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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1130
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    प्र꣢ यु꣣जा꣢ वा꣣चो꣡ अ꣢ग्रि꣣यो꣡ वृषो꣢꣯ अचिक्रद꣣द्व꣡ने꣢ । स꣢द्मा꣣भि꣢ स꣣त्यो꣡ अ꣢ध्व꣣रः꣢ ॥११३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । यु꣣जा꣢ । वा꣣चः꣢ । अ꣣ग्रियः꣢ । वृ꣡षा꣢꣯ । उ꣣ । अचिक्रदत् । व꣡ने꣢꣯ । स꣡द्म꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । स꣣त्यः꣢ । अ꣣ध्व꣢रः ॥११३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र युजा वाचो अग्रियो वृषो अचिक्रदद्वने । सद्माभि सत्यो अध्वरः ॥११३०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । युजा । वाचः । अग्रियः । वृषा । उ । अचिक्रदत् । वने । सद्म । अभि । सत्यः । अध्वरः ॥११३०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1130
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह बताया गया है कि कैसा गुरु क्या करता है।

    पदार्थ

    (अग्रियः) श्रेष्ठ, (वृषा) ज्ञान की वर्षा करनेवाला, (सत्यः) सत्यनिष्ठ, (अध्वरः) यज्ञमय जीवनवाला विद्वान् गुरु (वने) जंगल में (सद्म अभि) गुरुकुलरूप घर में (वाचः युजा) वाणी के योग से (उ) निश्चय ही (प्र अचिक्रदत्) शिष्यों को कर्त्तव्यों का उपदेश करता है ॥३॥

    भावार्थ

    पर्वतों के एकान्त में नदियों के सङ्गम पर गुरुकुलों का संचालन करते हुए सत्यनिष्ठ गुरु शिष्यों को पढ़ाकर विद्वान्, कर्तव्यपरायण और सदाचारी करें ॥३॥

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    पदार्थ

    (वृषा-उ) कामवर्षक (सत्यः-अध्वरः) सत्यस्वरूप और यज्ञरूप*37 सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा (अग्रियः-युजाः-वाचः) अग्र—आरम्भसृष्टि की युक्त—आनुपूर्वीरूप मन्त्रवाणियों को (वने सद्म) ‘सद्मनि’ सम्भजनस्थान ऋषियों के अन्तःकरण में (अभि प्र-अचिक्रदत्) साक्षात् हो प्रवचन करता है॥३॥

    टिप्पणी

    [*37. “तस्माद् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे” [ऋ॰ १०.९०.९]।]

    विशेष

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    विषय

    घर की ओर

    पदार्थ

    १. (अग्रियः) = सत्त्वगुण में अवस्थित, २. (वृषः) = सदा धर्म के कर्मों में लगा हुआ, ३. (अध्वरः) = हिंसारहित यज्ञिय मनोवृत्तिवाला पुरुष, (सत्यः) = सत्याचरण करनेवाला ४. (युजा) = निरुद्ध चित्तवृत्ति को प्रभु में लगाने के द्वारा, ५, (वने) = उस उपासनीय प्रभु के स्तवन में [सम्भजन में] (वाच:) = स्तुतिवचनों को (प्र अचिक्रदत्) = खूब ही उच्चारण करता है और इसी का परिणाम होता है कि ६. (सद्म अभि) = वह अपने घर की ओर बढ़ता चलता है । हमारा वास्तविक घर तो ब्रह्मलोक ही है। हम वहाँ से भटककर इस मर्त्यलोक में विचर रहे

    हैं । उस घर की ओर जाने के लिए हमें कुछ पग उठाने होंगे। प्रस्तुत मन्त्र में उन्हीं पगों का वर्णन है १. तमोगुण में रहते हुए तो नाममात्र भी आगे बढ़ना सम्भव नहीं, वहाँ तो प्रमाद, आलस्य व निद्रा का प्राबल्य है । रजोगुण से हम इस संसार में और अधिक आसक्त हो जाते हैं । सत्त्वगुण ही हमें अपने घर की ओर ले चलता है । २. सात्त्विक पुरुष अधर्म को छोड़कर धर्म को अपनाता है अर्धम बोझल है, वह हमें ऊपर न उठने देगा। ३. धर्म का सर्वोत्तम रूप सत्य ही है, इसी से तो हम सत्य-ब्रह्म को अपना पाएँगे । ४. इस ब्रह्म की प्राप्ति के लिए सत्य को अपनाता हुआ यह व्यक्ति भूतहित में प्रवृत्त होता है, ५. इस वृत्तिवाला पुरुष मनोनिरोध के द्वारा, ६. प्रभु की ओर चलता है |

    भावार्थ

    हम सत्त्वगुण में अवस्थित होकर प्रभु की ओर चलें ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कीदृशो गुरुः किं करोतीत्याह।

    पदार्थः

    (अग्रियः) अग्रे भवः श्रेष्ठः, (वृषा२) ज्ञानवर्षकः, (सत्यः) सत्यनिष्ठ, (अध्वरः) यज्ञमयजीवनः, सोमः विद्वान् गुरुः (वने) अरण्ये (सद्म अभि) गुरुकुलगृहे (वाचः युजा) वाण्याः योगेन (उ) निश्चयेन (प्र अचिक्रदत्) प्रक्रन्दति, शिष्यान् कर्तव्यानि उपदिशति ॥३॥

    भावार्थः

    उपह्वरे गिरीणां सङ्गमे च नदीनां गुरुकुलानि संचालयन्तः सत्यनिष्ठा गुरवः शिष्यानध्याप्य विदुषः कर्तव्य-परायणान् सदाचारिणश्च कुर्युः ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।७।३, ‘प्र युजो वा॒चो अ॑ग्रि॒यो वृषाव॑ चक्रद॒द्वने॑’ इति पूर्वार्धपाठः। २. ‘वृषो अचिक्रदत्’ इति मूलस्य ‘वृषः अचिक्रदत्’ इति छेदमवलम्ब्य व्याचष्टे सायणः, परमेष पदग्रन्थविरुद्धः, तत्र ‘वृषा उ अचिक्रदत्’ इति छेददर्शनात्। अत एव विवरणकार आह—वृषा सेक्ता, उ इति पदपूरणः—इति सामश्रमी।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The noble soul alone utters decent words for God. The soul of a Yogi, who practises truth and non-violence, perceives God, his last Refuge.

    Translator Comment

    His refers to a Yogi. Griffith writes. ‘The stanza is very difficult, and I am unable to offer a satisfactory translation. He has translated ‘Vana' as wood, and Sayana as water. The word in the verse means God.

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    Meaning

    First and foremost, generous and eternal lord of love, Soma free from violence, proclaims the words of truth relevant to yajnic life and calls up the yajakas to the hall of yajna in peace and bliss. (Rg. 9-7-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वृषा उ) કામવર્ષક (सत्यः अध्वरः) સત્ય સ્વરૂપ અને સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (अग्रियः युजाः वाचः) અગ્ર-સૃષ્ટિના આરંભથી યુક્ત-આનુપૂર્વીરૂપ મંત્રવાણીઓને (वने सद्म) સંભજન સ્થાન ઋષિઓનાં અન્તઃકરણમાં (अभि प्र अचिक्रदत्) સાક્ષાત્ થઈને પ્રવચન કરે છે. (૩)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पर्वताच्या एकांतात नद्यांच्या संगमावर गुरुकुलाचे संचालन करत सत्यनिष्ठ गुरूने शिष्यांना शिकवून विद्वान, कर्तव्यपरायण व सदाचारी करावे. ॥३॥

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