुनिष्ठ होने के लिए सदा प्रभु का ध्यान करें। ४. (नैगुतः) = भक्तों के प्रिय प्रभो! [नु शब्दे, नितरां शब्दायन्ते परमेश्वरम् निगुतः=भक्ता, तेषामयम्], आप (रणाय) = हमारे आध्यात्मिक संग्राम के लिए (षष्टिं सहस्रा) = अनन्त (वसूनि) = ज्ञानों को (धूनवत्) = प्राप्त कराते हैं, (न) = उसी प्रकार जैसेकि कोई भी व्यक्ति फलों की कामना से (पक्वं वृक्षम्) = पके फलोंवाले वृक्ष को (धूनवत्) = कम्पित करता है ।
भावार्थ
प्रभु तीर्थ हैं, भक्त लोग उस तीर्थ में स्नान करते हैं और अपने जीवनों को पवित्र कर लेते हैं।
टिप्पणी
नोट – ' षष्टिं सहस्रा' शब्द सामान्यतः 'आनन्त्य' के लिए पारिभाषिक शब्द है ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि गुरवो राजपुरुषाश्च वर्ण्यन्ते।
पदार्थः
(पूतासः) पवित्राः, (विपश्चितः) विद्वांसः, (दध्याशिरः) ज्ञानधारकाः परिपक्वाश्च। [दधति अन्यान् इति दधयः। ‘आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। अ० ३।२।१७१’ इत्यनेन डुधाञ् धातोः किन् प्रत्ययः। आश्रीणन्ति स्वात्मानं ये ते आशिरः। आङ्पूर्वः श्रीञ् पाके, क्विपि धातोः शिर आदेशश्छान्दसः।] (सूरासः न) सूर्याः इव (दर्शतासः२) दर्शनीयाः दृष्टिप्रदाश्च, (जिगत्नवः) गतिमन्तः, कर्मण्याः, (घृते) विवेकप्रकाशे (ध्रुवाः) स्थिराः ये स्युः (ते) त एव (सोमासः) विद्याधर्मादिप्रेरकाः गुरवः राजपुरुषाश्च भवेयुः ॥२॥
भावार्थः
ये पवित्राचरणा अधीतविविधविद्याः परेषां सहायकाः परिपक्वमतयः सूर्यवत् प्रकाशकाः कर्मशूराः स्थिरप्रकाशा विघ्नैः पुनः पुनः प्रतिहन्यमाना अपि गृहीतं कार्यमपरित्यजन्तो गुरवो राजपुरुषाश्च भवन्ति त एव सफला जायन्ते ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१०१।१२, ‘पूतासो’, ‘सूरासो’ इत्यत्र ‘पू॒ता’, ‘सूर्या॑सो॒’। २. दर्शतासः सर्वैर्दर्शनीयाः—इति सा०। सर्वस्य द्रष्टारः—इति वि०।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, preach unto us more of this purifying . knowledge, imparted by Thee, the Lord of the universe, in the Veda, our holy refuge. Just as an aspirant after fruit shakes a tree foil of ripe fruits, and gets down many of them, so dost Thou, the Preserver of the innermost knowledge, grant for the pleasure of the soul, thousands of the gems of knowledge !
Translator Comment
$ The Veda has been spoken of is a holy refuge. Just as spiritually advanced persons morality and truth to the pilgrims who visit them, so do the Vedas teach us religion when we approach that in a spirit of reverence considering them as holy scriptures. The words षष्टिं सहस्राः may mean sixty thousand or 1060. I have translated them as thousands.
Meaning
And by this sacred stream of divinity, cleanse and sanctify us in this holy lake of the divine Word worth hearing over and above what has been heard. Master of infinite power and wealth, destroyer of hoards of negativities, give us boundless forms of wealth for our battle of life, shaking, as if, like a tree of ripe fruit this mighty tree of the world. (Rg. 9-97-53)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ: (श्रवाय्यस्य श्रुते अधि तीर्थे) હે સોમ-ધારારૂપમાં પ્રાપ્ત થનાર પરમાત્મન્ ! તું શ્રવણીયના પ્રસિદ્ધ તારનાર સાધનસ્થાનમાં-અધ્યાત્મસ્થળ હૃદયમાં (उत) અને અવશ્ય (नः) અમારે માટે (एना पवया) એ પાવનધારાથી (पवस्व) પ્રાપ્ત થા. (नैगुत) પોતાની અંદર આમંત્રણ શબ્દ કરનારના ઇષ્ટદેવ તું સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (षष्टिं सहस्रा वसूनि) સાઠ હજાર અસંખ્યવાળા વસાવનાર અધ્યાત્મસુખ ઐશ્વર્યોને (रणाय) રમણને માટે પ્રદાન કર. (वृक्षं न पक्वं धूनवत्) જેમ વૃક્ષ પાકા ફળને ખેરવીને નીચે પાડી દે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
१) जे पवित्र आचरणयुक्त विविध प्रकारचे विद्याध्ययन केलेले, इतरांना साह्य करणारे, परिपक्वमती, सूर्याप्रमाणे प्रकाशक, कर्मशूर, स्थिर, प्रकाशवान, वारंवार विघ्नांनी प्रहार केला तरी कार्याचा त्याग न करणारे असे गुरू व राजपुरुष असतात तेच सफल होतात. ॥२॥
२) विद्यातीर्थ गुरुकुलमध्ये निवास करत आचार्य जसा शिष्यांना विशाल ज्ञानराशी प्रदान करतो, तसेच असंख्य सद्गुणांचे ऐश्वर्यही प्रेमाने देतो. ॥२॥
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